Wednesday, October 20, 2010

नये कहानीकार एक नया कहानी आंदोलन चलायें

‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2010 के अंक में
रमेश उपाध्याय से अशोक कुमार पांडेय की बातचीत के कुछ चुने हुए अंश

अशोक कुमार पांडेय : रमेश जी, यह बताइए कि 1980 के दशक के बाद के कालखंड में हिंदी कविता और हिंदी कहानी, दोनों में किसी आंदोलन का जो अभाव दिखता है, उसके क्या कारण हैं?

रमेश उपाध्याय : अशोक जी, इस प्रश्न पर सही ढंग से विचार करने के लिए साहित्यिक आंदोलन और साहित्यिक फैशन में फर्क करना चाहिए। साहित्यिक आंदोलन--जैसे भक्ति आंदोलन या आधुनिक युग में प्रगतिशील और जनवादी आंदोलन--हमेशा अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से सार्थक और सोद्देश्य रूप में जुड़े होते हैं, जबकि साहित्यिक फैशन ‘कला के लिए कला’ के सिद्धांत पर चलते हैं और अंततः उनका संबंध साहित्य के बाजार और व्यापार से जुड़ता है। आपने 1980 के दशक के बाद के कालखंड की बात की। अर्थात् आप 1991 से 2010 तक के बीस वर्षों में हिंदी साहित्य में किसी आंदोलन को अनुपस्थित पाते हैं। तो आप यह देखें कि आजादी के बाद से 1980 के दशक तक हिंदी साहित्य मुख्य रूप से दो बड़े आंदोलनों से जुड़ा हुआ था। एक राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से और दूसरे प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन से । और यह दोनों ही प्रकार का साहित्य अपने-अपने ढंग से सार्थक और सोद्देश्य साहित्य था। लेकिन आजादी के बाद जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे आंदोलन कम और साहित्य के नये फैशन ज्यादा थे।

अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से आज की कहानी की मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है?

रमेश उपाध्याय : आज के ज्यादातर लेखक वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान में उन्हें सिर्फ बाजार दिखता है--एक भूमंडलीय बाजार--जिसमें अपनी जगह बनाना, अपना बाजार बनाना, उस बाजार में टिके रहना और ऊँची कीमत पर बिकना ही उन्हें अपना और अपने लेखन का एकमात्र उद्देश्य दिखता है। इस प्रवृत्ति को आप बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति कह सकते हैं और आज की मुख्य प्रवृत्ति यही है।

अशोक कुमार पांडेय : मैं जानता हूँ कि आप बाजारवाद के विरोधी हैं, इसलिए आप इस बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति के समर्थक नहीं हो सकते। तो आज की कहानी की वह कौन-सी प्रवृत्ति है, जिसे आप सही मानते हैं?

रमेश उपाध्याय : भविष्योन्मुखी प्रवृत्ति। कहानीकार किसी भी पीढ़ी का हो, आज उसमें भविष्योन्मुखी दृष्टि से भूमंडलीय यथार्थ को समझने की और उसे प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता होनी चाहिए।

अशोक कुमार पांडेय : हिंदी कहानी की आलोचना की अब क्या भूमिका है? क्या वह वास्तव में नये रचनाकारों की परख कर पा रही है?

रमेश उपाध्याय : आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर निहित है। लेकिन यह देखना चाहिए कि इसका कारण क्या है। मुझे लगता है कि हिंदी कहानी और कहानी की आलोचना दोनों को बाजारवाद बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है। बाजारोन्मुख कहानीकार और आलोचक यह मानकर चल रहें हैं कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह दुनिया अब हमेशा ऐसे ही चलेगी। इसे बदलना, सुधरना, सँवारना, बेहतर बनाना संभव नहीं है। साहित्य से और कहानी जैसी विधा से तो बिलकुल नहीं। वे कहानी को बाजार में बिकने वाली वस्तु मानते हैं। कहानीकार आलोचकों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी कहानी को--और उनको भी--बाजार में ऊँचे दामों में बिकने लायक बनायें। अर्थात् उनका विज्ञापन करें, बाजार में उनकी जगह बनायें, उनकी कीमत बढ़ायें। दुर्भाग्य से आलोचक स्वयं भी यही चाहते हैं कि वे लेखकों का बाजार बना और बिगाड़ सकने की भूमिका में बने रहें, ताकि वे स्वयं भी बाजार में टिके रहें और उनकी अपनी कीमत भी बढ़ती रहे। ऐसे लेखक और ऐसे आलोचक दुनिया के भविष्य के बारे में नहीं, केवल अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं।

अशोक कुमार पांडेय : लेकिन ऐसे कहानीकार और ऐसे आलोचक भी तो हैं, जो अपना भविष्य दुनिया के भविष्य के साथ जोड़कर देखते हैं?

रमेश उपाध्याय : निश्चित रूप से हैं। मगर उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई आंदोलन न होने के कारण वे बिखरे हुए हैं, अलग-थलग पड़े हुए हैं। जरूरत है कि वे निकट आयें और मिल-जुलकर एक आंदोलन चलायें। एक नया कहानी आंदोलन। समाज को, समय को ऐसे ही कहानीकारों और आलोचकों की जरूरत है।
अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से उस नये आंदोलन का नाम और रूप?

रमेश उपाध्याय : रूप तो आंदोलन चलाने वाले लेखक ही उसे देंगे, पर मैं एक नाम सुझा सकता हूँ। हमारी इस बातचीत में अभी-अभी दो शब्द आये--बाजारोन्मुखी और भविष्योन्मुखी। तो हम बाजारोन्मुखी कहानी के बरक्स भविष्योन्मुखी कहानी का आंदोलन ही क्यों न चलायें?

3 comments:

  1. पढ़कर बहुत सुकून मिला कि एक वरिष्ठ साहित्यकार भी इस बाजारवाद के वैसे ही विरोधी हैं, जैसे लेखन की दुनिया में कदम रख रहे हम नए लोग. आशा है नए कहानीकार इतनी हिम्मत और औकात दिखाएंगे कि कोई नया आंदोलन चलाएं और कहानी को दुनिया के भविष्य के साथ जोड़कर देखें.समाज या दुनिया के हित की कीमत पर अपना या अपनी रचना का हित न साधें.
    परिकथा आसानी से उपलब्ध नहीं होती, इसीलिए पूरा इंटरव्यू ब्लॉग में ही आ जाता तो ज्यादा अच्छा होता. सादर
    नीला प्रसाद

    ReplyDelete
  2. bhavishyonmukhi kahani ki bat theek hai. ramesh ji ka kaha naye logon ke liye sahi hai.

    ReplyDelete
  3. अच्छा नाम सुझाया है - भविष्योन्मुखी कहानी आंदोलन.. परिकथा का अंक अभी नहीं मिला है, पूरे साक्षात्कार को पढ़ने की इच्छा हो रही है...

    ReplyDelete