Monday, May 30, 2011

स्वागतयोग्य ‘कुरजां संदेश’

‘‘जब हिंदी में पहले से इतनी पत्रिकाएँ मौजूद हैं, तो फिर एक और नयी पत्रिका क्यों? यह सवाल हमारे भी मन में उठा था और इस पर कई दिनों तक काफी बहस के बाद यह तय किया कि पत्रिकाओं की भीड़ से अलग अगर हम नजर आना चाहते हैं, तो कुछ अलग करना होगा।’’

जयपुर से प्रेमचंद गांधी के संपादन में शुरू हुई नयी पत्रिका ‘कुरजां संदेश’ का प्रवेशांक देखकर लगता है कि उसके संपादकीय में कही गयी यह बात सच है। पत्रिका सचमुच अन्य ‘‘पत्रिकाओं की भीड़ से अलग’’ नजर आती है। यह बड़े आकार में, बढ़िया कागज पर, खूबसूरत ले-आउट और सचित्र साज-सज्जा के साथ सुंदर ढंग से छपी लगभग तीन सौ पृष्ठों की भारी-भरकम और प्रभावशाली पत्रिका है। प्रवेशांक आतंकित करता-सा लगता है। आतंकित करने के लिए एक ही ‘महानायक’ पर्याप्त होता है, पर यहाँ तो एक नहीं, एक शताब्दी के अनेक ‘महानायक’ उपस्थित हैं!

लेकिन आवरण पर छपे चेहरे देखकर तसल्ली हो जाती है कि अरे, ये सब तो अपने ही लोग हैं! भुवनेश्वर, शमशेर, अज्ञेय, केदार, नागार्जुन, अश्क, नेपाली इत्यादि। थोड़ा गौर से देखने पर पता चलता है कि सब साहित्य वाले और हिंदी साहित्य वाले ही नहीं हैं। अकीरा कुरोसावा और अशोक कुमार जैसे सिनेमा वाले भी हैं। विष्णु नारायण भातखंडे और मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे संगीत वाले भी हैं। उर्दू के उस्ताद फैज, मजाज और नून मीम राशिद भी हैं। अंग्रेजी के अग्रज अहमद अली भी हैं। राजस्थानी के कन्हैया लाल सहल, गुजराती के उमाशंकर जोशी, तेलुगु के श्रीश्री, बांग्ला के रवींद्रनाथ ठाकुर (अपने उपन्यास ‘गोरा’ के रूप में), पोलिश के जेस्लो मिलोज इत्यादि भी हैं।

इतना विशाल, व्यापक और भव्य आयोजन शायद मासिक या त्रैमासिक नहीं हो सकता, अतः साल में दो बार होगा। तदनुसार प्रवेशांक मार्च, 2011 से अगस्त, 2011 तक का है और आवरण पर ‘प्रवेशांक: मार्च-अगस्त, 2011’ छपा भी है। लेकिन अंदर वाले पृष्ठ पर शायद कुछ नया करने या ‘‘भीड़ से अलग नजर आने’’ के लिए तारीखें भी दे दी गयी हैं--1 मार्च, 2011 से 31 अगस्त, 2011 तक। संपादक प्रेमचंद गांधी प्रस्तुत लेखक के मित्र हैं, अतः उसने तुरंत फोन मिलाया और चुटकी लेने से नहीं चूका--‘‘मेरे जन्मदिन पर नयी पत्रिका को जन्म देने के लिए बधाई!’’ वैसे संपादक और उनकी टीम के सभी सदस्य (संपादकीय सलाहकार ईशमधु तलवार, संपादन सहयोगी फारुख आफरीदी और ओमेंद्र तथा कार्यालय सहायक कालूराम) बधाई के हकदार हैं।

संपादकीय में अन्य पत्रिकाओं में जो नहीं है, उसे ‘कुरजां संदेश’ के माध्यम से करने का संकल्प किया जाता दिखायी देता है। अन्य पत्रिकाओं में जो ‘अभाव’ गिनाये गये हैं, उन्हें सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाये, तो ‘कुरजां संदेश’ का संपादकीय संकल्प कुछ इस प्रकार होगा :

इस पत्रिका में समूचे हिंदी प्रदेश की तस्वीर के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं तथा दुनिया के अन्य देशों के साहित्य और समाज की तस्वीर भी दिखायी देगी। खंड-खंड परिदृश्य के अमूर्त चित्र की जगह इस विशाल महादेश की विभिन्न भाषाओं तथा बोलियों वाली अनंत वैविध्यपूर्ण संस्कृति की मुकम्मल तस्वीर पेश करने की कोशिश की जायेगी। पूर्वग्रह, गुटबाजी और ‘‘मतानुकूलित पारस्परिक सद्भावना और सहयोग वृत्ति’’ से बचते हुए ‘‘समस्त भारतीय भाषाओं का वास्तविक प्रतिनिधित्व’’ किया जायेगा। ‘‘जड़ता और कुहासे को दूर करने की ईमानदार कोशिश’’ की जायेगी। दुनिया के अन्य देशों में क्या रचा जा रहा है और कौन-सी विचार-सरणियाँ किस प्रकार काम कर रही हैं, इसकी जानकारी दी जायेगी। अच्छे अनुवादकों से कराये गये अच्छे अनुवाद प्रस्तुत किये जायेंगे। इंटरनेट का उपयोग करते हुए पाठकों को दुनिया की अन्य भाषाओं के साहित्य से जोड़ा जायेगा। कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप के, मलेशिया, थाईलैंड, श्रीलंका, भूटान, नेपाल के तथा सार्क देशों के साहित्य के बारे में तो ठीक-ठीक जानकारी दी ही जायेगी। दुनिया के जिन अन्य देशों में ‘‘वैश्वीकरण से उपजे नव-साम्राज्यवाद ने भारत जैसी ही परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं’’, उन देशों की भाषाओं में ‘‘हिंदी समाज जैसी चिंताओं को लेकर जो रचनाएँ लिखी जा रही हैं’’, उनकी जानकारी दी जायेगी। ‘‘विश्वग्राम में ऐसी साझी चिंताओं के लिए भी तो स्थान होना चाहिए’’, अतः ‘कुरजां संदेश’ द्वारा ऐसा स्थान बनाने का काम किया जायेगा। और अंततः पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा गया है कि ‘‘यह काम मुश्किल जरूर है, नामुमकिन नहीं।’’

निश्चित रूप से यह संकल्प स्वागतयोग्य है और यह आत्मविश्वास प्रशंसनीय। लेकिन लगता है कि यह किंचित् अत्युत्साह में बनायी गयी कुछ अधिक ही महत्त्वाकांक्षी परियोजना है, जो प्रवेशांक के पाठक के मन में आशाओं के साथ-साथ कुछ आशंकाएँ भी पैदा करती है। प्रवेशांक स्वयं उन आशंकाओं को जन्म देता प्रतीत होता है। बेहतर होता कि प्रवेशांक संपादकीय संकल्प को व्यावहारिक रूप में सामने लाने वाली सामग्री के साथ आता। ऐसी सामग्री के साथ, जो नयी तो होती ही, जिसके कारण पत्रिका अन्य पत्रिकाओं की भीड़ से अलग भी नजर आती। किंतु न जाने क्यों, प्रवेशांक को कतिपय साहित्यकारों की संयोग से एक साथ आ पड़ी जन्मशतियों से जोड़कर निकालने का निर्णय लिया गया, जबकि यह विषय पिछले दिनों जगह-जगह हुए जन्मशती समारोहों तथा इसी उपलक्ष्य में विभिन्न पत्रिकाओं द्वारा निकाले गये विशेषांकों के कारण पहले ही घिस-पिट चुका था। ‘कुरजां संदेश’ के इस आयोजन के पक्ष में अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि यह केवल अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, केदार आदि कुछ ही साहित्यकारों की नहीं, बल्कि बहुत-से अन्य साहित्यकारों की जन्मशतियाँ मनाने वाला एक सर्वसमावेशी प्रयास है।

लेकिन इस प्रयास में कई पुरानी और बार-बार पढ़ी जा चुकी चीजों का पुनर्प्रकाशन संपादकीय विवशता जैसा बन गया है, जिसका एहसास संपादक को भी है। उन्होंने संपादकीय में इसका औचित्य सिद्ध करने के लिए कहा है--‘‘इस अंक में बहुत-से पाठकों को लग सकता है कि कई लेख और रचनाएँ पुरानी हैं। उन्हें यहाँ शामिल इसलिए किया गया कि आज के नये पाठकों को बहुत संभव है, इन पुरानी रचनाओं की जानकारी ना हो।’’
एक नयी पत्रिका के प्रवेशांक में पुरानी सामग्री देने को उचित ठहराने के लिए दी गयी यह दलील बहुत आश्वस्त नहीं करती। बेहतर यही होता कि प्रवेशांक ऐसी नयी सामग्री लेकर आता, जो संपादकीय में व्यक्त किये गये संकल्प को चरितार्थ करती।

आशा है, यह काम अगले अंक से शुरू होगा और विश्वास है कि सफलतापूर्वक संपन्न भी होगा। प्रवेशांक के आकार-प्रकार से स्पष्ट है कि ‘कुरजां संदेश’ एक साधन-संपन्न पत्रिका है। इसके पास आर्थिक संसाधन तो पर्याप्त हैं ही, मानवीय संसाधनों की भी कमी नहीं है। प्रवेशांक में शामिल रचनाकारों के अलावा इसके देशी-विदेशी सहयोगियों की सूची देखकर लगता है कि अगले अंकों में यह पत्रिका वह सब कर पायेगी, जिसे करने का इरादा प्रवेशांक के संपादकीय में व्यक्त हुआ है।

अतः अगले अंक की उत्सुक प्रतीक्षा के साथ हार्दिक शुभकामनाएँ।

--रमेश उपाध्याय

2 comments:

  1. बाजार के कारण जो साहित्यिक अभाव हो रहा है, वह मिल रहा है, और क्या चाहिये। आभार आपका।

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  2. लीगल सैल से मिले वकील की मैंने अपनी शिकायत उच्चस्तर के अधिकारीयों के पास भेज तो दी हैं. अब बस देखना हैं कि-वो खुद कितने बड़े ईमानदार है और अब मेरी शिकायत उनकी ईमानदारी पर ही एक प्रश्नचिन्ह है

    मैंने दिल्ली पुलिस के कमिश्नर श्री बी.के. गुप्ता जी को एक पत्र कल ही लिखकर भेजा है कि-दोषी को सजा हो और निर्दोष शोषित न हो. दिल्ली पुलिस विभाग में फैली अव्यवस्था मैं सुधार करें

    कदम-कदम पर भ्रष्टाचार ने अब मेरी जीने की इच्छा खत्म कर दी है.. माननीय राष्ट्रपति जी मुझे इच्छा मृत्यु प्रदान करके कृतार्थ करें मैंने जो भी कदम उठाया है. वो सब मज़बूरी मैं लिया गया निर्णय है. हो सकता कुछ लोगों को यह पसंद न आये लेकिन जिस पर बीत रही होती हैं उसको ही पता होता है कि किस पीड़ा से गुजर रहा है.

    मेरी पत्नी और सुसराल वालों ने महिलाओं के हितों के लिए बनाये कानूनों का दुरपयोग करते हुए मेरे ऊपर फर्जी केस दर्ज करवा दिए..मैंने पत्नी की जो मानसिक यातनाएं भुगती हैं थोड़ी बहुत पूंजी अपने कार्यों के माध्यम जमा की थी.सभी कार्य बंद होने के, बिमारियों की दवाइयों में और केसों की भागदौड़ में खर्च होने के कारण आज स्थिति यह है कि-पत्रकार हूँ इसलिए भीख भी नहीं मांग सकता हूँ और अपना ज़मीर व ईमान बेच नहीं सकता हूँ.

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