Saturday, October 8, 2011

सभ्यासभ्य संवाद

रामलीला मैदान में एक बहस

असभ्य : हे बाबू साहब, यह क्या तमाशा हो रहा है यहाँ?
सभ्य : तमाशा? यह तमाशा है? तू यहाँ इस ऐतिहासिक रामलीला मैदान में खड़ा है। उधर मंच पर बैठे अण्णा हजारे अनशन कर रहे हैं। उनके समर्थन में बाबा रामदेव भाषण दे रहे हैं। मंच के सामने ‘मैं अण्णा हूँ’ लिखी टोपियाँ पहने और तिरंगे लहराती पूरे देश की जनता अण्णा को देख और बाबा को सुन रही है। इधर मीडिया का अब तक के अपने इतिहास का सबसे बड़ा जत्था सातों दिन गुणा चौबीसों घंटे के हिसाब से इस अनशन का लाइव शो सारी दुनिया को दिखा रहा है। उधर दिल्ली पुलिस आदर्श भूमिका में शांति और अहिंसा की मूर्ति बनकर खड़ी है। और तू इसे तमाशा कह रहा है? तू टी.वी. नहीं देखता? अखबार नहीं पढ़ता? देश में इतनी महान क्रांति हो रही है और तू...

असभ्य : असभ्य हूँ न, बाबू साहब! देखता-सुनता सब हूँ, पर समझता नहीं। क्रांतियों के बारे में मैंने पढ़ा-सुना ही है। अपनी आँखों से कोई क्रांति नहीं देखी। टी।वी. वालों को चीख-चीखकर यह कहते सुना कि देश में क्रांति हो रही है, तो मैं उसे देखने निकल पड़ा। शहर में दूर-दूर तक जाकर देख आया। कहीं नहीं दिखी। तब सोचा कि शायद रामलीला मैदान में ही हो रही होगी, इसलिए यहाँ आने के लिए चल पड़ा। सुना था कि देश की जनता भ्रष्टाचार का विरोध करने सड़कों पर उतर आयी है। पर मैं दिल्ली की कई सड़कें पार करता यहाँ तक पहुँचा हूँ। देश की तो क्या, मुझे तो दिल्ली शहर की जनता भी कहीं भ्रष्टाचार का विरोध करती नजर नहीं आयी।

सभ्य : यहाँ तो नजर आ रही है!

असभ्य : यह जनता है? मुझे तो यहाँ सब शहरी और शिक्षित लोग दिख रहे हैं!

सभ्य : अरे, तू इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर लेता है! तूने तो कहा कि तू असभ्य है!

असभ्य : क्या करूँ, बाबू साहब! लगता है कि देश में एक नयी जात-बिरादरी पैदा हो गयी है, जिसका नाम है सिविल सोसाइटी। एक दिन मैंने आप सरीखे एक बाबू साहब से उनकी जात पूछी, तो कहने लगे, हम सिविल सोसाइटी हैं। मैंने कहा कि सोसाइटी माने समाज, और समाज में तो मैं भी रहता हूँ, तो मैं कौन सोसाइटी हूँ? बाबू साहब बोले कि तू अनसिविल सोसाइटी है। अब सिविल माने सभ्य, तो अनसिविल माने असभ्य ही हुआ न, बाबू साहब? तब से मैं अपने-आप को असभ्य कहने लगा। पर सिविल सोसाइटी क्या है, अभी तक नहीं समझा।

सभ्य : अरे, तू कैसा घामड़ है! इस आंदोलन में शामिल होने आ गया और यह नहीं जानता कि सिविल सोसाइटी क्या है?

असभ्य : आप जानते हैं? मुझे भी बताइए न!

सभ्य : बताना क्या है। तू खुद अपनी आँखों से देख ले। उधर मंच पर जो अण्णा के अगल-बगल बैठी उनके कान में कुछ कह रही है, वही है सिविल सोसाइटी।

असभ्य : अण्णा के अगल-बगल? इन दोनों को तो मैं पहचानता हूँ, बाबू साहब! एक तरफ हैं किरन बेदी और दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल। अण्णा के कान में जो फुसफुसा रहे हैं, वे तो केजरीवाल हैं। सिविल सोसाइटी कहाँ है?

सभ्य : अरे, बेवकूफ! वे ही सिविल सोसाइटी हैं। अच्छा, तू एन.जी।ओ. तो समझता है न?

असभ्य : एन.जी.ओ. कौन नहीं समझता, बाबू साहब! हिंदी में कहते हैं गैर-सरकारी संगठन। आजकल देश पर उनका ही राज है। लेकिन मैं कहता हूँ कि इनको गैर-सरकारी क्यों कहते हो? सरकारी ही कहो न!

सभ्य : क्यों, सरकारी क्यों?

असभ्य : देखिए, पहले जो काम सरकार करती थी, अब ये करते हैं। आउट-सोर्सिंग का जमाना है न! सरकारी काम ठेकेदारों से कराने का जमाना। सरकार इनसे अपने काम कराती है और इसके लिए इनको पैसा देती है, तो ये एक तरह से सरकारी ही हुए न!

सभ्य : तू इतना जानता है, तो यह भी जानता होगा कि कई एन.जी.ओ. सरकार से कोई पैसा नहीं लेते।

असभ्य : लेकिन एन।जी.ओ. चलाने के लिए पैसा तो चाहिए। भारत की सरकार से नहीं, तो अमरीका-यूरोप की सरकारों से लेते होंगे। नहीं तो फिर जो सरकारों के भी सरकार हैं, यानी कारपोरेटिए, उनसे। मैंने सुना है, आजकल कारपोरेटिए, चाहे देशी हों या विदेशी, गैर-सरकारी संगठनों पर बड़े मेहरबान हैं। ‘हिंदू’ अखबार में अरुंधती राय के एक लेख में मैंने पढ़ा था कि ये जो केजरीवाल हैं, ये एक भ्रष्टाचार-विरोधी एन.जी.ओ. चलाते हैं और उसे फोर्ड फाउंडेशन से लाखों डॉलर मिले हैं।

सभ्य : तू यह सब भी जानता है?

असभ्य : आप जैसे सभ्य लोगों की कृपा से हम असभ्यों को भी कुछ ज्ञान मिल जाता है। लेकिन एक बात बताइए, यह जो आंदोलन यहाँ हो रहा है, भारत सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ है न?

सभ्य : हाँ।

असभ्य : तो भारत सरकार इसकी मदद क्यों कर रही है?

सभ्य : मदद? सरकार अपने ही खिलाफ चलाये जा रहे आंदोलन की मदद क्यों करेगी?

असभ्य : आप तो सभ्य हैं, बाबू साहब, यह तो जानते ही होंगे कि सब आंदोलन एक जैसे नहीं होते। आंदोलन आंदोलन में फर्क होता है और सरकार यह फर्क करती है।

सभ्य : वह कैसे?

असभ्य : देखिए, यह जो अण्णा जी का अनशन है, कोई पहला या अनोखा अनशन नहीं है। मैं उन अनशनों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो देश के करोड़ों लोग गरीबी और बेरोजगारी की वजह से भुखमरी के रूप में करने को मजबूर होते हैं। मैं अन्याय और अत्याचार के मामलों के खिलाफ आंदोलन करने वालों के अनशनों की बात भी नहीं कर रहा हूँ, जो किसानों, मजदूरों और इसी तरह के और लोगों के नेता भूख हड़तालों के रूप में आये दिन करते रहते हैं और मीडिया में जिनकी खबर तक नहीं आती...

सभ्य : तो फिर तू किस तरह के अनशनों की बात कर रहा है?

असभ्य : भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाने वालों के अनशनों की। अच्छा, यह तो आप मानेंगे कि भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ घूसखोरी या पैसे की हेराफेरी नहीं होता? विद्वान लोग बताते हैं कि नीति-नियम और कायदे-कानून के खिलाफ जो किया जाये, वह भ्रष्ट आचरण या भ्रष्टाचार है। तो, खुद कानून का दुरुपयोग करना और अपराधियों को कानून के खिलाफ काम करने देना भी तो भ्रष्टाचार है न?

सभ्य : हाँ, है, तो?

असभ्य : तो मैं आपको भ्रष्टाचार विरोधी दो आंदोलनों और उनमें किये जाने वाले दो आमरण अनशनों की बात बताता हूँ। शायद आपने पढ़ा या सुना होगा कि मणिपुर की एक लड़की है इरोम शर्मिला। उसने जब देखा कि सरकार ने मणिपुर और पूर्वोत्तर के ज्यादातर इलाकों पर सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम थोप दिया है और उसकी आड़ में सुरक्षा बलों ने वहाँ के हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया है, तो वह इसके विरोध में आमरण अनशन पर बैठ गयी...

सभ्य : हाँ-हाँ, सुना है उसके बारे में। वह कुछ दिन यहाँ दिल्ली में भी जंतर-मंतर पर पड़ी रही थी।

असभ्य : हाँ, लेकिन जानते हैं, उसे दिल्ली क्यों आना पड़ा? उसने अनशन शुरू किया था मणिपुर में ही। लेकिन जब देखा कि सरकार तक उसकी खबर पहुँचाने वाला मीडिया उसके पास आ ही नहीं रहा है, तो वह दिल्ली चली आयी कि शायद यहाँ आमरण अनशन करने पर उसकी बात सुनी जाये। मगर यहाँ भी नहीं सुनी गयी। उसे आत्महत्या का प्रयास करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और अस्पताल में डाल दिया गया। दस साल से ऊपर हो गये हैं। वह इंफाल के अस्पताल के एक गंदे कमरे में अपराधी की तरह बंद है। सरकार उसकी नाक में नली डालकर जबर्दस्ती खाना उसके अंदर पहुँचाती है और चाहती है कि इससे तंग आकर वह अपना अनशन तोड़ दे। लेकिन वह अपने अनशन पर डटी है और सरकार उसकी उपेक्षा करते रहने पर तुली है।

सभ्य : वह भी कोई अनशन है! मुँह से न खाया, नाक से खाया! खाना तो मिल रहा है न! भूखी तो नहीं मर रही है न!

असभ्य : लेकिन स्वामी निगमानंद के अनशन को तो अनशन मानेंगे आप, जिनको सरकार ने भूखा मार दिया?

सभ्य : निगमानंद? कौन निगमानंद?

असभ्य : मुझे पता था कि आप उन्हें नहीं जानते होंगे, क्योंकि मीडिया ने उनकी उतनी भी सुध नहीं ली, जितनी इरोम शर्मिला की। आप सभ्य हैं, इतना तो जानते ही होंगे कि गंगा नदी प्रदूषित हो गयी है और इससे भारत सरकार ही नहीं, विश्व बैंक भी चिंतित है। सरकार ने कोई बीस साल पहले एक गंगा एक्शन प्लान बनाकर गंगा को साफ करने और रखने की सोची थी। उस प्लान पर नौ सौ साठ करोड़ रुपये खर्च किये गये। पर गंगा साफ न हुई। अब उसकी सफाई की जिम्मेदारी नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी को सौंपी गयी है और विश्व बैंक ने नये क्लीन गंगा प्रोजेक्ट के लिए एक बिलियन डॉलर...

सभ्य : अबे, तू यह सब क्या बता रहा है? निगमानंद के बारे में बता।

असभ्य : स्वामी निगमानंद उसी उत्तराखंड के थे, जिसके बाबा रामदेव हैं। लेकिन वे रामदेव की तरह कॉरपोरेट संत नहीं थे, जिनका हजारों करोड़ का व्यापार देश और विदेशों में फैला हुआ है। निगमानंद सचमुच संत थे। उन्होंने सरकारी भ्रष्टाचार के कारण माफियाओं द्वारा अवैध तरीके से चलाये जाने वाले और गंगा को प्रदूषित करने वाले स्टोन क्रशरों को बंद कराने का अभियान चलाया। लेकिन उनकी बात न तो उत्तराखंड की राज्य सरकार ने सुनी और न ही दिल्ली की केंद्रीय सरकार ने। तब स्वामी निगमानंद आमरण अनशन पर बैठ गये। दो बार बैठे। पिछली बार पिचहत्तर दिनों का अनशन किया था। इस बार उनके अड़सठ दिन के अनशन के बाद सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और अस्पताल में डाल दिया, जहाँ वे मर गये। यह उन्हीं दिनों की बात है, जब देहरादून के जौली ग्रांट अस्पताल में बाबा रामदेव का अनशन तुड़वाने के लिए मुख्यमंत्री निशंक और बड़े-बड़े संत जूस के गिलास लेकर हाजिर हो गये थे। लेकिन उसी अस्पताल में भरती रहे स्वामी निगमानंद को देखने न कोई नेता गया और न कोई संत। और तो और, मीडिया को भी जीते जी निगमानंद खबर बनने लायक नहीं लगे!

सभ्य : सबकी अपनी-अपनी हस्ती और हैसियत होती है। कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली!

असभ्य : मैं भी तो यही कह रहा था, बाबू साहब, कि सब आंदोलन एक जैसे नहीं होते और सरकार उनमें फर्क करती है। जो आंदोलन उसे वाकई अपने खिलाफ लगता है, उसको वह या तो उपेक्षा से मार डालती है या दमन का बुलडोजर चलाकर। लेकिन जो आंदोलन उसे अपने फायदे का लगता है, उसे वह खुद चलवाती है और उसकी खूब मदद करती है।

सभ्य : कैसे? मैंने यही तो पूछा था तुझसे! तू इधर-उधर की हाँकने लगा। अब बता, सरकार खुद अपने खिलाफ आंदोलन क्यों चलवायेगी? या अपने खिलाफ हो रहे किसी आंदोलन की मदद क्यों करेगी? और हवाई बात मत कर। ठोस उदाहरण देकर बात कर।

असभ्य : नाराज क्यों होते हैं, बाबू साहब, बता रहा हूँ। एक उदाहरण है बाबा रामदेव का आंदोलन और दूसरा है यह जो हो रहा है--सिविल सोसाइटी का आंदोलन!

सभ्य : तेरा दिमाग तो ठीक है? बाबा रामदेव का आंदोलन भी सरकार के खिलाफ था और यह सिविल सोसाइटी का आंदोलन भी सरकार के खिलाफ है। ऐसे आंदोलन सरकार खुद अपने खिलाफ क्यों चलवायेगी? या खुद उनकी मदद क्यों करेगी? क्या तुझे याद नहीं कि सरकार ने बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म करने के लिए इसी रामलीला मैदान में कैसा दमनचक्र चलाया था? क्या तुझे यह भी याद नहीं कि इस समय यहाँ जो आंदोलन चल रहा है, इसे न चलने देने के लिए सरकार ने सिविल सोसाइटी को कितना परेशान किया था?

असभ्य : याद है, बाबू साहब, खूब याद है! भला कोई भूल सकता है कि जो बाबा रामदेव सरकार को उखाड़ फेंक सकने की ताकत अपने अंदर होने की बात कर रहे थे, वे किस तरह जनाने कपड़े पहनकर यहाँ से भागे थे! टी.वी। पर उनको वह जनाना सूट पहने देख मेरा तो हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया था।

सभ्य : तो क्या इससे यह साबित नहीं होता कि बाबा रामदेव का आंदोलन सरकार के खिलाफ था और इसीलिए सरकार ने उसका दमन किया?

असभ्य : तनिक अपनी याददाश्त पर जोर डालिए, बाबू साहब! बाबा रामदेव जब इस रामलीला मैदान पर अनशन करने आये थे, तब क्या हुआ था? सरकार के चार-चार मंत्री हवाई अड्डे पर उनका स्वागत करने गये थे। सरकार और बाबा रामदेव के बीच बाकायदा लिखित समझौता हुआ था कि बाबा को किस तरह अनशन करना है और कब खत्म कर देना है। लेकिन मंच पर बैठे बाबा ने जब देखा कि उनका समर्थन करने उनके भक्त ही नहीं आ रहे, बल्कि प्रमुख विपक्षी दल के लोग भी आ रहे हैं, तो शायद उनको लगा कि वे सरकार से किये गये समझौते को तोड़ सकते हैं और प्रमुख विपक्षी दल की राजनीति को आगे बढ़ाकर खुद आगे बढ़ सकते हैं...

सभ्य : तो इसमें क्या है! राजनीति में तो ऐसे दाँव-पेंच चलते ही हैं। शास्त्रों में भी लिखा है--शठे शाठ्यं समाचरेत्!

असभ्य : ठीक! सरकार ने भी रामदेव के साथ यही किया--शठे शाठ्यं समाचरेत्! जब रामदेव तयशुदा हद से बाहर जाकर समझौता तोड़ने लगे, तो सरकार के एक मंत्री ने मीडिया के सामने आकर वह लिखित समझौता जग-जाहिर कर दिया। आखिर कोई सत्ताधारी दल अपने फायदे के लिए चलवाये गये आंदोलन को अपने खिलाफ चलने देकर अपना नुकसान कैसे होने दे सकता है? इसीलिए सरकार ने बाबा और उनके भक्तों को मार भगाया।

सभ्य : अच्छा, रामदेव को छोड़, यह बता कि यह जो सिविल सोसाइटी का आंदोलन है, यह तो सचमुच सरकार के खिलाफ है न! अगर है, तो तूने यह कैसे कहा कि सरकार इसकी मदद कर रही है? सरकार ने तो पूरी कोशिश की थी कि यह अनशन दिल्ली में होने ही न पाये!

असभ्य : आप तो विद्वान हैं, बाबू साहब, जानते ही होंगे कि नूरा कुश्ती क्या होती है। तो यहाँ रामलीला मैदान में इस आंदोलन के शुरू होने के पहले सिविल सोसाइटी और सरकार के बीच जो हुआ, नूरा कुश्ती का नायाब नमूना था। जो इस बात को नहीं समझे, वे यही समझते रहे कि सरकार सिविल सोसाइटी से डर गयी है। शायद उसे डर है कि अण्णा जी ने दिल्ली में अनशन किया, तो उसका तख्ता पलट जायेगा। शायद इसी डर के मारे वह एक पर एक बेवकूफी किये जा रही है। पहले दिल्ली में अनशन करने की इजाजत न देना। फिर अण्णा जी की मनचाही जगह पर अनशन करने की इजाजत न देना। फिर दुनिया भर की ऐसी शर्तें लगाकर, जिनका पालन कोई कर ही न सके, एक जगह अनशन करने की इजाजत देना। और फिर उस जगह पर धारा एक सौ चवालीस लगाना और अण्णा के वहाँ पहुँचने के पहले ही उनको गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल भेज देना। यह सरकार की कमजोरी और बेवकूफी थी या इन दोनों की मिली-भगत?

सभ्य : मिलीभगत? क्या बकवास करता है! दोनों पक्षों के बीच का तनाव और टकराव मीडिया में साफ दिख रहा था। मीडिया पल-पल की खबर दे रहा था कि सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच कैसा घमासान युद्ध चल रहा है!

असभ्य : यही तो मीडिया का कमाल है, बाबू साहब! नूरा कुश्ती को असली कुश्ती की तरह दिखाओ और जैसा कि हिंदी फिल्मों में होता है, दोनों पहलवानों में से एक को नायक और दूसरे को खलनायक बनाकर लड़ाओ। पहले खलनायक को नायक पर भारी पड़ता दिखाओ, और फिर नायक को उसके हाथों पिटवाकर दर्शकों की सहानुभूति नायक के पक्ष में करके खलनायक को बेवकूफियाँ करते दिखाओ, ताकि दर्शक सस्पेंस में रहते हुए भी समझ जायें कि अंत में जीत नायक की ही होगी और वे खलनायक पर हँसते हुए इंतजार करने लगें कि वह कब और कैसे हारता है! इस तरह मीडिया ने सिविल सोसाइटी को नायक और सरकार को खलनायक बनाया।

सभ्य : अबे, मीडिया को यह सब करने की क्या पड़ी थी? और वह कब से इतना ताकतवर हो गया कि सरकार और सिविल सोसाइटी जैसे दो बड़े पहलवानों में नूरा कुश्ती करा सके? मीडिया तो, जैसा कि सब कह रहे हैं, इस आंदोलन को माल की तरह बेचकर मुनाफा कमा रहा है; अपनी टी.आर।पी. बढ़ा रहा है।

असभ्य : आप उन ताकतों को भूल रहे हैं, बाबू साहब, जो मीडिया और सरकार दोनों की मालिक हैं। यह सारा तमाशा उनका ही कराया हुआ है।

सभ्य : तूने फिर इस आंदोलन को तमाशा कहा! यह अगस्त क्रांति, यह आजादी की दूसरी लड़ाई, यह आजादी के बाद का सबसे बड़ा जन-आंदोलन तमाशा है?

असभ्य : जन-आंदोलन? यह एक नकली, गढ़ा हुआ और प्रायोजित आंदोलन है, बाबू साहब!

सभ्य : नकली?

असभ्य : हाँ, नकली। नकल परीक्षाओं में या फैशन, फिल्म और साहित्य में ही नहीं होती। यहाँ भी हो रही है। गांधीजी की नकल। ‘गांधीगीरी’ की नकल। पुराने जन-आंदोलनों के नारों की नकल। यहाँ तक कि इमरजेंसी के समय के नारे ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ तक की नकल!

सभ्य : और तूने इसे प्रायोजित भी कहा। वह कैसे?

असभ्य : वह ऐसे कि उधर तिहाड़ जेल में अण्णा जी हीरो बनाये जा रहे थे और इधर भीड़ के भव्य दृश्य दिखाने की पूरी तैयारियाँ कर ली गयी थीं। ‘मैं अण्णा हूँ’ लिखी हजारों-लाखों टोपियाँ, महँगी-महँगी डिजायनर मोमबत्तियाँ और छोटी-बड़ी असंख्य तिरंगी झंडियाँ न जाने कब और कैसे तैयार करा ली गयीं कि ज्यों ही टी.वी. के हाइप के मारे लोग अण्णा जी के समर्थन में अपने घरों से निकलकर आये, फौरन से पेश्तर उनको उपलब्ध करा दी गयीं। और प्रायोजित नाटक के अंत में सरकार ने अपनी हार मानकर यह रामलीला मैदान सिविल सोसाइटी को अपने खिलाफ आंदोलन करने के लिए सौंप दिया।

सभ्य : अबे, तू यह कैसी कहानी गढ़ रहा है? जिस वास्तविकता को सारी दुनिया ने देखा है, उसे तू एक फिल्मी सस्पेंस वाली झूठी स्टोरी बनाकर पेश कर रहा है? अच्छा, अगर तेरी इस मनगढ़ंत कहानी पर मैं यकीन कर भी लूँ, तो यह बता कि सरकार को सिविल सोसाइटी से यह नूरा कुश्ती लड़ने की क्या पड़ी थी?

असभ्य : सरकार बड़े संकट में फँसी हुई थी, बाबू साहब! उसके घोटाले-दर-घोटाले सामने आते जा रहे थे और घोटाले भी इतनी बड़ी-बड़ी रकमों के थे कि सरकारों और घोटालों का चोली-दामन का साथ मानकर चलने वालों का भी ध्यान उन पर जा रहा था। सरकार के मंत्री-वंत्री तो फँस ही रहे थे, आँच कारपोरेटियों तक भी पहुँच रही थी। सरकार किसकी है, कैसे बनती है और किसके लिए काम करती है, ऐसी बातें भी खुलकर सामने आने लगी थीं...

सभ्य : जैसे?

असभ्य : जैसे नीरा राडिया वाला कांड ही लीजिए। उससे सारी दुनिया को पता चल गया कि सरकार में अपने लोगों को घुसाने या अपने मन की सरकार बनवाने के लिए कारपोरेटिए किस तरह की लॉबीइंग कराते हैं और उसके लिए किस तरह मीडिया के दिग्गज बिकते और खरीदे जाते हैं! फिर, जो घोटाले हुए, उनसे यह सवाल उठने ही वाला था कि घोटाला करने वाले मंत्रियों और अफसरों की ही क्यों, उनकी भी गर्दन पकड़ी जाये, जिनको उन घोटालों से फायदा पहुँचा है। मामला आगे बढ़ता, तो कारपोरेटिए फँसते, जैसे कि दो-चार के नाम सामने आ भी गये। अब जमाना है भूमंडलीकरण का, सो कंपनियाँ फँसतीं, तो देशी ही नहीं, विदेशी कंपनियाँ भी फँसतीं और निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का भी परदाफाश होता। इसलिए सरकार और उसके देशी-विदेशी आकाओं ने सोचा कि इस मामले को कुछ इस तरह घुमा देना चाहिए कि लोगों का ध्यान बँट जाये, घोटालों पर से हटकर कहीं और लग जाये।

सभ्य : लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार पर से कैसे हटेगा?

असभ्य : यही तो है लोहे को लोहे से काटने का कमाल!

सभ्य : मतलब?

असभ्य : मान लीजिए, चार चोर पकड़े गये हैं और बाकी डरे हुए हैं कि कहीं वे भी न पकड़े जायें। सो वे सब मिलकर चोर-चोर का शोर मचाते हैं और कहने लगते हैं कि दुनिया में सब चोर हैं। फिर सवाल उठाते हैं कि दुनिया भर के सब चोरों को कैसे पकड़ा जाये? और जवाब देते हैं कि कोई ईश्वर, देवता, साधु, महात्मा ही किसी चमत्कार से इस समस्या को हल कर सकता है। और अपने देश में ऐसे चमत्कारी महापुरुषों की क्या कमी! सो झटपट एक मिनी महात्मा गांधी खोज निकाले गये, जो एक गाँव के नेता थे। उनको मीडिया की मदद से राष्ट्रीय नेता बनाया गया, जन-लोकपाल की माँग करने का आंदोलन चलाया गया और उसमें पैसा तो पानी की तरह बहाया ही गया, मीडिया को भी दिन-रात प्रचार के काम पर लगाया गया। और मीडिया ने ऐसा माहौल बना दिया कि जो इस आंदोलन का समर्थन करे, वह मानो दूध का धुला और जो विरोध या आलोचना करे, वह भ्रष्टाचारी और भ्रष्ट सरकार का हिमायती ही नहीं, देशद्रोही भी! तर्क और विवेक की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गयी। आप नायक के साथ नहीं हैं, तो जरूर खलनायक के साथ हैं!

सभ्य : यह तू अण्णा जैसे संत महात्मा पर ही नहीं, सिविल सोसाइटी के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर ही नहीं, इस आंदोलन में शामिल सारे देश की जनता पर भी कीचड़ उछाल रहा है। मैं तेरी इस मनगढ़ंत कहानी पर कभी यकीन नहीं करूँगा। जा, भाग यहाँ से!

असभ्य : असभ्य हूँ न, बाबू साहब, सभ्य समाज से भगाया ही जाऊँगा! खैर, चलिए, इसको मेरी मनगढ़ंत कहानी ही मान लीजिए। लेकिन यह बताइए कि अब जबकि सरकार ने सिविल सोसाइटी की शर्तें मान ली हैं और अण्णा जी कल जब अपना अनशन समाप्त कर देंगे, तब क्या होगा?

सभ्य : जन-लोकपाल बनेगा, और क्या!

असभ्य : उससे क्या होगा?

सभ्य : भ्रष्टाचार खत्म होगा।

असभ्य : लेकिन यह बताइए कि जब सारे नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, तमाम छोटे-बड़े अफसर और तमाम छोटे-बड़े न्यायाधीश भ्रष्ट हो सकते हैं, तो क्या इन सबके भ्रष्टाचार का फैसला करने वाला लोकपाल भ्रष्ट नहीं हो सकता? जनता अपने प्रतिनिधि चुनने में गलती कर सकती है, सरकार अपने अधिकारी और न्यायाधीश नियुक्त करने में गलती कर सकती है, तो क्या सिविल सोसाइटी लोकपाल नियुक्त करने में गलती नहीं कर सकती? और वे देशी-विदेशी कारपोरेटिए, जो पूरी की पूरी सरकारें खरीद सकते हैं, क्या एक लोकपाल को नहीं खरीद सकते?

सभ्य : तू तो बड़ी डरावनी बातें करता है, रे!

असभ्य : क्या, बाबू साहब, आप भी! मैं और डरावनी बातें! मैं तो खुद ही डरा हुआ हूँ। मैं तो यह सोचकर ही काँप जाता हूँ कि लोकपाल भी भ्रष्ट निकला या भ्रष्ट बना दिया गया, तब क्या होगा?

सभ्य : तो क्या यह इतना बड़ा भ्रष्टाचार विरोधी जन-आंदोलन बेकार चला जायेगा?

असभ्य : नहीं, मैं इस आंदोलन के दो हिस्से मानता हूँ। एक हिस्सा वह, जो एक प्रायोजित कार्यक्रम है और दूसरा वह, जो भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता के इसमें शामिल हो जाने से कुछ हद तक सच्चा जन-आंदोलन बन गया है। यह दूसरा हिस्सा बेकार नहीं जायेगा। इससे लोगों में एक नयी समझ और चेतना पैदा हो सकती है। लेकिन प्रायोजित कार्यक्रम जन-आंदोलन नहीं होते, बाबू साहब! कल जब अण्णा जी अपना अनशन खत्म कर देंगे और यहाँ हो रहा यह तमाशा बंद हो जायेगा, तो सब लोग फिल्म देखकर हॉल से निकले दर्शकों की तरह अपने-अपने घर चले जायेंगे और फिर उन्हीं काम-धंधों में लग जायेंगे, जिनमें दूसरों का काम करने पर चाहे वे पूरी ईमानदारी से एक पैसा भी न लें, पर अपना जायज काम कराने के लिए भी उन्हें बेईमानों को पैसा देना पड़ेगा।

सभ्य : यानी भ्रष्टाचार बना रहेगा?

असभ्य : बना ही रहेगा।

सभ्य : कभी दूर नहीं होगा?

असभ्य : दूर हो सकता है, लेकिन एक शर्त पर।

सभ्य : वह क्या?

असभ्य : सिविल-अनसिविल का चक्कर छोड़ एक ऐसी सोसाइटी बनायी जाये, जिसमें जीने के लिए भ्रष्ट होना जरूरी न हो और भ्रष्टाचार गैर-जरूरी होकर खुद-ब-खुद खत्म हो जाये।

--रमेश उपाध्याय

8 comments:

  1. भाँति भाँति के अनशन, सरकारों को टेन्शन।

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  2. मुझे तो यह कम्प्लीट नुक्कड़ नाटक की स्क्रिप्ट लग रही है. सांस्कृतिक संगठनों को इसे प्रस्तुत करना चाहिए.

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  3. ‎"जब सारे नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, तमाम छोटे-बड़े अफसर और तमाम छोटे-बड़े न्यायाधीश भ्रष्ट हो सकते हैं, तो क्या इन सबके भ्रष्टाचार का फैसला करने वाला लोकपाल भ्रष्ट नहीं हो सकता? जनता अपने प्रतिनिधि चुनने में गलती कर सकती है, सरकार अपने अधिकारी और न्यायाधीश नियुक्त करने में गलती कर सकती है, तो क्या सिविल सोसाइटी लोकपाल नियुक्त करने में गलती नहीं कर सकती? और वे देशी-विदेशी कारपोरेटिए, जो पूरी की पूरी सरकारें खरीद सकते हैं, क्या एक लोकपाल को नहीं खरीद सकते?" वाह रमेशजी, जवाब नहीं आपका। कितने बेबाक तरीके से आपने इस भ्रष्टाचार विरोधी मजमे की असलियत को उजागर किया है और इस नाटकीय संवाद ने तो उसे पूरी तरह बेनकाब ही कर दिया। लाजवाब।

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  4. बेहतरीन,साढ़े हांथो से किया गया पोस्टमार्टम !

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  5. bahut sateek aur maarak . aapke is lekh se anek logon ke dimagon ke jaale saaf honge.

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  6. सिविल-अनसिविल का चक्कर छोड़ एक ऐसी सोसाइटी बनायी जाये, जिसमें जीने के लिए भ्रष्ट होना जरूरी न हो और भ्रष्टाचार गैर-जरूरी होकर खुद-ब-खुद खत्म हो जाये।
    _______________________________________________

    कब बनेगी ऐसी सोसाइटी????

    हम कयामत तक इंतज़ार करेंगे.....जिये तो.....

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