Sunday, April 22, 2012

मौसम की भविष्यवाणी


बहुत दिनों बाद अपने ब्लॉग पर लौटा हूँ. प्रस्तुत है इस बीच लिखी गयी कहानी 'मौसम की भविष्यवाणी'. यह कहानी कथा-पत्रिका 'सारिका' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित मेरी कथा-शृंखला 'किसी देश के किसी शहर में' के अंतर्गत अगस्त, 1984 के अंक में 'मौसम' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी. फिर यह कहानी मेरे आठवें कहानी संग्रह 'किसी देश के किसी शहर में' में 'भविष्य' शीर्षक से कुछ परिवर्तनों के साथ शामिल हुई. जलवायु-परिवर्तन की वर्तमान समस्या के संदर्भ में मैंने इसे फिर से लिखा है.


किसी देश के किसी शहर में एक आदमी मौसम-विज्ञान की प्रयोगशाला में काम करता  था। वह एक वरिष्ठ और प्रसिद्ध मौसम-विज्ञानी था। उस प्रयोगशाला में शहर के घटते-बढ़ते तापमान का, हवा की दिशा और गति का, उसमें मौजूद नमी और गैसों का, और समय-समय पर आने वाले आँधी, तूफान, बादलों आदि का अध्ययन किया जाता था। वहाँ मौसम के अनुसार पड़ने वाली सर्दी, गर्मी, बर्फ और बारिश की मात्र दर्ज की जाती थी और मौसम संबंधी भविष्यवाणियाँ तैयार की जाती थीं, जो हर दिन उस देश के रेडियो-टेलीविजन से प्रसारित और अखबारों में प्रकाशित होती थीं।

उस प्रयोगशाला में काम करने वाले वैज्ञानिकों का मुख्य काम मौसम का अध्ययन करना, अनुमान लगाना और भविष्यवाणी करना ही था, लेकिन वह आदमी इसके साथ-साथ एक अनुसंधान भी कर रहा था। वह पता लगाना चाहता था कि आजकल मौसम विभाग द्वारा की जाने वाली भविष्यवाणियाँ अक्सर गलत क्यों साबित हो जाती हैं। कहा जाता है कि आसमान साफ रहेगा, लेकिन अचानक बादल घिर आते हैं और बारिश होने लगती है। कहा जाता है कि तापमान गिरेगा, बर्फ भी पड़ सकती है, लेकिन अचानक गर्मी और उमस बढ़ जाती है। कहा जाता है कि मौसम खुशगवार रहेगा, लेकिन अचानक तापमान गिर जाता है, आँधी-तूफान आ जाते हैं और बर्फ पड़ने लगती है...

मौसम की कुछ भविष्यवाणियाँ पहले भी गलत निकला करती थीं, लेकिन ऐसा अपवादस्वरूप ही होता था। अब यह नियम-सा बनता जा रहा था। मौसम में अचानक भारी तब्दीलियाँ हो जाती थीं और ऐसी आकस्मिकताओं की आवृत्ति बढ़ती जा रही थी।

पहले जो ऋतुएँ कमोबेश ठीक समय पर एक ही प्रकार से आया-जाया करती थीं, अब अपना समय और स्वभाव बदल रही थीं। उस देश के लोग यह परिवर्तन कई वर्षों से देख रहे थे। वे देख रहे थे कि ठंड के दिन साल में लगातार कम होते जा रहे हैं, लेकिन ठंड पहले से बहुत ज्यादा पड़ने लगी है। गर्मी के दिन साल में लगातार ज्यादा होते जा रहे हैं और उनके ताप की तीक्ष्णता भी बढ़ती जा रही है। उनके लिए सबसे चिंताजनक बात यह थी कि वर्षा की अवधि और मात्रा हर साल कम से कमतर होती जा रही है, लेकिन अचानक फट पड़ने वाले बादलों से आयी बाढ़ से होने वाली तबाही की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। लेकिन लोग यह नहीं समझ पा रहे थे कि इसका कारण क्या है। वह आदमी उस कारण का पता लगाना और उसका निराकरण करना चाहता था।

देश के पर्यावरणवादी इसके तीन कारण बता रहे थे। एक यह कि जंगल के ठेकेदारों ने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई करके उस हरियाली को नष्ट कर दिया है, जो पर्यावरण को संतुलित रखती है। दूसरा यह कि देश के शहर बेहिसाब फैलते और खेतों तथा बाग- बगीचों की हरियाली को निगलते चले जा रहे हैं। और तीसरा यह कि ग्रीनहाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से पैदा हुई ‘ग्लोबल वार्मिंग’ नामक बीमारी से पृथ्वी का तापमान  बढ़ रहा है, जिसका असर सारी दुनिया के साथ-साथ हमारे देश पर भी पड़ रहा है।

वह आदमी देश का एक जाना-माना वैज्ञानिक था। वह अपने लेखों और भाषणों के जरिये अपने देश की जनता और सरकार, दोनों से कहा करता था, ‘‘अंधाधुंध पेड़ काटना बंद करो। ज्यादा से ज्यादा नये पेड़ उगाओ। बस्तियों के बेहिसाब फैलाव को रोको। हरियाली को जहाँ तक हो सके, बचाओ-बढ़ाओ और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम से कम करो।’’

एक दिन उसे लगा कि शायद सरकार ने उसकी बात मान ली है। हर साल लाखों नये पेड़ लगाने के लिए वृक्षारोपण अभियान चालू कर दिया है और जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ कुछ कानून भी बना दिये हैं। लेकिन बाद में उसे पता चला कि सरकार ये काम उसकी बात मानकर नहीं, बल्कि ‘उत्तर’ के देशों की सरकारों के दबाव में आकर कर रही है, जो चाहती हैं कि उनके देशों द्वारा पैदा की गयी ग्लोबल वार्मिंग की बीमारी का इलाज ‘दक्षिण’ के देश करें।

‘‘चलो, अच्छा है।’’ उस आदमी ने सोचा, ‘‘इसी बहाने पृथ्वी का कुछ भला होता है, तो ठीक है।’’

लेकिन वह जानता था कि हरियाली को बचाने और बढ़ाने जैसे उपायों के नतीजे जल्दी नहीं निकलने वाले, जबकि जलवायु परिवर्तन के परिणाम आज ही भीषण रूप लेने लगे हैं।

उस भीषणता का एक रूप तो उसे अपने ही क्षेत्र में प्रत्यक्ष दिख रहा था। कई वर्षों से यह हो रहा था कि मानसून के बादल या तो उस क्षेत्र की तरफ रुख ही न करते, या देर-सबेर आते और बहुत थोड़ा पानी बरसाकर चले जाते।

उस आदमी ने इस समस्या पर विचार किया और समाधान के लिए सरकार के पास जाकर कहा, ‘‘मैंने देखा है कि इस इलाके पर से मानसून के बादल गुजरते तो हैं, लेकिन बरसते नहीं। कभी-कभी थमकर गरजते हैं, बिजलियाँ चमकाकर वर्षा का आश्वासन-सा भी देते हैं, लेकिन तभी कहीं से तेज हवा चल पड़ती है और उन्हें उड़ा ले जाती है।’’

‘‘तो आप सरकार से क्या चाहते हैं?’’ सरकार ने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘क्या हम अपनी वायुसेना को आदेश दें कि वह बादलों को घेरकर रोके और उनसे जबर्दस्ती वर्षा करवाये?’’

‘‘यह काम किसी सैनिक शक्ति से नहीं, किसी वैज्ञानिक युक्ति से ही होगा।’’ उस आदमी ने जवाब दिया, ‘‘मैं उस वैज्ञानिक युक्ति का आविष्कार करना चाहता हूँ।’’

सरकार बहुत उत्साहित हुई, क्योंकि उसने जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ कानून तो पास कर दिये थे, लेकिन तभी से जंगल के ठेकेदार उसकी जान खाये जा रहे थे। उनका कहना था कि सरकार पेड़ों की नहीं, ठेकेदारों की है और ठेकेदारों को पेड़ काटने का हक हासिल रहना ही चाहिए। सरकार को पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने की जगह कुछ ऐसा करना चाहिए कि पेड़ जल्दी उगें और जल्दी बड़े हों, ताकि ठेकेदारों को काटने के लिए हरे-भरे जंगल हमेशा मिलते रहें।

सरकार ठेकेदारों को नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए वह उस क्षेत्र में वर्षा न होने से चिंतित और परेशान थी। वह चाहती थी कि उस क्षेत्र में खूब वर्षा हो, जंगल हमेशा हरे-भरे रहें और किसी तरह पेड़ जल्दी से जल्दी बढ़-पनपकर ठेकेदारों को काटने के लिए मिल सकें।

सरकार ने सोचा, अगर यह आदमी किसी वैज्ञानिक युक्ति से जबरन बारिश करा सके, तो क्या बात है! ठेकेदारों को खुश करने का एक अच्छा मौका हाथ लगेगा। ठेकेदार तो हमेशा यही चाहते हैं कि सरकार सार्वजनिक धन से उनको निजी लाभ पहुँचाने वाले काम ही किया करे।

‘‘अच्छा, बताइए, आप सरकार से क्या चाहते हैं?’’ सरकार ने उस आदमी से कहा।

वह आदमी ‘जबरिया बरसात परियोजना’ के नाम से अपने अनुसंधान की पूरी योजना बनाकर लाया था। उसने विस्तार से अपनी योजना सरकार को समझायी। सरकार पहले से ही उसे मंजूरी देने को तैयार बैठी थी। फिर भी औपचारिकता पूरी करने के लिए उसने परियोजना को समझने का नाटक किया। कुछ प्रश्न पूछे और उस आदमी के उत्तरों से संतुष्ट हुई।

‘‘ठीक है, हमने आपकी रिसर्च का खर्च मंजूर किया।’’ सरकार ने कहा, ‘‘लेकिन आपको जल्दी से जल्दी इस जबरिया बरसात के तरीके का पता लगाना होगा।’’

उस आदमी ने सरकार को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘‘मैं खुद बहुत चिंतित हूँ, क्योंकि यही हाल कुछ साल और रहा, तो सारा इलाका रेगिस्तान बन जायेगा।’’

सरकार से रिसर्च का खर्च मिल जाने के बाद उस आदमी ने अपना काम शुरू कर दिया। वह देश के कई प्रतिभाशाली मौसम-विज्ञानियों को जानता था। उसने स्वयं अनुरोध करके उन्हें अपने पास अनुसंधान करने के लिए बुलाया और अपनी ‘जबरिया बरसात परियोजना’ का उद्देश्य बताते हुए उनसे कहा, ‘‘कुछ लोगों ने इस हरे-भरे क्षेत्र की हरियाली उजाड़ देने की आत्मघाती मूर्खता कर डाली है, जिससे यहाँ हर साल सूखा पड़ने लगा है और यह उपजाऊ धरती रेगिस्तान बनती जा रही है। हमें इसको रोकना है।’’

बुलाये गये मौसम-विज्ञानियों में से कुछ नये विचारों के थे, जो एक महत्त्वपूर्ण नये अनुसंधान की साहसपूर्ण चुनौती स्वीकार करके आये थे। उन्होंने उस आदमी से कहा, ‘‘आप चिंता न करें, हम जी-जान से जुट जायेंगे और हमें पूरी उम्मीद है कि आपके निर्देशन में हम बादलों को बरसने पर मजबूर करने का कोई न कोई तरीका जरूर खोज निकालेंगे।’’

लेकिन कुछ मौसम-विज्ञानी ऐसे भी आ गये थे, जो वर्षों पहले कोई महत्त्वपूर्ण काम कर चुके थे और उसी से प्राप्त प्रतिष्ठा के बल पर आज भी मौसम-विज्ञानी बने हुए थे। नया कुछ सोचना और करना उनके बस की बात नहीं थी। उन्होंने उस आदमी के द्वारा बनायी गयी परियोजना में मीन-मेख निकालते हुए कहा, ‘‘सच कहें, भाई, हमें तो यह परियोजना बहुत हवाई, दुस्साहसिक और बेतुकी मालूम हो रही है। काटे गये पेड़ों की जगह नये पेड़ लगाने का आपका सुझाव बढ़िया था। सरकार उस पर अमल भी कर रही है। बड़ी संख्या में पेड़ लगाये जा रहे हैं। हमारे विचार से वही एक व्यावहारिक तरीका है।’’

‘‘लेकिन आप जानते हैं कि नये पेड़ लगाने का काम व्यावहारिक रूप में किस तरह हो रहा है? पेड़ लगा तो दिये जाते हैं, लेकिन फिर कोई नहीं जानता कि उनका क्या हुआ! जाकर देखिए, ज्यादातर पौधे पानी के बिना सूख गये हैं। बहुत-सों को जानवर चर गये हैं। और जिनको क्षेत्र के लोगों ने बचा लिया है, उनको भी बड़े होने में अभी बहुत वक्त लगेगा। क्या तब तक के लिए हमें वर्षा की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए?’’ उसने कुछ उत्तेजित स्वर में कहा।

‘‘लेकिन मौसम-विज्ञान के अनुसार जब तक प्राकृतिक परिस्थितियाँ नहीं बदलतीं, तब तक वर्षा हो ही कैसे सकती है? क्या ऐसा हो सकता है कि हम बादलों को गर्दन पकड़कर झुका दें और कहें कि बरसो!’’ एक बुजुर्गवार ने कहा और दूसरे बुजुर्गवार हँस पड़े।

नये लोगों को उनका हँसना बुरा लगा। वे बोले, ‘‘विज्ञान का इतिहास बताता है कि प्रत्येक प्राकृतिक शक्ति को आदमी ने इसी तरह गर्दन पकड़कर झुकाया है!’’

बुजुर्ग लोग नये लोगों की आलोचना करने लगे, ‘‘आप लोग हर चीज में उतावली दिखाते हैं। लेकिन विज्ञान में उतावली से काम नहीं चलता। विज्ञान के क्षेत्र में बड़े धैर्य, संयम और समझदारी के साथ काम करने की जरूरत होती है।’’

उस आदमी ने नये-पुराने लोगों को आपस में ही उलझने से रोका। पुरानों से उसने कहा, ‘‘क्या कोई भी नया काम करने के लिए साहस और पहलशक्ति की जरूरत नहीं होती है? क्या विज्ञान द्वारा किये गये अब तक के सभी महत्त्वपूर्ण आविष्कार  सामने आने से पहले असंभव-सी कल्पनाएँ ही नहीं थे?’’

फिर उसने नयों को समझाया, ‘‘हमारे वरिष्ठ वैज्ञानिक धैर्य, संयम और समझदारी के साथ काम करने की जो सलाह दे रहे हैं, वह बिलकुल सही है।’’

इस प्रकार नये-पुराने दोनों तरह के लोगों को समझा-बुझाकर उस आदमी ने काम में लगा दिया और खुद भी उनके साथ जुट गया। वह खुद सबसे ज्यादा मेहनत करता। प्रयोगों और परीक्षणों में जान जोखिम में डालने के लिए खुद को सबसे आगे रखता। लेकिन कोई भी काम करते समय वह अपने तमाम सहकर्मियों से राय जरूर लिया करता।

लेकिन उन सब लोगों के द्वारा किया जा रहा काम किसी परिणाम पर नहीं पहुँच रहा था। उधर सरकार बार-बार काम की प्रगति की रिपोर्ट माँग रही थी। दरअसल, बात यह थी कि उन दिनों उस क्षेत्र में कायदे से बारिश का मौसम होना चाहिए था, लेकिन अभी तक एक बूँद भी पानी नहीं बरसा था। ऐसा लग रहा था कि इस साल ऐसा सूखा पड़ेगा कि अकाल की स्थिति पैदा हो जायेगी। वह आदमी और उसके उत्साही सहकर्मी खुद यह चाहते थे कि जबरिया बरसात का कोई तरीका जल्दी से जल्दी निकल आये, ताकि इसी साल से जबरिया बरसात करायी जा सके। लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी कोई तरीका समझ में नहीं आ रहा था।

उधर सरकार की परेशानी यह थी कि वह उस क्षेत्र के लोगों को अकाल से बचाने का कोई उपाय नहीं कर पा रही थी। उस शहर के तथा आसपास के लोग ‘पानी-पानी’ चिल्ला रहे थे, क्योंकि वर्षा न होने के कारण कूप-नलकूप और नदी-नाले सब सूख गये थे। नहाने-धोने के लिए तो दूर, पीने तक के लिए लोगों को पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा था। नदियों का जल-स्तर घट जाने से कई पनबिजलीघर बंद हो गये थे और शहर में बिजली का भी अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया था। आम लोगों के घरों में कूलरों की कौन कहे, पंखे भी चलने बंद हो गये थे, जबकि शहर में भीषण गर्मी पड़ रही थी। रात में आम लोगों को लैंपों और मोमबत्तियों से काम चलाना पड़ रहा था, जिनसे रोशनी कम मिलती थी, जानमारू ताप और दमघोंटू धुआँ ज्यादा।

सरकार को लग रहा था कि अब जबरिया बरसात ही एकमात्र उपाय रह गया है। आम लोगों को तसल्ली देने के लिए उसने इस परियोजना का प्रचार भी खूब किया था। इसलिए लोगों को भी यह लग रहा था कि इस परियोजना के जरिये मौसम बदल जाने पर ही राहत मिलेगी। मगर परियोजना किसी परिणाम पर नहीं पहुँच रही थी और लोगों का असंतोष बढ़ता जा रहा था। वे कहने लगे थे, ‘‘इस अकाल के लिए सरकार ही जिम्मेदार है। इसी ने ठेकेदारों से सारे जंगल कटवाकर इस इलाके को रेगिस्तान बनाया है।’’

उधर ठेकेदार जंगलों की कटाई के विरुद्ध बने कानून को ठेंगा दिखाते हुए जंगल के बचे-खुचे पेड़ों को भी कटवा रहे थे। लोगों ने सरकार से शिकायत की, ‘‘कानून तोड़कर ठेकेदार पेड़ों को कटवाते जा रहे हैं।’’

सरकार को ठेकेदारों के विरुद्ध कार्रवाई करनी पड़ी। ठेकेदारों ने अपना गुस्सा उस आदमी पर उतारा, ‘‘लोगों को उसी बदमाश ने भड़काया है। हम हमेशा से पेड़ काटते आ रहे हैं। पहले तो कभी लोगों ने हमारे खिलाफ इस तरह की शिकायत नहीं की।’’ उन्होंने सरकार से उसकी शिकायत की और पूछा, ‘‘उसके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की जाती?’’

‘‘वह तो आप ही लोगों के लिए काम कर रहा है।’’ सरकार ने उन्हें समझाया, ‘‘उसने अगर जबरिया बरसात करा दी, तो पेड़ उगेंगे, जल्दी-जल्दी बड़े होंगे और आपके ही काम आयेंगे।’’

‘‘ऐसी बेकार की भविष्यवाणियाँ करना बंद करो!’’ ठेकेदारों ने सरकार को धमकाते हुए कहा, ‘‘हम उस आदमी की सारी चाल समझ गये हैं। वह चाहता है कि हम पेड़ न काटें। लेकिन हमारा तो व्यवसाय ही पेड़ काटना है। पेड़ काटना हम कैसे बंद कर सकते हैं? उस आदमी को रिसर्च का खर्च देना बंद करो और उससे कहो कि वह अपनी परियोजना को भूल जाये। उसका काम मौसम की सही भविष्यवाणी करना है। वह अपना काम करे और यह देखे कि मौसम की भविष्यवाणियाँ, जो आजकल अक्सर गलत निकलती हैं, सही साबित हुआ करें। यह तुम्हारे अपने हित में भी जरूरी है। आजकल तुम्हारी ज्यादातर भविष्यवाणियाँ गलत साबित हो रही हैं--चाहे फसल अच्छी होने की हों या औद्योगिक उत्पादन बढ़ने की। इससे तुम्हारी विश्वसनीयता कम होती जा रही है। सोच लो, इसका परिणाम क्या होगा!’’

सरकार ठेकेदारों की ही थी, इसलिए डर गयी। उसने अगले ही दिन एक सख्त आदमी को उस प्रयोगशाला का सर्वोच्च अधिकारी बनाकर भेज दिया।

अधिकारी बड़े ठसके से आया और आते ही उसने प्रयोगशाला के तमाम मौसम-विज्ञानियों को बुलाकर कहा, ‘‘कान खोलकर सुन लीजिए आप लोग! मैं बहुत सख्त प्रशासक हूँ और अपने आदेशों की अवहेलना मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। मेरा पहला आदेश है कि आज से आप लोग सिर्फ अपने काम से काम रखेंगे। आप लोगों का काम सिर्फ मौसम की भविष्यवाणी करना है, जंगल की कटाई या सरकारी कामकाज में दखल देना नहीं। आज से आप मौसम के संबंध में दैनिक भविष्यवाणी करने के अलावा न तो कोई लेख लिखेंगे, न भाषण देंगे, न कोई बयान देंगे। मुझे मालूम हुआ है कि आप लोगों का सारा समय इन्हीं कामों में जाता है। अब यह सब नहीं चलेगा।’’

‘‘यह हमारी वैज्ञानिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात है। हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे।’’ कुछ नये वैज्ञानिकों ने एक साथ कहा।

‘‘चुप रहिए!’’ अधिकारी चिल्लाकर बोला, ‘‘मैं यहाँ का सर्वोच्च अधिकारी हूँ। आप लोगों को वही करना पड़ेगा, जो मैं कहूँगा।’’

‘‘आप सिर्फ अधिकारी हैं, मौसम-विज्ञानी नहीं।’’ उस आदमी ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘मेरे ये साथी ‘जबरिया बरसात परियोजना’ में काम कर रहे हैं, जो मेरी देख-रेख में चल रही है। आपको जो आदेश देना हो, मुझे दीजिए। मेरे सहकर्मियों को आदेश देने का आपको कोई अधिकार नहीं है।’’

‘‘अच्छा, तो आप हैं!’’ अधिकारी ने उस आदमी को पहचानते हुए भी अनजान बनकर कहा, ‘‘आपको मालूम होना चाहिए कि मौसम विभाग की कोई भविष्यवाणी गलत निकलती है, तो उसका क्या परिणाम होता है। उससे लोगों में असंतोष पैदा होता है और सरकार की साख गिरती है। देश के हित में सरकार की साख बचाये और बनाये रखना सभी देशभक्तों की, और खास तौर से सरकारी कर्मचारियों की, जिम्मेदारी है। आप वैज्ञानिक हैं, लेकिन सरकारी कर्मचारी हैं। यहाँ जिस काम के लिए सरकार ने आपको नियुक्त किया है, वह है मौसम की सही भविष्यवाणी करना। इसलिए आज से आपकी परियोजना बंद की जाती है।’’

‘‘बंद?’’ वह आदमी बौखला गया, ‘‘उसमें इतने लोगों का इतना श्रम और समय लगा है। सरकार का, यानी जनता का, इतना पैसा खर्च हुआ है। उसे इस तरह बिना किसी परिणाम तक पहुँचाये बंद कैसे किया जा सकता है?’’

लेकिन अधिकारी ने उसकी एक न सुनी। उसे और ज्यादा धमकाते हुए कहा, ‘‘मुझे मालूम हुआ है कि पिछले कुछ समय से आपके द्वारा की गयी मौसम की भविष्यवाणियाँ गलत साबित हो रही हैं। लोगों का विश्वास इस विभाग पर से और सरकार पर से उठता जा रहा है। उस विश्वास को फिर से जमाने के लिए भविष्यवाणियों का सही साबित होना जरूरी है। और यह देखना आपका काम है कि वे सही साबित हों। जाइए, अपना काम कीजिए!’’

‘जबरिया बरसात परियोजना’ बंद कर दी गयी। जो मौसम-विज्ञानी अनुसंधान के लिए बुलाये गये थे, उन्हें वापस उनकी जगहों पर भेज दिया गया। प्रयोगशाला में अब केवल मौसम की भविष्यवाणी से संबंधित काम होने लगा। वह आदमी अपने अधीन काम करने वाले वैज्ञानिकों और दूसरे कर्मचारियों की सहायता से यह काम पहले भी किया करता था। वह प्राप्त जानकारियों के आधार पर अगले चौबीस घंटों के मौसम के बारे में लगाया गया अनुमान स्वयं लिखता था और अखबारों में प्रकाशित तथा रेडियो-टेलीविजन से प्रसारित होने के लिए भिजवा देता था। लेकिन अब मौसम की भविष्यवाणी को प्रकाशन और प्रसारण के लिए भेजने का काम नया अधिकारी खुद करने लगा, जो उसमें अक्सर कुछ फेर-बदल कर दिया करता था।

पहली बार जब ऐसा हुआ, तो उस आदमी ने अधिकारी से कहा, ‘‘यह आपने क्या किया? कल आँधी-तूफान आने के आसार हैं और आपने ‘आँधी-तूफान आने के आसार’ की जगह ‘तेज हवाएँ चलने के आसार’ कर दिया!’’

‘‘आँधी-तूफान की बात से लोग डर जाते हैं। मैं उन्हें डराना नहीं चाहता।’’

‘‘लेकिन यह तो एक वैज्ञानिक अनुमान को अवैज्ञानिक बनाना हुआ। सच को झूठ बनाना!’’

‘‘इसमें झूठ क्या है?’’ अधिकारी दुष्टतापूर्वक मुस्कराया, ‘‘तेज हवाओं की आशंका लेकर चलने वाले लोग आँधी-तूफान भी झेल जायेंगे।’’

‘‘लेकिन आपने तो कहा था कि भविष्यवाणी सच होनी चाहिए, सरकार की साख का सवाल है?’’

‘‘सरकार का ही कहना है कि लोगों को आतंकित करने वाली भविष्यवाणियाँ न की जायें।’’

‘‘लेकिन...’’

‘‘बहस मत करो। मौसम की भविष्यवाणियाँ अनुमान के आधार पर की जाती हैं और कोई भी अनुमान पूरी तरह सही नहीं होता। जाओ, अपना काम करो।’’

वह आदमी क्षुब्ध हो उठा। अपनी जगह पर लौटकर सोचने लगा कि इस तरह की राजनीतिक दखलंदाजी से तो सारा वैज्ञानिक कामकाज बेकार हो जायेगा। उसकी इच्छा हुई कि वह इस नौकरी से इस्तीफा देकर कहीं और चला जाये, जहाँ सच्चाई और वैज्ञानिकता की कद्र होती हो और मानवता के हित में किये जाने वाले अनुसंधानों को रोका नहीं, प्रोत्साहित किया जाता हो।

लेकिन वह यह सोचकर अपने काम में लग गया कि जब तक उसकी आजीविका  की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती, उसे यही काम करना है, क्योंकि वह अकेला नहीं है, उसका परिवार है और वह एक जिम्मेदार गृहस्थ है।

आजीविका की कोई वैकल्पिक व्यवस्था उस जैसे जाने-माने वैज्ञानिक के लिए मुश्किल नहीं थी। भूमंडलीकरण ने दुनिया को ऐसे बाजार में बदल दिया था, जिसमें वस्तुएँ ही नहीं, प्रतिभाएँ और सेवाएँ भी बिकती थीं। वह आदमी प्रतिभाशाली था और अपनी सेवाएँ किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी को बेच सकता था। लेकिन वह कुछ देशभक्त किस्म का प्राणी था, आशावादी था, और अपने देश और विश्व को हरा-भरा देखने की आकांक्षा से जो अनुसंधान उसने शुरू किया था, उसे वह जारी रखना चाहता था। उसे उम्मीद थी कि अगले आम चुनावों से शायद देश में कोई बेहतर सरकार बन जाये। तब हो सकता है कि उसकी ‘जबरिया बरसात परियोजना’ को फिर से मंजूरी मिल जाये और शायद इस दुष्ट अधिकारी को भी यहाँ से हटा दिया जाये।



प्रयोगशाला शहर से कुछ दूर एक पहाड़ी पर थी। वह आदमी जिस कमरे में बैठकर काम करता था, उसकी खिड़कियों से नीचे झाँकने पर शहर बड़ा खूबसूरत दिखायी देता था। वह थक जाता या उसका मन काम से ऊबने लगता, तो वह दो-चार मिनट के लिए खिड़की के पास जाकर अपने शहर को और शहर के पीछे खड़े ऊँचे-नीचे पहाड़ों को देखने लगता।

एक दिन वह इसी तरह चुपचाप खड़ा अपने शहर को देख रहा था। वे सर्दियों के बाद आये बसंत के दिन थे। शहर धूप में जगमगा रहा था। बाजार में काफी रौनक थी और लोग ही लोग दिखायी दे रहे थे। ठंड के दिनों में गाढ़े रंगों के भारी लबादे पहनने वाले वहाँ के लोग उन दिनों कम से कम कपड़े पहनना पसंद करते थे। तरह-तरह के उजले-चटकीले रंगों के कपड़े पहने हुए लोग उन दिनों खूब खुश और खूबसूरत नजर आते थे। वह आदमी उन्हीं को देख रहा था और खुश हो रहा था। ठंड के दिनों में हमेशा बंद रहने वाली खिड़कियाँ पूरी खुली हुई थीं। उनमें हवा फरफरा रही थी और वह आदमी एक हल्की-सी कमीज और पतलून पहने खड़ा सुहावने मौसम का आनंद ले रहा था।

हालाँकि कल जब वह आज के लिए मौसम की भविष्यवाणी तैयार कर रहा था, उसे कुछ ऐसे संकेत मिले थे, जिनसे आँधी या तूफान आने की आशंका होती थी, लेकिन अधिकारी ने उसकी आशंका को ‘‘व्यर्थ ही लोगों को आतंकित करने वाली बात’’ कहते हुए अपनी कलम से काट दिया था और जो भविष्यवाणी प्रकाशित-प्रसारित हुई थी, वह यह थी कि अभी कई दिनों तक मौसम ऐसा ही खुशगवार रहेगा।

अचानक उस आदमी ने पहाड़ों के पीछे से काले बादलों को तेजी से उमड़ते हुए देखा और महसूस किया कि हवा की रफ्तार अचानक बहुत तेज हो गयी है। देखते-देखते धूप गायब हो गयी। नीला आसमान काली राख के रंग का हो गया। पहले पानी की कुछ बूँदें गिरीं और फिर तेज बर्फीली आँधी आ गयी। खिड़की के पास खड़े-खड़े ही वह आदमी शहर को निहारना छोड़ मौसम का निरीक्षण करने में व्यस्त हो गया। मौसम में हुआ यह आकस्मिक परिवर्तन उसकी समझ में नहीं आ रहा था और वह एकदम हक्का-बक्का रह गया था। प्रयोगशाला में काम करने वाले दूसरे लोग चीखते-चिल्लाते धड़ाधड़ खिड़कियाँ बंद करने लगे, तब उसने भी अनुभव किया कि वह ठंड में ठिठुर रहा है और उसका सारा शरीर काँप रहा है।

अपने कमरे की खिड़कियाँ बंद करते हुए उसने देखा, शहर में भगदड़ मची हुई है। रंग बदरंग हो गये हैं, लोग बदहवास। बाजार वीरान होने लगा है। उसके दिमाग में भी भारी हलचल मची हुई थी। मौसम की भविष्यवाणी के सहसा इस तरह गलत हो जाने से वह आतंकित हो गया था।

तभी उसके इंटरकॉम की घंटी बजी। रिसीवर उठाकर कान पर लगाते ही उसे अधिकारी की दहाड़ती हुई आवाज सुनायी पड़ी, ‘‘यह क्या किया तुमने, कमबख्त? मौसम की रिपोर्ट तैयार करते हो या सोते रहते हो? मैं तुम पर भरोसा करता हूँ, इसका यह मतलब है? जानते हो, इसका नतीजा क्या होगा? अचानक आसमान से फट पड़ी यह बर्फ हजारों लोगों की जान ले लेगी। हजारों लोग बीमार हो जायेंगे। कल अखबारों में सबसे बड़ी सुर्खी होगी--बसंत में बर्फ! शिकायतों का अंबार लग जायेगा। लोग हमारी भविष्यवाणियों पर विश्वास करना बंद कर देंगे। ओफ्फ, यह ठंड! लगता है, खून सर्द होकर जम जायेगा...’’

कोई और वक्त होता, तो वह आदमी दौड़कर अधिकारी के पास जाता और कल तक के निरीक्षण से प्राप्त तथ्य और आँकड़े सामने रखकर उससे कहता, ‘‘आँधी-तूफान की मेरी आशंका सही थी, लेकिन आपने ही उसे यह कहते हुए काट दिया था कि...’’

लेकिन इस वक्त वह इतना हड़बड़ाया हुआ था और अपनी मेज पर फैले हुए कागजों से मौसम में हुए आकस्मिक परिवर्तन को समझने में इतना तल्लीन कि उसने अधिकारी की बात का जवाब तक नहीं दिया। अधिकारी ने पल-दो पल उसके जवाब का इंतजार करने के बाद किसी और भाषा में चीखकर कहा, ‘‘मर गये क्या?’’

‘‘नहीं, जनाब, मैं कल वाली रिपोर्ट की जाँच कर रहा हूँ। अभी आपकी सेवा में हाजिर होता हूँ।’’ उस आदमी ने जैसे-तैसे कहा।

‘‘कल वाली रिपोर्ट को गोली मारो।’’ उधर से अधिकारी फिर चिल्लाया, ‘‘आज की रिपोर्ट लेकर आओ। ऊपर से फोन आ चुका है। प्रचार विभाग फौरन भविष्यवाणी करना चाहता है।’’

उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया। अधिकारी ने उसे बर्खास्त करने और गोली से उड़ा देने तक की धमकियाँ देकर बात बंद कर दी।

दरअसल वह आदमी यह पता लगाने की कोशिश कर रहा था कि कल उसे आँधी-तूफान की मामूली आशंका ही क्यों हुई, इतने बड़े आकस्मिक परिवर्तन का ठीक-ठीक अनुमान वह क्यों नहीं लगा पाया। लेकिन कल तक के चार्टों से कुछ भी पता नहीं चल रहा था। तापमान का रिकॉर्ड सही था। हवा की गति और दिशा का हिसाब ठीक था। उसमें मौजूद नमी और गैसों की मात्रा बताने वाले आँकड़े भी बर्फीली आँधी का कोई संकेत नहीं दे रहे थे। दूर-दूर तक ऐसे किसी दबाव-क्षेत्र का पता भी नहीं चल रहा था, जिससे अनुमान किया जा सके कि मौसम इतनी जल्दी अचानक इस तरह बदल जायेगा।

‘‘फिर?’’ उस आदमी ने अपने-आप से पूछा और चार्टों को परे फेंक अलमारी से वह मोटा रजिस्टर निकाला, जिसमें मौसम के आकस्मिक परिवर्तनों के सारे मामले ब्योरेवार दर्ज किये जाते थे। बरसों पुराना वह रजिस्टर उसने जल्दी-जल्दी उलट-पलट डाला, मगर ऐसे जबर्दस्त परिवर्तन का कोई हवाला उसे नहीं मिला। अन्य देशों में ऐसी घटनाएँ अवश्य हुई थीं, पर उसके देश में ऐसा कभी नहीं हुआ था।

कल वाली रिपोर्ट पर अब और ज्यादा माथापच्ची करना बेकार था। आज वाली रिपोर्ट तैयार करने के लिए उस आदमी ने इंटरकॉम पर अपने सहायकों से संपर्क करना शुरू किया, जो उसे मौसम से संबंधित अलग-अलग जानकारियाँ दिया करते थे। लेकिन कहीं से भी जवाब नहीं आया। शायद कोई भी सहायक अपनी जगह पर मौजूद नहीं था। कारण जानने के लिए वह आदमी अपने कमरे से बाहर निकला।

बाहर आते ही उसकी हड्डियाँ काँप गयीं। गजब की ठंड पड़ रही थी। प्रयोगशाला में हड़कंप मचा हुआ था। मामूली कर्मचारियों से लेकर बड़े-बड़े अधिकारियों तक सब लोग ठंड में काँप रहे थे और मानो अपने जिस्मों को गर्म रखने के लिए ही निरर्थक इधर से उधर दौड़ रहे थे। पता चला, सर्दी के दिनों में प्रयोगशाला के अंदर गर्मी बनाये रखने के लिए वातानुकूलन की जो व्यवस्था मौजूद थी, उसमें कोई खराबी आ गयी है। उस खराबी को दूर करने का प्रयास किया जा रहा था। सभी लोग खुशनुमा मौसम के अनुमान के अनुसार बहुत कम कपड़े पहने हुए थे, इसलिए ठंड में ठिठुर रहे थे और अपने-अपने परिवारों को संदेश भेज रहे थे कि उनके गर्म कपड़े फौरन भेज दिये जायें।

उस आदमी ने सोचा कि वह भी अपने घर अपनी पत्नी को फोन कर दे, लेकिन तत्काल उसके दिमाग में आयी दो बातों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। एक तो यह कि पत्नी ऐसे तूफानी मौसम में कैसे उसके गर्म कपड़े लेकर आयेगी? दूसरी यह कि उसका अधिकारी आज की भविष्यवाणी की प्रतीक्षा कर रहा है, इसलिए उसे एक क्षण भी गँवाये बिना भविष्यवाणी तैयार कर देनी चाहिए।

उसने अपने सहायकों के भरोसे बैठे रहने के बजाय खुद ही दौड़-दौड़कर मौसम की ताजा स्थिति के आँकड़े इकट्ठे किये। हवा का रुख कल से आज तक बिलकुल उलट गया था। पूर्वोत्तर से दक्षिण-पश्चिम की ओर चलने वाली हवा पश्चिमोत्तर से दक्षिण-पूर्व की ओर चल रही थी। देश के ऊपर और आसपास जगह-जगह वायु के दबाव-क्षेत्र बनने के संकेत मिल रहे थे, जो भारी चक्रवातों की पूर्वसूचना देते हुए लग रहे थे। बर्फ अब भी गिर रही थी, लेकिन ताज्जुब की बात, हवा में नमी बेहद कम थी। उसके अंदर की गैसों का संतुलन एकदम गड़बड़ाया हुआ था। तापमान काफी देर पहले शून्य हो चुका था और उत्तरोत्तर कम होता जा रहा था।

रोबोट की-सी तेजी के साथ उस आदमी ने इस तमाम जानकारी को कंप्यूटर में डाला और तत्काल निष्कर्ष उसके सामने था: मौसम अगले कई दिनों तक ऐसा ही रहेगा।

जल्दी से इस भविष्यवाणी को एक कागज पर घसीटकर वह आदमी अपने अधिकारी के पास दौड़ा। उसका अनुमान था कि अधिकारी गुस्से में पाँव पटकता हुआ अपने कमरे में चक्कर काट रहा होगा।

लेकिन अधिकारी अपनी कुर्सी पर मुर्दा हुआ पड़ा था। उसकी अकड़ी हुई गर्दन कुर्सी की पीठ पर पड़ी थी। आँखें काँच हो चुकी थीं। शरीर नीला पड़ चुका था। उस आदमी ने पास जाकर उसे झकझोरा, तो लाश एक तरफ को लुढ़क गयी।

वह आदमी ठंड से तो पहले ही काँप रहा था, अब भय से भी सिहर उठा। उसे लगा, उसका खून भी सर्द होकर जमने लगा है। वह चीख मारकर वहाँ से भागने ही वाला था कि तभी अधिकारी की मेज पर रखे टेलीफोन की घंटी बज उठी। उसने अपना सर्द-सुन्न हाथ बढ़ाकर बड़ी मुश्किल से रिसीवर पकड़ा और कान से लगाया। उधर से सरकार की मधुर आवाज सुनायी पड़ी, ‘‘हैलो, भविष्यवाणी तैयार है?’’

‘‘जी।’’ उस आदमी ने जैसे-तैसे कहा।

‘‘क्या है? बोलिए, मैं लिख रही हूँ।’’ आवाज में वही मधुर गर्मजोशी।

‘‘लिखिए, मौसम कई दिनों तक ऐसा ही रहेगा।’’ उस आदमी ने बड़े कष्ट के साथ कहा, क्योंकि उसके दाँत बज रहे थे और उससे बोला नहीं जा रहा था।

‘‘जी नहीं, यह नहीं।’’ दूसरे छोर पर बोलती हुई सरकार हँसी, ‘‘जनता में आतंक फैलाना है क्या? लिखवाइए कि डरने या घबराने की कोई बात नहीं, कल से मौसम साफ हो जायेगा। आप तो जानते हैं कि...’’

‘‘पर यह मैं कैसे लिखवा सकता हूँ, जबकि...’’

‘‘आप कौन बोल रहे हैं?’’ सहसा उधर से आने वाली आवाज में परेशानी ध्वनित हुई, ‘‘इस नंबर पर जो साहब मिलते हैं, वे...’’

‘‘वे साहब जा चुके हैं।’’ उस आदमी ने अधिकारी की लाश की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘इस समय उनकी जगह मैं हूँ और मैं जो लिखवा रहा हूँ, ठीक लिखवा रहा हूँ। आपको लिखना हो, तो लिखिए।’’

सरकार की आवाज में अचानक सख्ती आ गयी, ‘‘आप जो भी हों, फौरन प्रचार विभाग में तशरीफ ले आइए।’’



‘‘फौरन प्रचार विभाग में तशरीफ ले आइए।’’ टेलीफोन पर मिला आदेश उस आदमी के दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा था। भयानक शीत में उसकी देह के साथ-साथ मानो उसकी चेतना भी सुन्न होती जा रही थी। फिर भी उसे अपना भविष्य साफ दिखायी दे रहा था: वहाँ मुझसे मौसम के बारे में कोई झूठ लिखवाया जायेगा और मैं इनकार करूँगा, तो दंड मिलना निश्चित है।

‘‘तब क्या करूँ? चला जाऊँ? जो कुछ लिखवाया जाये, लिख दूँ?’’ उसने अपने-आप से पूछा और खुद ही उत्तर दिया, ‘‘नौकरी करनी है, तो जाना ही पड़ेगा। जो कहा जायेगा, करना ही पड़ेगा। पर यह भी तो हो सकता है कि सरकार को मेरे अधिकारी की मृत्यु का पता चल गया हो और वह  मुझे इस संकट काल में तत्काल उसकी जगह नियुक्त करने की सोच रही हो? आखिर इस प्रयोगशाला में उसके बाद मैं ही सबसे सीनियर हूँ। कायदे से उस पद पर मेरी ही नियुक्ति होनी चाहिए, क्योंकि भविष्यवाणियाँ तैयार करने का काम तो मैं ही करता हूँ। अधिकारी या तो उन पर सिर्फ सही करता था, या प्रचार विभाग के कहने पर उनमें हेरा-फेरी करता था। मैं वैज्ञानिक हूँ। सत्य का खोजी। आज तक मैं सच्चाई और ईमानदारी के रास्ते पर चला हूँ। झूठ और बेईमानी के रास्ते पर चलूँगा, तो मेरी अंतरात्मा को कष्ट होगा। लेकिन अंतरात्मा का थोड़ा-सा कष्ट सहकर इतना बड़ा पद मिलता हो, तो क्या बुरा है? अपना भविष्य बनाने के लिए सबको कभी न कभी कोई समझौता करना ही पड़ता है।’’

बाहर बर्फीली आँधी अब भी चल रही थी और कमरे के बंद खिड़की-दरवाजों पर जोरदार धक्के मारती हुई तेज हवा साँय-साँय कर रही थी। खिड़कियों के शीशे अंधे हो चुके थे और अब उनके पार कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था।

‘‘ऐसे मौसम में गर्म कपड़ों के बिना मैं बाहर कैसे जा सकता हूँ? और घर से कौन मेरे गर्म कपड़े लेकर आयेगा?’’ वह आदमी सोच रहा था, ‘‘कपड़े आ भी जायें, तो मैं जाऊँगा कैसे? स्टाफ कार का ड्राइवर ऐसे मौसम में गाड़ी चलाने से साफ इनकार कर देगा। गाड़ी तो मेरी अपनी भी खड़ी है, पर इस मौसम में खुद भी कैसे ड्राइव कर पाऊँगा मैं? लेकिन प्रचार विभाग कोई बहाना नहीं सुनेगा। सरकार कितने मजे में पूरे नाज-नखरों के साथ बात कर रही थी। वह तो वहाँ किसी वातानुकूलित कमरे में बैठी होगी। उसे क्या पता कि यहाँ कोई ठंड में अकड़कर मर गया है और जिसे उसने फौरन चले आने का आदेश दिया है, वह भी इस भयानक शीत में किसी भी क्षण मर सकता है!’’

अधिकारी के कमरे से निकलकर उस आदमी ने पाया कि प्रयोगशाला के सारे कमरे खाली पड़े हैं। दौड़-दौड़कर वह तमाम कमरों में झाँक आया, उसे कोई स्त्री या पुरुष कर्मचारी दिखायी नहीं दिया। लेकिन कहीं से आवाजें आ रही थीं। वह उन आवाजों की दिशा में दौड़ पड़ा। दौड़ना और लगातार दौड़ते रहना इस समय उसे बहुत आवश्यक लग रहा था। खून में हरकत और हरारत बनाये रखने के लिए उसे यही एक उपाय कारगर प्रतीत हो रहा था।

दौड़ता हुआ वह उस बड़े कमरे में पहुँचा, जो अनुसंधान संबंधी कुछ नये यंत्र और उपकरण लगाने के लिए बनाया गया था, लेकिन अभी खाली पड़ा था। प्रयोगशाला के वैज्ञानिक और अन्य कर्मचारी उसमें भरे हुए थे। बीच में आग जल रही थी और वे उसी के ताप से जीवन पा रहे थे। रद्दी कागजों के ढेर ला-लाकर उस आग पर डाले जा रहे थे, जिससे लपटें उठ रही थीं, लेकिन धुआँ भी खूब निकल रहा था।

कोई और वक्त होता, तो ऐसे दमघोंटू धुएँ से भरे कमरे में वह आदमी कभी न जाता। लेकिन उस वक्त आग उसे इतनी आकर्षक लगी कि वह धुएँ की परवाह किये बिना उस कमरे में धँस पड़ा। दूसरे लोगों ने उसे देखा, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। हालाँकि उस समय वह प्रयोगशाला का सबसे वरिष्ठ व्यक्ति था, फिर भी किसी ने उसे आदरपूर्वक आग के पास आमंत्रित नहीं किया। उसे खुद ही अपने लिए जगह बनाकर आग तक पहुँचना पड़ा। लेकिन उसे इसका कोई मलाल नहीं था। आग के पास और सहकर्मियों के बीच पहुँचकर उसकी कँपकँपी बंद हो गयी और उसे अद्भुत राहत का अहसास हुआ। वे सब चिल्ला-चिल्लाकर आपस में बातें कर रहे थे। वह भी खामोश नहीं रह सका।

उसने उन्हें प्रयोगशाला के सर्वोच्च अधिकारी की मृत्यु की सूचना दी। फिर संक्षेप में सरकार से हुई अपनी बातचीत का ब्योरा दिया। इसके बाद सबसे पूछा, ‘‘अब आप लोग बताइए, क्या किया जाये? मौसम की सही जानकारी लोगों तक जरूर पहुँचनी चाहिए, नहीं तो बड़े अनर्थ हो जायेंगे।’’

‘‘अनर्थ तो आप कर चुके हैं, श्रीमान!’’ एक समवयस्क लेकिन पद की दृष्टि से उससे छोटी स्त्री सहकर्मी ने कहा, ‘‘यह मुसीबत आपकी ही बुलायी हुई है। अगर कल आपने सही भविष्यवाणी की होती, तो आज हमारी यह हालत न होती।’’

‘‘सच मानो, दोस्तो!’’ उस आदमी ने सबको सुनाते हुए कहा, ‘‘कल मौसम खराब होने की हल्की-सी आशंका तो थी, लेकिन ऐसे कोई आसार नहीं थे कि मौसम यों अचानक इतने भयानक रूप में बदल जायेगा।’’

लेकिन वहाँ कोई उसकी बात मानने को तैयार नहीं था। सब लोग चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे, ‘‘तुम आम जनता को बेवकूफ बनाते हो, यह तो हम जानते हैं, लेकिन हम तो तुम्हारे साथी हैं। कम से कम हमें तो तुम बता ही सकते थे कि आज क्या होने वाला है।’’

‘‘कसम से, साथियो, मुझे स्वप्न में भी ऐसी आशंका नहीं थी। अगर होती, तो कम से कम मुझे और अधिकारी को तो मालूम रहता ही कि आज क्या होने वाला है। वैसी हालत में हम जान-बूझकर ठंड में मरने के लिए इतने हल्के कपड़े पहनकर न आते। गर्म कपड़े और बर्फ से बचने का लबादा हम जरूर अपने साथ लाये होते। तब हमारा अधिकारी यों ठंड में ठिठुरकर न मर जाता।’’

तभी बाहर से किसी औरत की आवाज सुनायी पड़ी, जो उस आदमी का नाम ले-लेकर जोर से पुकार रही थी। आवाज पहचानकर वह आदमी दरवाजे की तरफ दौड़ा। बाहर उसकी पत्नी बर्फ से बचाने वाला लबादा ओढ़े खड़ी थी। वह उसके लिए गर्म कपड़े और बर्फीले तूफान में पहनने वाला लबादा लेकर आयी थी। ऐसे तूफान में वह किस तरह आयी होगी, यह सोचकर उस आदमी का दिल उमड़ पड़ा और उसने प्यार से पत्नी को बाँहों में भर लिया।

‘‘बाहर तो बड़ा तेज तूफान है। तुम यहाँ तक पहुँचीं कैसे?’’

‘‘जहाँ चाह, वहाँ राह। बस, पहुँच गयी।’’ उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘मुझे तुम्हारी चिंता थी। लेकिन तुम अजीब आदमी हो। दुनिया को न मालूम हो, पर तुम तो खुद मौसम की भविष्यवाणियाँ तैयार करते हो। तुम्हें तो मालूम ही होगा कि आज क्या होने वाला है। फिर तुम इतने कम कपड़े पहनकर घर से क्यों निकले?’’

यह सुनकर उस कमरे में मौजूद तमाम लोग मुस्करा दिये। उन्हें विश्वास हो गया कि आज के मौसम की गलत भविष्यवाणी में उस आदमी का हाथ नहीं है। उस आदमी ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘तुम्हें सिर्फ मेरी चिंता हुई? तुमने यह नहीं सोचा कि यहाँ और भी लोग हैं और वे भी मेरी जैसी हालत में ही घरों से निकले हैं?’’

‘‘मैं अकेली नहीं आयी हूँ। अपनी कॉलोनी के दूसरे लोग भी इन सबके लिए गर्म कपड़े लेकर आये हैं...लो, वे आ गये।’’

वे लोग अपने साथ वातानुकूलन की व्यवस्था को समझने और सुधारने वाले एक आदमी को भी लाये थे, जो आते ही अपने काम में लग गया और उसके थोड़े-से प्रयास से ही प्रयोगशाला पुनः वातानुकूलित हो गयी।

जब सब लोगों ने अपने गर्म कपड़े पहन लिये, उस आदमी ने अपने सहकर्मियों से कहा, ‘‘अब तुरंत पुलिस को सूचित करो कि यहाँ का सर्वोच्च अधिकारी ठंड से मर गया है और यहीं पर मीडिया वालों को बुलाकर एक पत्रकार सम्मेलन आयोजित करो।’’

‘‘लेकिन आपको तो प्रचार विभाग में बुलाया गया है...?’’ एक सहकर्मी ने पूछा।

‘‘जैसा कहा है, वैसा करो। मुझे मालूम है कि मुझे प्रचार विभाग में क्यों बुलाया गया है। सरकार मुझसे यह झूठ बुलवाना चाहती है कि लोग घबरायें नहीं, कल से मौसम साफ हो जायेगा। लेकिन सारे तथ्यों और संकेतों के आधार पर मेरा अनुमान है कि मौसम अभी कुछ दिनों तक ऐसा ही रहेगा। बर्फीली आँधी चलती रहेगी। तापमान कुछ और गिरेगा। लोगों को यह बात न बतायी गयी, तो बहुत-से लोग बेमौत मारे जायेंगे। इसलिए देर मत करो, पुलिस को सूचित करो और पत्रकार सम्मेलन बुलाओ।’’

कहते-कहते वह आदमी व्यंग्यपूर्वक मुस्कराया और बोला, ‘‘प्रचार विभाग की चिंता मत करो, वह अपना झूठ खुद ही बोल लेगा।’’



पत्रकार सम्मेलन में अगले कुछ दिनों तक के मौसम की भविष्यवाणी करते हुए उस आदमी ने लोगों को सलाह दी कि बर्फीली आँधी के समय वे यथासंभव अपने घरों में ही रहें। बाहर निकलना जरूरी ही हो, तो पर्याप्त गर्म कपड़े पहनकर निकलें। समर्थ लोग उन लोगों की सहायता करें, जिनके पास गर्म कपड़े नहीं हैं, लेकिन कामकाज के लिए बाहर निकलना जिनके लिए अनिवार्य है।

पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर देने से पहले उसने एक छोटा-सा वक्तव्य दिया। उसने कहा, ‘‘इतिहास बताता है कि मनुष्य हर देश और हर काल में प्राकृतिक शक्तियों को वैज्ञानिक युक्तियों से अपने वश में करता आया है। लेकिन इस मानवीय प्रयास के पीछे एक अलिखित सिद्धांत काम करता है। वह यह कि जिस प्रकार प्रकृति सबके लिए है, उसी प्रकार विज्ञान भी सबके लिए है। उदाहरण के लिए, ठंड एक प्राकृतिक शक्ति है और मनुष्य को ठंड से बचाने वाले गर्म कपड़े एक वैज्ञानिक युक्ति हैं। ठंड सबको सताती है और गर्म कपड़े सबको ठंड से बचाते हैं। लेकिन सामाजिक अन्याय के चलते गर्म कपड़े सबके पास नहीं होते। जिनके पास होते हैं, वे ठंड से बच जाते हैं; जिनके पास नहीं होते, वे ठंड से मर जाते हैं। लेकिन मौसम की भविष्यवाणी गलत हो जाये और खुशगवार मौसम अचानक बेहद ठंडा हो जाये, तो गर्म कपड़े पहन सकने वाले भी ठंड से मर सकते हैं। जैसे हमारी प्रयोगशाला का सर्वोच्च अधिकारी मर गया। अतः मौसम की मार से बचने के लिए, और सामाजिक अन्याय को दूर करने के लिए भी, यह अलिखित सिद्धांत याद रखना जरूरी है कि प्रकृति सबके लिए है, विज्ञान सबके लिए है। जब इस सिद्धांत की अनदेखी करते हुए थोड़े-से लोग प्रकृति और विज्ञान के स्वामी बनकर उसके साथ मनमानी करने लगते हैं, तब संकट शुरू होते हैं, जैसे जलवायु परिवर्तन का वह भूमंडलीय संकट, जिसकी वजह से आज हमारे यहाँ बर्फीली आँधी चल रही है...’’

एक पत्रकार ने उस आदमी को टोकते हुए पूछा, ‘‘आजकल मौसम की भविष्यवाणियाँ अक्सर गलत क्यों निकलती हैं?’’

उस आदमी ने उत्तर दिया, ‘‘मेरे विचार से इसका कारण यह है कि मौसम-विज्ञान में निहित स्वार्थों से प्रेरित स्वहित वाला  राजनीतिक अर्थशास्त्र घुस गया है। उसे अपने भीतर से निकालना मौसम-विज्ञान के बस की बात नहीं। उससे होने वाली उस गड़बड़ी को, जिससे मौसम की भविष्य- वाणी गलत हो जाती है, ठीक करने का काम सर्वहित वाला राजनीतिक अर्थशास्त्र ही कर सकता है, जो हमें केवल अपने हित में सोचने से रोकता है और सबके हित में काम करने के लिए प्रेरित करता है। अगर दुनिया के सब लोग सबके हित में काम करें, तो प्राकृतिक मौसमों के साथ-साथ समाज, राजनीति, सभ्यता और संस्कृति के खराब मौसम भी बदलकर बेहतर हो जायेंगे।’’


रमेश उपाध्याय

1 comment:

  1. दुनिया की असल समस्या ही यही है कि दुनिया के सब लोग अपने अपने हितों में काम करते हैं - एक दूसरे या सबके हित में तो शायद ही कोई काम करता होगा!
    बढ़िया कहानी

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