हिंदी में विज्ञान लेखन बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही शुरू हो गया था और तब से अब तक बराबर किया जाता रहा है। हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वाले कम नहीं हैं। उनमें से कई लेखक समय-समय पर विज्ञान कथाएँ भी लिखते रहे हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि हिंदी में विज्ञान कथाओं को साहित्य और उनके लेखकों को साहित्यकार नहीं माना जाता। इसीलिए हिंदी में लिखी गयी विज्ञान कथाएँ चर्चित, प्रतिष्ठित और पुरस्कृत होकर साहित्य और समाज में स्वीकृत नहीं हो पातीं। कहीं से कोई प्रोत्साहन न मिलने पर वे लेखक भी, जो अच्छी विज्ञान कथाएँ लिख सकते हैं, इस तरफ से उदासीन हो जाते हैं। पश्चिमी देशों में विज्ञान और साहित्य निकट आये हैं, लेकिन हमारे यहाँ उनके बीच अलगाव और दूरी की स्थिति बनी हुई है।
अंग्रेजी वैज्ञानिक और साहित्यकार सी.पी. स्नो ने अपनी किताब ‘टू कल्चर्स’ (1959) में विज्ञान और मानविकी के क्षेत्रें में काम करने वाले लोगों के बारे में लिखा था कि ये दोनों मानो दो अलग-अलग दुनियाओं में रहते हैं, जबकि दोनों की दुनिया एक ही है और उस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए दोनों को निकट आकर परस्पर संवाद ही नहीं, मिल-जुलकर काम भी करना चाहिए।
सी. पी. स्नो की बात काफी हद तक सही थी, लेकिन अपनी बात पर जोर देने के लिए शायद उन्होंने थोड़ी अतिशयोक्ति कर दी थी। विज्ञान और मानविकी के क्षेत्रों में भिन्नता तो है, पर ऐसा अलगाव शायद ही कभी रहा हो कि दोनों क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे से अलग और अप्रभावित अपनी-अपनी दुनियाओं में रहते हों। आधुनिक साहित्य की तो विशेषता ही यह है कि वह उत्तरोत्तर अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता गया है। विज्ञान भी साहित्य के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। यदि साहित्य में उसके प्रभाव से भावुकता कम हुई है, तथ्यपरकता और यथार्थपरकता बढ़ी है, तो विज्ञान में भी मानवीय संवेदना, नैतिकता और सुंदरता पर ध्यान दिया जाने लगा है। उदाहरण के लिए, बर्टोल्ट ब्रेश्ट का नाटक ‘गैलीलियो का जीवन’ साहित्य और विज्ञान की निकटता का सूचक था, तो इस नाटक पर सोवियत संघ के वैज्ञानिकों के बीच जो व्यापक बहस हुई थी, वह विज्ञान और साहित्य की निकटता का प्रमाण थी। (यह बहस सोवियत संघ से 1975 में रूसी से अंग्रेजी में अनूदित होकर आयी पुस्तक ‘साइंस एंड मॉरेलिटी’ में छपी थी।)
इसलिए यह मानकर चलना ठीक नहीं कि विज्ञान और साहित्य में जो अलगाव आज दिखायी देता है, उसे दूर नहीं किया जा सकता। मुझे लगता है कि यह मान्यता कुछ भ्रमों पर आधारित है और वास्तविकता को समझने के लिए उन भ्रमों का निराकरण जरूरी है।
एक बड़ा भ्रम यह है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी एक ही चीज है। बहुत-से लोग यह समझते हैं कि फोन, फ्रिज, टी.वी., कार, कंप्यूटर वगैरह ही विज्ञान है और इन चीजों के साथ जीना ही मानो वैज्ञानिक ढंग से जीना है। साहित्य को अपने ही जिये-भोगे की अभिव्यक्ति मानने वाले लोग इस समझ के आधार पर कहते हैं कि वैज्ञानिक ढंग से जिये बिना विज्ञान कथाएँ नहीं लिखी जा सकतीं। उन्नत देशों की प्रौद्योगिकी इतनी आगे बढ़ गयी है कि वहाँ का लेखक उसके साथ जीते हुए उसके बारे में आसानी से लिख सकता है, पर हम तो इस दृष्टि से बहुत गरीब और पिछड़े हुए हैं। हम कैसे वैज्ञानिक ढंग का ऐसा जीवन जी सकते हैं कि उसके अनुभवों से विज्ञान कथाएँ लिख सकें? लेकिन यह एक भ्रम ही है। अभी तक किसी विज्ञान लेखक ने अंतरिक्ष यात्रा नहीं की, जबकि अंतरिक्ष यात्रा संबंधी विज्ञान कथाएँ अंतरिक्ष यानों के आविष्कार के पहले से लिखी जा रही हैं। दूसरी तरफ तमाम ‘आधुनिक’ और ‘वैज्ञानिक’ चीजों के साथ जीते हुए भी हमारा जीवन, चिंतन, लेखन और आचरण नितांत अवैज्ञानिक या विज्ञान-विरोधी हो सकता है। इसके उदाहरण हमारे ही देश में नहीं, प्रौद्योगिकी में बहुत आगे बढ़े हुए देशों में भी खूब मिल सकते हैं।
दूसरा बहुत बड़ा भ्रम यह है कि विज्ञान कथाएँ ‘साहित्य’ नहीं, ‘विज्ञान’ हैं, इसलिए उनको लिखना वैज्ञानिकों का या विज्ञान के क्षेत्र से संबंधित लोगों का काम है। यह भ्रम साहित्य के उन आलोचकों में ही नहीं पाया जाता, जो विज्ञान कथाओं को साहित्य में शुमार नहीं करते; बल्कि उन लेखकों में भी पाया जाता है, जो विज्ञान कथाओं के लेखन को ‘साहित्यिक’ लेखन से भिन्न और भिन्न प्रकार के लेखकों द्वारा किया जाने वाला कार्य समझते हैं। इस भ्रम से मुक्त होने के लिए जहाँ एक तरफ यह जरूरी है कि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में फर्क करेंµयानी प्रौद्योगिकी को ही विज्ञान समझ लेने की भूल न करेंµवहीं दूसरी तरफ इस तथ्य को अच्छी तरह हृदयंगम कर लेना भी जरूरी है कि विज्ञान का संबंध वैज्ञानिकों या विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने वालों से ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य से है। उदाहरण के लिए, कलम से कागज पर कहानी लिखने वाला लेखक यदि कंप्यूटर पर लिखने लगे, तो इसी बात से वह विज्ञान कथा लिखने में समर्थ नहीं हो जायेगा और विज्ञान की विधिवत शिक्षा पाये बिना या स्वयं वैज्ञानिक हुए बिना भी कोई सर्जनात्मक लेखक स्वाध्याय इत्यादि के जरिये विज्ञान से स्वयं को इस तरह जोड़ सकता है कि वह मौलिक वैज्ञानिक चिंतन और लेखन कर सके।
तीसरा और सबसे बड़ा भ्रम, जो बहुत पहले से चला आ रहा है, यह है कि साहित्य ‘कला’ है, ‘शास्त्र’ नहीं। ऐसा मानने वाले लोग साहित्य को कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना या हद से हद नाटक तक ही सीमित समझते हैं और यह मानते हैं कि ‘साहित्य’ दिमाग से नहीं, दिल से लिखी जाने वाली चीज है। उसमें थोड़ी बौद्धिकता तो हो सकती है, थोड़ी-बहुत होनी भी चाहिए, लेकिन उसे पढ़ने-समझने-सराहने के लिए किसी और ‘शास्त्र’ का ज्ञान आवश्यक नहीं होना चाहिए।
विचित्र बात है कि ‘शास्त्र’ और ‘साहित्य’ को अलग और विपरीत मानने की प्रवृत्ति हिंदी साहित्य में दो भिन्न प्रकार के और परस्पर-विरोधी विमर्शों में दिखायी देती है। एक ओर वे लोग हैं, जो साहित्य को ‘‘जन-जन तक पहुँचाने लायक’’ बनाने के लिए ‘‘सरल’’ और ‘‘सबकी समझ में आने वाला’’ बनाने की बात करते हैं। वे साहित्य को ‘लोकप्रिय संगीत’ की तरह लोकप्रिय बनाने की बात करते हैंµफिल्मी गीतों वाले ‘लोकप्रिय संगीत’ की तरह लोकप्रियµजिसके बारे में उनका खयाल शायद यह होता है कि उसे सुनने-समझने-सराहने के लिए न कविता की समझ जरूरी है न संगीत की। अर्थात् जिस तरह हिंदी के फिल्मी गीतों को समझने-सराहने के लिए समाज, दर्शन या विज्ञान के ‘शास्त्रों’ की जानकारी जरूरी नहीं, उसी तरह काव्य और संगीत के ‘शास्त्रों’ की जानकारी जरूरी नहीं है।
दूसरी ओर वे लोग हैं, जो साहित्य को ‘शुद्ध’ रखने के लिए उसे ‘शास्त्रों’ के ‘‘आक्रमण से’’ या उनकी ‘‘शरण में जाने से’’ बचाने की बात करते हैं। उन्हें ‘लोकप्रिय’ अथवा ‘जनता का साहित्य’ नहीं चाहिए और वे साहित्य की ‘सोद्देश्यता’ में विश्वास नहीं करते। इसलिए साहित्य यदि बौद्धिक या अतिबौद्धिक होकर चंद लोगों के पढ़ने-समझने-सराहने की ही चीज बनकर रह जाये, तो भी उन्हें कोई परवाह नहीं। लेकिन ‘शास्त्रों’ से साहित्य को बचाना उन्हें भी जरूरी लगता है।
इस प्रकार हिंदी साहित्य में दो परस्पर-विरोधी विमर्श प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से विज्ञान कथाओं के लेखन को हिंदी साहित्य से बाहर ही रखना चाहते हैं। इनमें उस ‘यथार्थवादी’ विमर्श को भी जोड़ लिया जाये, जो कथासाहित्य में फैंटेसी या कल्पना को अच्छा नहीं समझता, तो विज्ञान कथाओं को हिंदी साहित्य में न आने देने के लिए एक मुकम्मल नाकाबंदी हो जाती है, क्योंकि फैंटेसी या कल्पना के बिना तो विज्ञान कथाएँ लिखी ही नहीं जा सकतीं।
अतः यदि हम हिंदी में विज्ञान कथाओं की कमी को वाकई दूर करना चाहते हैं, तो हमें हिंदी साहित्य के चालू विमर्शों से थोड़ा अलग हटकर सोचना होगा और कुछ नये प्रश्न उठाने होंगे। उदाहरण के लिए, यह प्रश्न कि क्या ‘लोकप्रिय’ अथवा ‘जनता का साहित्य’ दिमाग से नहीं, दिल से लिखा जाता है और ‘शास्त्र’ के स्पर्श से वह ‘‘सबकी समझ में आने लायक’’ नहीं रह जाता? विज्ञान कथाओं की भारी लोकप्रियता से तो इस प्रश्न का उत्तर मिलता ही है, फिल्मी गीतों या ‘लोकप्रिय संगीत’ की रचना करने वालों के अनुभवों से भी इस प्रश्न का उत्तर मिल सकता है। जो फिल्मी गीत वास्तव में लोकप्रिय होते हैंµअर्थात् चार दिन चलकर बेकार नहीं हो जाते, बल्कि जिन्हें हम बार-बार सुनना चाहते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी पसंद करते जाते हैंµउन पर गंभीरता से विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि उनमें जो ‘अच्छा काव्य’ और ‘अच्छा संगीत’ है, वह काव्यशास्त्र और संगीतशास्त्र के ज्ञान के बिना संभव नहीं था। इतना ही नहीं, उन गीतों की रचना सिर्फ दिल से नहीं हुई थी, बल्कि उनमें काफी दिमाग भी लगा थाµऔर किसी एक का नहीं, बल्कि बहुत-से लोगों का दिमाग लगा था, जिनमें सब ‘कलाकार’ ही नहीं, कई ‘टेक्नीशियन’ भी थे।
इतना ही नहीं, उन संगीत रचनाओं की लोकप्रियता का रहस्य उनके श्रोताओं का काव्य या संगीत के शास्त्र-ज्ञान से शून्य होने में नहीं, बल्कि उनमें उस ज्ञान के होने में है। यह समझना भारी भूल है कि जनता या साधारण लोग, जिनमें अशिक्षित और शास्त्र-ज्ञान से वंचित लोग भी शामिल हैं, काव्य और संगीत के ज्ञान से शून्य होते हैं। परंपरा और निजी अनुभव से उन्हें यह विवेक प्राप्त होता है कि वे एक अच्छे फिल्मी गीत और एक बुरे फिल्मी गीत में फर्क कर सकें। हो सकता है, वे यह न बता सकें कि अमुक गीत में जो कविता है, उसमें काव्यशास्त्र के अनुसार कौन-से गुण या दोष हैं, लेकिन वे यह बता सकते हैं कि एक गीत के बोल दूसरे गीत से बेहतर हैं या बदतर। इसी तरह, हो सकता है, वे किसी राग का नाम न बता सकें, लेकिन वे यह अवश्य बता सकते हैं कि उस राग पर बना एक फिल्मी गीत उसी राग पर बने दूसरे फिल्मी गीत से बेहतर है या बदतर।
ठीक यही बात विज्ञान कथाओं के पाठकों पर लागू होती है। उन्हें मूर्ख या अज्ञानी समझकर उनके लिए ‘सरल’ या ‘सुबोध’ किस्म की विज्ञान कथाएँ लिखना दरअसल साहित्य को विकृत करना और पाठकों की समझ का अपमान करना है। बच्चों और नवसाक्षरों के लिए हिंदी में जो सरल-सुबोध किस्म की चीजें लिखी जाती हैं, वे प्रायः बहुत घटिया होती हैं। वे साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, पाठकों की दृष्टि में भी कूड़ा ही होती हैं। दूसरी तरफ दुनिया की उत्कृष्ट और लोकप्रिय विज्ञान कथाओं के उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि वे अपने पाठकों को मूर्ख या ज्ञानशून्य मानकर नहीं, बल्कि बुद्धिमान और ज्ञानवान मानकर लिखी जाती हैं। और यह बात केवल विज्ञान कथाओं के बारे में नहीं, बल्कि सभी प्रकार के साहित्य के बारे में सच है। अच्छी रचना हमेशा अपने पाठक, श्रोता या दर्शक को प्रबुद्ध मानकर चलती है और उसे मिलने वाला ‘रेस्पांस’ उसके ‘जजमेंट’ को सही साबित करता है।
साहित्य सिर्फ दिल से या सिर्फ दिमाग से कभी नहीं रचा जाता। उसकी रचना हमेशा ही संवेदना और बौद्धिकता के ऐसे अद्भुत मिश्रण से होती है, जिसमें कभी यह पता नहीं चलता कि कौन-से तत्त्व की मात्रा कितनी है। अतः देखना यह चाहिए कि विज्ञान कथाओं के लेखन के लिए संवेदना और बौद्धिकता का वह अद्भुत मिश्रण कैसे संभव है, जो अच्छी साहित्यिक रचना के लिए हमेशा आवश्यक रहा है।
मेरे विचार से हिंदी में अच्छी विज्ञान कथाओं का लिखा जाना तभी संभव है, जब एक वैज्ञानिक विमर्श हमारे जीवन का अभिन्न अंग हो। वैसे ही, जैसे बहुत-से नैतिक और सौंदर्यशास्त्रीय मूल्य हमारे जीवन के अभिन्न अंग होते हैं, चाहे हम उनके प्रति सचेत हों या न हों। लेकिन विमर्श भाषा में होता है, इसलिए भाषा की समस्या पर सबसे पहले ध्यान देना जरूरी है। आखिर क्यों हमारे देश में विज्ञान की उच्चस्तरीय पढ़ाई आजादी के इतने साल बाद भी हिंदी में न होकर अंग्रेजी में होती है? क्यों विज्ञान संबंधी सारा कामकाज अंग्रेजी में ही होता है? और क्यों विज्ञान संबंधी ज्यादातर लेखन अंग्रेजी में ही होता है?
हिंदी में विज्ञान कथाएँ लिखना चाहने वाले लेखक के सामने सबसे बड़ी समस्या भाषा की होती है। जिन चीजों को उसने अंग्रेजी के माध्यम से ही जाना और सोचा-समझा है, उन्हें वह हिंदी के माध्यम से कैसे व्यक्त करे? यदि वह सारी शब्दावली और अभिव्यक्तियाँ अंग्रेजी से लेता है, तो उसे लगता है, इससे तो बेहतर है कि वह सीधे अंग्रेजी में ही लिखे। और यदि वह अंग्रेजी की शब्दावली और अभिव्यक्तियों का शब्दकोश की सहायता से हिंदी में अनुवाद करता है, तो भाषा में वह सहजता नहीं रहती, जो साहित्यिक रचना की अनिवार्य शर्त है।
इस समस्या का समाधान यही है कि हिंदी में विज्ञान कथाओं के लेखन के लिए समाज में ऐसा वातावरण बनाया जाये, जैसा किसी भी विषय से संबंधित सर्जनात्मक लेखन के लिए जरूरी होता है। आजादी से पहले विज्ञान की पढ़ाई तो पूरी तरह अंग्रेजी में होती ही थी, हिंदी भी आज की तरह विकसित और समृद्ध भाषा नहीं थी। उस समय हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखने वालों की और उनके लिखे हुए को प्रकाश में लाने वाले माध्यमों की भी बेहद कमी थी। फिर भी उस समय के लेखक वैज्ञानिक ज्ञान और उसके प्रचार-प्रसार को देश की आजादी और तरक्की के लिए जरूरी समझते थे। इसलिए उन्होंने हिंदी में एक ऐसा वैज्ञानिक विमर्श शुरू किया, जिसने विज्ञान संबंधी चिंतन, लेखन, पत्रकारिता और साहित्य को संभव बनाया। वैज्ञानिक साहित्य लिखने वाले जानते थे कि वे एक बड़े उद्देश्य के लिएµलोगों में वैज्ञानिकता की चेतना जगाने के लिए और उसके जरिये देश की आजादी और जनता की खुशहाली के लिएµलिख रहे हैं। पाठक भी उस साहित्य को इसी बड़े उद्देश्य को ध्यान में रखकर पढ़ते थे और उससे अपने जीवन के लिए उचित और आवश्यक प्रेरणाएँ ग्रहण करते थे।
आजादी के बाद हिंदी में सबसे बड़ी दुर्घटना शायद यही हुई कि साहित्यकारों ने पाठकांे को उचित और आवश्यक दिशाओं में प्रेरित करने के लिए लिखना और पाठकों ने ऐसी प्रेरणाएँ पाने के लिए साहित्य को पढ़ना कम कर दिया। लेखक समझने लगे कि लिखना प्रतिष्ठा, पैसा, पद, पुरस्कार आदि पाने का साधन है, तो पाठक समझने लगे कि पढ़ना मनोरंजन करने या वक्त काटने का साधन। ऐसी स्थिति में आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीय साहित्य में जो वैज्ञानिक विमर्श शुरू हुआ था और जिसने हमारे बहुत-से भ्रमों तथा अंधविश्वासों से हमें मुक्त किया था, वह आजादी के बाद लगभग बंद हो गया। नतीजा यह हुआ कि विज्ञान ही नहीं, साहित्य भी जन-जीवन से दूर हो गया और दोनों के बीच आपस में भी एक ऐसा अलगाव पैदा हो गया, जिसने विज्ञान कथाओं की रचना को एक कठिन काम बना दिया।
आजादी के बाद एक और दुर्घटना घटी: हिंदी भाषा और विज्ञान लेखन को प्रोत्साहन देने के प्रयास तो हुए, सरकारी स्तर पर इस काम के लिए पैसा भी खूब बहाया गया, लेकिन वर्चस्व अंग्रेजी का ही बनाये रखा गया। नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद भारतेंदु युग का वह सूत्र कहीं बिला गया कि अपनी भाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों की जड़ होती है। आजादी के बाद उस जड़ को सींचने के बजाय उसमें मट्ठा डालने का काम ज्यादा किया गया। हिंदी वालों को खुश रखने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर लेखकों को बड़े-बड़े पद और पुरस्कार दिये जाने लगे। उधर विज्ञान के प्रचार-प्रसार के नाम पर भी खूब पैसा बहाया गया। इस काम के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने कुछ काम भी किया, लेकिन जन-जीवन में वह ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ पैदा नहीं की जा सकी, जिसकी वकालत हमारे देश के वैज्ञानिकों ने ही नहीं, बल्कि राजनीतिक नेताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों आदि ने भी की थी। हालाँकि हिंदी में विज्ञान संबंधी कुछ पत्रिकाएँ निकलीं, हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान संबंधी सामग्री प्रकाशित होने लगी और कई विज्ञान लेखक सामने आये, मगर विज्ञान की उच्चतर शिक्षा और शोध का माध्यम अंग्रेजी ही बनी रही। ऐसी स्थिति में कोई वैज्ञानिक विमर्श शुरू नहीं हो सकता था, जो हिंदी में विज्ञान संबंधी मौलिक चिंतन और सर्जनात्मक लेखन को प्रेरित-प्रोत्साहित करता।
दूसरी तरफ आजादी के बाद विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा पाकर विदेशों में जाकर बस जाना आसान हो गया, तो उच्च-मध्यवर्गीय माता-पिता अपने बच्चों को इसी उद्देश्य से विज्ञान की शिक्षा दिलाने लगे और अपने बच्चों के वहाँ जाकर बस जाने पर गर्व करने लगे। इस प्रकार भारतीय मध्यवर्ग के ऊपरी तबके में अपने देश और अपनी भाषा (वह हिंदी हो या कोई और भारतीय भाषा) के प्रति वह लगाव-जुड़ाव नहीं रह गया, जो आजादी से पहले था।
चूँकि ज्यादातर राजनेता, वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार आदि, जो मुखर बुद्धिजीवी होने के कारण समाज को दिशा और गति देते हैं, मध्यवर्ग के इसी तबके से आते हैं, इसलिए जब यह तबका अपने देश और अपनी भाषा की चिंता छोड़कर अपनी चिंता करने लगा, तो एक प्रकार की दिशाहीनता फैली, जो देश की विकास संबंधी नीतियों में आज भी दिखायी पड़ती है। ध्यान से देखें, तो यही वह तबका है, जो भारत में पूँजी के भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा समर्थक है। भूमंडलीकरण के विचार ने मानो उसे अपने देश और अपनी भाषा के प्रति महसूस होने वाली रही-सही नैतिक जिम्मेदारी से भी मुक्त कर दिया है। उदाहरण के लिए, उसे जनता को यह बताना चाहिए था कि भारत में जब से आत्मनिर्भरता की नीति को त्यागकर निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियाँ अपनायी गयी हैं, तब से हम प्रौद्योगिकी के मामले में दूसरे देशों पर उत्तरोत्तर अधिक निर्भर होकर इस दिशा में अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता खोते जा रहे हैं। मगर क्या उसने ऐसा किया?
इस वर्ग के ज्यादातर लोगों के लिए उन्नति, प्रगति, विकास आदि सब चीजें मानो सार्वजनिक से व्यक्तिगत हो गयी हैं। उनके लिए अपनी और अधिक से अधिक अपने बच्चों की चिंता ही सब कुछ हो गयी है, जबकि यह नितांत अवैज्ञानिक विचार है, जो व्यक्ति को समाज, प्रकृति, पर्यावरण और संपूर्ण मनुष्यता का शत्रु बनाते हुए सबसे पहले उसी की मनुष्यता को नष्ट करता है।
भारत के शासक वर्ग का प्रयास रहा है कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ समाज में कोई वैज्ञानिक विमर्श चलाने में समर्थ न हो पायें। इसके पीछे कौन-से कारक या कारण हैं, इसकी पूरी जाँच-पड़ताल अभी नहीं हुई है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि हिंदी को इस मामले में असमर्थ बनाये रखने की एक कोशिश बराबर की जाती रही है। यह तो हिंदी की अपनी ताकत है कि वह तमाम उपेक्षाओं और अवरोधों-प्रतिरोधों के बावजूद आगे बढ़ी है, समृद्ध हुई है और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनने में समर्थ बनी है। हालाँकि स्वयं हिंदी के ही कई लेखक लगातार यह रोना रोते रहते हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है और हिंदी का कोई भविष्य नहीं है, फिर भी हिंदी ऐसी घोषणाएँ करने वालों को अँगूठा दिखाती हुई आगे बढ़ रही है और अपना विकास कर रही है। अन्यथा हिंदी में इतने ज्यादा अखबार और उनके नित नये संस्करण कैसे निकल रहे होते? हिंदी में इतनी पत्रिकाएँ क्यों निकल रही होतीं? तमाम तरह के विषयों की इतनी सारी किताबें हिंदी में कैसे छप रही होतीं?
लेकिन हिंदी के बहुत-से लेखक इस वस्तुपरक यथार्थ को अनदेखा करते हुए यही राग अलापते जा रहे हैं कि हिंदी में कुछ नहीं है और कुछ नहीं हो सकता। वे देख रहे हैं कि हिंदी के अखबारों और पत्रिकाओं में तमाम तरह के विषयों पर तमाम तरह का लेखन हो रहा है, लेकिन उन्होंने मानो साहित्य के उसी कुएँ का मेंढक बने रहने का फैसला कर रखा है, जिसमें ‘‘अपने जिये-भोगे यथार्थ’’ के नाम पर लेखक अपने अत्यंत सीमित निजी अनुभवों को लेकर ही सारी उछल-कूद करते रहते हैं। लेकिन वह दिन दूर नहीं, जब हिंदी के पाठक कथासाहित्य के नाम पर लेखकों की आत्मकथाओं या अन्य लेखकों की जीवनियों से संतुष्ट नहीं हो पायेंगे और ऐसे बहुत-से नये लेखक पैदा हो जायेंगे, जो पाठकों को उनकी जरूरत का नया साहित्य उपलब्ध करायेंगे। उस नये साहित्य में विज्ञान कथाएँ भी अवश्य होंगी।
--रमेश उपाध्याय