'वागर्थ' के दिसंबर, 2018 के अंक में हमारी कहानी 'मौत से पहले आदमी' प्रकाशित हुई है. पढ़ें और प्रतिक्रिया से अवगत करायें.-- रमेश उपाध्याय
चारों ओर एक मनहूस धुंध छायी हुई थी। साफ-साफ कुछ भी देख पाना मुश्किल था। उसे महसूस हुआ कि अब वह कुछ भी साफ-साफ नहीं देख पायेगा। ‘‘हो सकता है, ये मेरा वहम ही हो।’’ उसने सोचा। उसे लगा कि वह बेहोश है, या कम से कम इतना तो है ही कि नींद पूरी तरह नहीं खुली है। ‘‘नींद और बेहोशी में क्या कोई फर्क नहीं होता?’’ उसने स्वयं से पूछा। ‘‘क्या दोनों स्थितियों में धुंध ही दिखायी देती है?’’ उसने दिमाग पर जोर दिया। ‘‘लेकिन मैं सोया था या बेहोश हुआ था? सोया था तो कहाँ और बेहोश हुआ था तो क्यों? ये जगह कौन-सी है, जहाँ मैं पड़ा हूँ?’’
उसने हाथ-पैरों को तानकर उठने की कोशिश की, लेकिन उस कोशिश में उसका अंग-अंग दर्द से कराह उठा। ‘‘यह दर्द?’’ उसकी आँखें मुँद गयीं और उस मनहूस धुंध की जगह कुछ लाल-काले धब्बे उभर आये। रेशमी-से वे लाल-काले धब्बे आँखों में थोड़ी देर फैलते-सिकुड़ते रहे और फिर न जाने किस रास्ते से कहीं बह गये। उसे लगा, वह अवसन्न होता जा रहा है। ‘‘अचेत होते जाने की अनुभूति स्वयं की जा सकती है क्या!’’ उसने फिर सोचा और स्वयं से पूछा, ‘‘मैं अचेत क्यों हो रहा हूँ?’’
‘‘सपना है। डरावना सपना। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। अभी ये सपना टूट जायेगा। आँखें खुल जायेंगी और सब ठीक हो जायेगा। सारी असंभाव्यता की जगह वास्तविकताएँ लौट आयेंगी और मैं स्वयं को बिस्तर पर पड़ा हुआ मिलूँगा। जागता हुआ। सना पास ही सोयी हुई होगी। उसे जगा लूँगा और कहूँगा--उठकर मुझे एक गिलास पानी पिला दो। पानी पीने के बाद नींद ठीक से आ जायेगी।’’ इस राहत तक पहुँचकर भी वह सही-सही निश्चय नहीं कर पाया कि वह नींद में है या बेहोशी में, सोया हुआ है या जाग रहा है। ‘‘मेरे हाथ कहाँ हैं? सीने पर तो नहीं रखे हुए हैं? सना कहा करती है कि सीने पर हाथ रखा रह जाये, तो डरावने सपने आते हैं। सना सच कहती है। मैं कई बार के अनुभव से उसकी बात की सच्चाई को परख चुका हूँ...लेकिन जब मैं ये जान रहा हूँ कि ये सपना है तो ये सपना कैसे हो सकता है? कहीं, कुछ गड़बड़ है, सना...’’
उसने देखा, वह एक पहाड़ी पर चढ़ रहा है। पहाड़ी पर हर तरफ अनगढ़ और नुकीले पत्थर हैं और कँटीली झाड़ियाँ हैं, जिनमें उसके पायजामे के पाँयचों का खुलापन उलझ रहा है। हालाँकि पास ही एक साफ-सुथरा सीमेंट का बना रास्ता है, जिस पर आराम से चला जा सकता है, लेकिन रास्ते के किनारे एक तख्ती लगी हुई है, जिस पर लिखा है--केवल नीचे जाने के लिए। यह पढ़कर उसे बुरा लगा है। उसे अपने दफ्तर की लिफ्ट याद आ गयी है, जिसके बारे में न जाने किस अहमक ने ये नियम बना दिया था कि लिफ्ट सिर्फ ऊपर जाने के लिए है, उतरने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग कीजिए। इस नियम पर उसे बहुत क्रोध आया करता है, क्योंकि जब वह जल्दी में सीढ़ियों से उतरा करता है, उसे हमेशा आशंका बनी रहती है कि वह किसी दिन यों ही उतरते हुए गिर पड़ेगा और सीढ़ियों पर गोल-गोल लुढ़कता हुआ नीचे जा पड़ेगा--औंधे मुँह। और नीचे पहुँचने तक उसके प्राण निकल चुके होंगे।
लेकिन यहाँ तो उलटा नियम है--चढ़ने के लिए यह ऊबड़-खाबड़ कँटीली-पथरीली पहाड़ी और उतरने के लिए यह सीधा-सपाट सीमेंटी रास्ता। फिर भी वह मन में बड़ी कोफ्त महसूस करते हुए पहाड़ी पर चढ़ता रहा। ‘‘जगह यह जरूर जानी-पहचानी है।’’ उसने सोचा, ‘‘नींद खुलने पर मैं सोचकर इस जगह का नाम बता सकता हूँ, लेकिन अभी उसकी जरूरत नहीं है। अभी तो यह देखूँ कि इस पहाड़ी पर बनी उस इमारत के भीतर क्या है।’’
उसे आश्चर्य हुआ कि अगले ही क्षण वह उस इमारत के अंदर था और उसे महसूस हुआ कि अंदर का मौसम बदला हुआ है। गर्म और चमकीली धूप से भरा हुआ, और सामने एक ऊँची-लंबी दीवार के सिवा कुछ भी नहीं है। दीवार सपाट है और उसमें ऊपर की ओर एक--सिर्फ एक--अंधी खिड़की है, जिसमें कोई रोशनी, कोई चेहरा नहीं है। ‘‘क्या दीवार के उस पार रात हो गयी है?’’ उसने स्वयं से सवाल किया, लेकिन जवाब नहीं दे पाया। उसी समय उस अंधी खिड़की से एक झंडे की शक्ल में कोई चीज बाहर निकली और झूल गयी। झंडा ही था। लाल और उस पर एक स्वस्तिक का चिह्न। ‘‘ये हिटलर का झंडा है क्या? तो क्या मैं नात्सी जर्मनी में हूँ?’’ उसने स्वप्न की असंभाव्यता पर जोर से हँसना चाहा, लेकिन तभी वह अजीब-से खौफ से जकड़-सा गया और उसे लगा, किसी ने उसे उठाकर ‘केवल नीचे जाने के लिए’ वाले रास्ते पर लुढ़का दिया है और वह लुढ़कता जा रहा है। लहूलुहान होता जा रहा है...थोड़ी देर और...और वह नीचे जा पड़ेगा...औंधे मुँह...और नीचे पहुँचने पर उसके प्राण निकल चुके होंगे...
हड़बड़ाकर उसने आँखें खोल दीं। फिर वही मनहूस धुंध दिखायी दी, लेकिन अपने घर की परिचित दीवारें नहीं। एक ओर कुछ पीलापन-सा दिखायी दिया। गौर से देखा, तो कुछ सरसों के फूल बिखरे दिखायी दिये। हरियाली और पीलापन। ‘‘हरे पत्ते और पीले फूल? ये मैं कहाँ आ गया हूँ? सना कहाँ है? सना...।’’ उसने फिर उठने की कोशिश की, लेकिन फिर उसके अंग भयंकर पीड़ा से कराह उठे। उसे लगा कि दर्द मोटी-मोटी रस्सियों की शक्ल में उसके सारे जिस्म पर बँधा हुआ है। हाथों को शायद लकवा मार गया है कि वे हिल भी नहीं सकते। वह सिर भी नहीं उठा सकता। ऐसा हो सकता, तो वह उचककर कम से कम अपनी हालत तो देख सकता। ‘‘यह क्या हो गया है मुझे?’’ उसने अंदर ही अंदर चीखकर पूछा और अपनी बेबसी पर एक वहशी पागलपन से भर उठा कि उसका वश चले, तो स्वयं को मार-मारकर अधमरा कर दे।
‘‘मार-मारकर अधमरा...?’’ उसे कुछ याद आया? मुँदती आँखों में बंद फैलते-सिकुड़ते लाल-काले रेशमी धब्बों की शक्ल में हल्का-सा कुछ याद आया, लेकिन कुछ भी साफ नहीं हो सका। ‘‘मारेगा कोई क्यों मुझे? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? बचपन से अब तक कोई अपराध नहीं किया। किसी को छेड़ा-सताया नहीं। पढ़ता था तब भी, और पढ़ाई के बाद अब इतने वर्षों से नौकरी कर रहा हूँ, सो अब भी पूरे अनुशासन में रहता हूँ। किसी से कोई कड़वी बात नहीं कहता। सबके साथ प्यार और आदर से पेश आता हूँ। यथासंभव सबकी सेवा और सहायता करता हूँ। उनकी भी, जो मुझसे बेवजह नफरत करते हैं। फिर कोई क्यों मारेगा मुझे? गलत है। बकवास है। सपना है। अभी नींद टूटने पर सब ठीक हो जायेगा। सना, तुम जरा उठकर मुझे झकझोर दो न! सुनो, तुम मुझे झिंझोड़कर जगा दो और एक गिलास पानी पिला दो...’’
उसे लगा कि सना बहुत गहरी नींद में है। जाग नहीं सकती, जब तक कि उसे खूब झिंझोड़कर जगाया नहीं जाये। क्या मुसीबत है! इस स्वप्न को देखते चले जाने के सिवा कोई चारा नहीं है। लेकिन ये सरसों के पीले फूल यहाँ क्यों हैं?...नाइजर नदी के किनारे उसका गाँव था, उसका अपना घर था, जहाँ से पकड़कर उसे बेच दिया गया था और एक दिन अपने मालिक के खेत में काम करते-करते वह सो गया था और सपने में वह नीग्रो गुलाम नाइजर नदी के किनारे पहुँच गया था।...लेकिन मेरा घर तो सरसों के फूलों के पास नहीं था। मैं तो...मैं तो...हाँ, याद आया, मैं तो महात्मा गांधी लेन के आखिरी स्क्वायर में रहता हूँ...अपने फ्लैट की हर चीज को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। फिर ये हरे पत्ते और पीले फूल? यह सब क्या है? मेरी नींद क्यों नहीं टूटती है? यह सपना कब तक चलेगा?’’
अचानक उसे अपने दाहिने हाथ में, हाथ की उँगलियों में कुछ हरकत होती हुई-सी महसूस हुई। ‘‘क्या मेरी चेतना लौट रही है? हाँ। अभी सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन मेरी उँगलियाँ ये क्या टटोल रही हैं? घास? लेकिन मेरे बिस्तर पर घास कहाँ से आ गयी? सना के बाल तो नहीं? सना के बालों की छुअन को तो मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। यह घास ही है--ताजा गीलापन, नुकीलापन--लेकिन मेरे न चाहते हुए भी मेरे हाथ की उँगलियाँ थोड़ी-सी घास तोड़कर आँखों के सामने क्यों ले आती हैं?’’
दूर से आती हुई घूँ-घर्रर्रर्र की आवाज पास आकर दूर चली गयी। ‘‘शायद कोई ट्रक था!? तो क्या मैं किसी सड़क के किनारे...? ओफ्फ...!’’
जैसे अँधेरे में भक्क से कोई बल्ब जल उठे, उसे याद आया कि वो फिल्म का नाइट शो देखकर सना के साथ घर लौट रहा था...अपनी कार में...पीछा करती एक जीप ने आगे आकर रास्ता रोक लिया था...वे कई थे। उनमें से कुछ उसे मार रहे थे...कुछ सना को उठाकर ले जा रहे थे...सना चीख रही थी, ‘‘छोड़ो मुझे, दरिंदो, छोड़ो मुझे!’’
स्मृति का बल्ब फिर बुझ गया। उसे फिर महसूस हुआ कि वह अभी तक अपने दुःस्वप्न से उबर नहीं पाया है। वही मनहूस धुंध आँखों में फिर से घिर आयी। उसे फिर अपनी चेतना लुप्त होती हुई महसूस हुई। राहत-सी मिली। ‘‘नहीं, यह सच नहीं हो सकता। मैं स्वप्न में हूँ और उस बर्बर युग में पहुँच गया हूँ, जिसमें कभी भी किसी लुटेरे की फौज अँधेरे की तरह घिर आती थी, रक्तपात होता था, लूट मचती थी और भूखे फौजी परास्त देश की स्त्रिायों पर सामूहिक बलात्कार करते थे...
उसे याद आया, उसने अपनी कार से उस जीप का पीछा किया था...फिर एक जगह उसने अपनी कार रोकी थी और सना को उन बदमाशों के चंगुल से छुड़ाने के लिए उतरा था और वे भी उतरे थे और वे उसे मारकर फेंक गये थे...सना चीख रही थी, ‘‘छोड़ो मुझे, उसके पास जाने दो...वह मर जायेगा...’’ वे उसकी कार भी ले गये थे।
उसने पूरा जोर लगाकर उठने का प्रयत्न किया। चीखना भी चाहा। लेकिन शरीर का कोई भी हिस्सा उठ नहीं रहा था और गले में कोई गाढ़ी-सी तरल चीज भरी हुई थी, जिसे उगलना या निगलना संभव नहीं लग रहा था। उसकी साँस घुट रही थी। एक बार फिर उसने स्वयं को अचेत होते हुए महसूस किया। अब उसे अपने ऊपर आसमान में उड़ती हुई चील दिखायी दे रही थी। रोशनी, जो कुछ-कुछ साफ हो आयी थी, फिर बुझने लगी और आँखों में आतिशबाजी के गरम फूल खिलने लगे। ‘‘यह मुझे क्या हो गया है?’’ उसने दिमाग पर जोर देकर सोचने की कोशिश की। यह सपना तो हरगिज नहीं है। ‘‘फिर क्या है? फिर क्या है यह? कोई मुझे बताता क्यों नहीं है?’’
उसने तड़पकर उठने की कोशिश की। उसे अपने लहूलुहान जिस्म की एक झलक दिखायी दी और उसके सारे जख्म एक साथ दहक उठे। उसे लगा कि उस पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं और किसी किस्म के कीड़े उसे जगह-जगह से कुतर रहे हैं...
वह उलटा लेटकर अपना चेहरा घास में छिपा लेना चाहता था, लेकिन उलटते ही उसका मुँह खुल गया और आँखों के करीब कोई लाल चीज बिखर गयी। ‘‘खून है...मेरा खून...’’ उसने सोचा और अपने-आपको बेहद कमजोर महसूस करते हुए आँखें मूँद लीं।
बंद आँखों के बड़े परदे पर सना के चेहरे का क्लोजअप उभर आया।
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चारों ओर एक मनहूस धुंध छायी हुई थी। साफ-साफ कुछ भी देख पाना मुश्किल था। उसे महसूस हुआ कि अब वह कुछ भी साफ-साफ नहीं देख पायेगा। ‘‘हो सकता है, ये मेरा वहम ही हो।’’ उसने सोचा। उसे लगा कि वह बेहोश है, या कम से कम इतना तो है ही कि नींद पूरी तरह नहीं खुली है। ‘‘नींद और बेहोशी में क्या कोई फर्क नहीं होता?’’ उसने स्वयं से पूछा। ‘‘क्या दोनों स्थितियों में धुंध ही दिखायी देती है?’’ उसने दिमाग पर जोर दिया। ‘‘लेकिन मैं सोया था या बेहोश हुआ था? सोया था तो कहाँ और बेहोश हुआ था तो क्यों? ये जगह कौन-सी है, जहाँ मैं पड़ा हूँ?’’
उसने हाथ-पैरों को तानकर उठने की कोशिश की, लेकिन उस कोशिश में उसका अंग-अंग दर्द से कराह उठा। ‘‘यह दर्द?’’ उसकी आँखें मुँद गयीं और उस मनहूस धुंध की जगह कुछ लाल-काले धब्बे उभर आये। रेशमी-से वे लाल-काले धब्बे आँखों में थोड़ी देर फैलते-सिकुड़ते रहे और फिर न जाने किस रास्ते से कहीं बह गये। उसे लगा, वह अवसन्न होता जा रहा है। ‘‘अचेत होते जाने की अनुभूति स्वयं की जा सकती है क्या!’’ उसने फिर सोचा और स्वयं से पूछा, ‘‘मैं अचेत क्यों हो रहा हूँ?’’
‘‘सपना है। डरावना सपना। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। अभी ये सपना टूट जायेगा। आँखें खुल जायेंगी और सब ठीक हो जायेगा। सारी असंभाव्यता की जगह वास्तविकताएँ लौट आयेंगी और मैं स्वयं को बिस्तर पर पड़ा हुआ मिलूँगा। जागता हुआ। सना पास ही सोयी हुई होगी। उसे जगा लूँगा और कहूँगा--उठकर मुझे एक गिलास पानी पिला दो। पानी पीने के बाद नींद ठीक से आ जायेगी।’’ इस राहत तक पहुँचकर भी वह सही-सही निश्चय नहीं कर पाया कि वह नींद में है या बेहोशी में, सोया हुआ है या जाग रहा है। ‘‘मेरे हाथ कहाँ हैं? सीने पर तो नहीं रखे हुए हैं? सना कहा करती है कि सीने पर हाथ रखा रह जाये, तो डरावने सपने आते हैं। सना सच कहती है। मैं कई बार के अनुभव से उसकी बात की सच्चाई को परख चुका हूँ...लेकिन जब मैं ये जान रहा हूँ कि ये सपना है तो ये सपना कैसे हो सकता है? कहीं, कुछ गड़बड़ है, सना...’’
उसने देखा, वह एक पहाड़ी पर चढ़ रहा है। पहाड़ी पर हर तरफ अनगढ़ और नुकीले पत्थर हैं और कँटीली झाड़ियाँ हैं, जिनमें उसके पायजामे के पाँयचों का खुलापन उलझ रहा है। हालाँकि पास ही एक साफ-सुथरा सीमेंट का बना रास्ता है, जिस पर आराम से चला जा सकता है, लेकिन रास्ते के किनारे एक तख्ती लगी हुई है, जिस पर लिखा है--केवल नीचे जाने के लिए। यह पढ़कर उसे बुरा लगा है। उसे अपने दफ्तर की लिफ्ट याद आ गयी है, जिसके बारे में न जाने किस अहमक ने ये नियम बना दिया था कि लिफ्ट सिर्फ ऊपर जाने के लिए है, उतरने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग कीजिए। इस नियम पर उसे बहुत क्रोध आया करता है, क्योंकि जब वह जल्दी में सीढ़ियों से उतरा करता है, उसे हमेशा आशंका बनी रहती है कि वह किसी दिन यों ही उतरते हुए गिर पड़ेगा और सीढ़ियों पर गोल-गोल लुढ़कता हुआ नीचे जा पड़ेगा--औंधे मुँह। और नीचे पहुँचने तक उसके प्राण निकल चुके होंगे।
लेकिन यहाँ तो उलटा नियम है--चढ़ने के लिए यह ऊबड़-खाबड़ कँटीली-पथरीली पहाड़ी और उतरने के लिए यह सीधा-सपाट सीमेंटी रास्ता। फिर भी वह मन में बड़ी कोफ्त महसूस करते हुए पहाड़ी पर चढ़ता रहा। ‘‘जगह यह जरूर जानी-पहचानी है।’’ उसने सोचा, ‘‘नींद खुलने पर मैं सोचकर इस जगह का नाम बता सकता हूँ, लेकिन अभी उसकी जरूरत नहीं है। अभी तो यह देखूँ कि इस पहाड़ी पर बनी उस इमारत के भीतर क्या है।’’
उसे आश्चर्य हुआ कि अगले ही क्षण वह उस इमारत के अंदर था और उसे महसूस हुआ कि अंदर का मौसम बदला हुआ है। गर्म और चमकीली धूप से भरा हुआ, और सामने एक ऊँची-लंबी दीवार के सिवा कुछ भी नहीं है। दीवार सपाट है और उसमें ऊपर की ओर एक--सिर्फ एक--अंधी खिड़की है, जिसमें कोई रोशनी, कोई चेहरा नहीं है। ‘‘क्या दीवार के उस पार रात हो गयी है?’’ उसने स्वयं से सवाल किया, लेकिन जवाब नहीं दे पाया। उसी समय उस अंधी खिड़की से एक झंडे की शक्ल में कोई चीज बाहर निकली और झूल गयी। झंडा ही था। लाल और उस पर एक स्वस्तिक का चिह्न। ‘‘ये हिटलर का झंडा है क्या? तो क्या मैं नात्सी जर्मनी में हूँ?’’ उसने स्वप्न की असंभाव्यता पर जोर से हँसना चाहा, लेकिन तभी वह अजीब-से खौफ से जकड़-सा गया और उसे लगा, किसी ने उसे उठाकर ‘केवल नीचे जाने के लिए’ वाले रास्ते पर लुढ़का दिया है और वह लुढ़कता जा रहा है। लहूलुहान होता जा रहा है...थोड़ी देर और...और वह नीचे जा पड़ेगा...औंधे मुँह...और नीचे पहुँचने पर उसके प्राण निकल चुके होंगे...
हड़बड़ाकर उसने आँखें खोल दीं। फिर वही मनहूस धुंध दिखायी दी, लेकिन अपने घर की परिचित दीवारें नहीं। एक ओर कुछ पीलापन-सा दिखायी दिया। गौर से देखा, तो कुछ सरसों के फूल बिखरे दिखायी दिये। हरियाली और पीलापन। ‘‘हरे पत्ते और पीले फूल? ये मैं कहाँ आ गया हूँ? सना कहाँ है? सना...।’’ उसने फिर उठने की कोशिश की, लेकिन फिर उसके अंग भयंकर पीड़ा से कराह उठे। उसे लगा कि दर्द मोटी-मोटी रस्सियों की शक्ल में उसके सारे जिस्म पर बँधा हुआ है। हाथों को शायद लकवा मार गया है कि वे हिल भी नहीं सकते। वह सिर भी नहीं उठा सकता। ऐसा हो सकता, तो वह उचककर कम से कम अपनी हालत तो देख सकता। ‘‘यह क्या हो गया है मुझे?’’ उसने अंदर ही अंदर चीखकर पूछा और अपनी बेबसी पर एक वहशी पागलपन से भर उठा कि उसका वश चले, तो स्वयं को मार-मारकर अधमरा कर दे।
‘‘मार-मारकर अधमरा...?’’ उसे कुछ याद आया? मुँदती आँखों में बंद फैलते-सिकुड़ते लाल-काले रेशमी धब्बों की शक्ल में हल्का-सा कुछ याद आया, लेकिन कुछ भी साफ नहीं हो सका। ‘‘मारेगा कोई क्यों मुझे? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? बचपन से अब तक कोई अपराध नहीं किया। किसी को छेड़ा-सताया नहीं। पढ़ता था तब भी, और पढ़ाई के बाद अब इतने वर्षों से नौकरी कर रहा हूँ, सो अब भी पूरे अनुशासन में रहता हूँ। किसी से कोई कड़वी बात नहीं कहता। सबके साथ प्यार और आदर से पेश आता हूँ। यथासंभव सबकी सेवा और सहायता करता हूँ। उनकी भी, जो मुझसे बेवजह नफरत करते हैं। फिर कोई क्यों मारेगा मुझे? गलत है। बकवास है। सपना है। अभी नींद टूटने पर सब ठीक हो जायेगा। सना, तुम जरा उठकर मुझे झकझोर दो न! सुनो, तुम मुझे झिंझोड़कर जगा दो और एक गिलास पानी पिला दो...’’
उसे लगा कि सना बहुत गहरी नींद में है। जाग नहीं सकती, जब तक कि उसे खूब झिंझोड़कर जगाया नहीं जाये। क्या मुसीबत है! इस स्वप्न को देखते चले जाने के सिवा कोई चारा नहीं है। लेकिन ये सरसों के पीले फूल यहाँ क्यों हैं?...नाइजर नदी के किनारे उसका गाँव था, उसका अपना घर था, जहाँ से पकड़कर उसे बेच दिया गया था और एक दिन अपने मालिक के खेत में काम करते-करते वह सो गया था और सपने में वह नीग्रो गुलाम नाइजर नदी के किनारे पहुँच गया था।...लेकिन मेरा घर तो सरसों के फूलों के पास नहीं था। मैं तो...मैं तो...हाँ, याद आया, मैं तो महात्मा गांधी लेन के आखिरी स्क्वायर में रहता हूँ...अपने फ्लैट की हर चीज को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। फिर ये हरे पत्ते और पीले फूल? यह सब क्या है? मेरी नींद क्यों नहीं टूटती है? यह सपना कब तक चलेगा?’’
अचानक उसे अपने दाहिने हाथ में, हाथ की उँगलियों में कुछ हरकत होती हुई-सी महसूस हुई। ‘‘क्या मेरी चेतना लौट रही है? हाँ। अभी सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन मेरी उँगलियाँ ये क्या टटोल रही हैं? घास? लेकिन मेरे बिस्तर पर घास कहाँ से आ गयी? सना के बाल तो नहीं? सना के बालों की छुअन को तो मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। यह घास ही है--ताजा गीलापन, नुकीलापन--लेकिन मेरे न चाहते हुए भी मेरे हाथ की उँगलियाँ थोड़ी-सी घास तोड़कर आँखों के सामने क्यों ले आती हैं?’’
दूर से आती हुई घूँ-घर्रर्रर्र की आवाज पास आकर दूर चली गयी। ‘‘शायद कोई ट्रक था!? तो क्या मैं किसी सड़क के किनारे...? ओफ्फ...!’’
जैसे अँधेरे में भक्क से कोई बल्ब जल उठे, उसे याद आया कि वो फिल्म का नाइट शो देखकर सना के साथ घर लौट रहा था...अपनी कार में...पीछा करती एक जीप ने आगे आकर रास्ता रोक लिया था...वे कई थे। उनमें से कुछ उसे मार रहे थे...कुछ सना को उठाकर ले जा रहे थे...सना चीख रही थी, ‘‘छोड़ो मुझे, दरिंदो, छोड़ो मुझे!’’
स्मृति का बल्ब फिर बुझ गया। उसे फिर महसूस हुआ कि वह अभी तक अपने दुःस्वप्न से उबर नहीं पाया है। वही मनहूस धुंध आँखों में फिर से घिर आयी। उसे फिर अपनी चेतना लुप्त होती हुई महसूस हुई। राहत-सी मिली। ‘‘नहीं, यह सच नहीं हो सकता। मैं स्वप्न में हूँ और उस बर्बर युग में पहुँच गया हूँ, जिसमें कभी भी किसी लुटेरे की फौज अँधेरे की तरह घिर आती थी, रक्तपात होता था, लूट मचती थी और भूखे फौजी परास्त देश की स्त्रिायों पर सामूहिक बलात्कार करते थे...
उसे याद आया, उसने अपनी कार से उस जीप का पीछा किया था...फिर एक जगह उसने अपनी कार रोकी थी और सना को उन बदमाशों के चंगुल से छुड़ाने के लिए उतरा था और वे भी उतरे थे और वे उसे मारकर फेंक गये थे...सना चीख रही थी, ‘‘छोड़ो मुझे, उसके पास जाने दो...वह मर जायेगा...’’ वे उसकी कार भी ले गये थे।
उसने पूरा जोर लगाकर उठने का प्रयत्न किया। चीखना भी चाहा। लेकिन शरीर का कोई भी हिस्सा उठ नहीं रहा था और गले में कोई गाढ़ी-सी तरल चीज भरी हुई थी, जिसे उगलना या निगलना संभव नहीं लग रहा था। उसकी साँस घुट रही थी। एक बार फिर उसने स्वयं को अचेत होते हुए महसूस किया। अब उसे अपने ऊपर आसमान में उड़ती हुई चील दिखायी दे रही थी। रोशनी, जो कुछ-कुछ साफ हो आयी थी, फिर बुझने लगी और आँखों में आतिशबाजी के गरम फूल खिलने लगे। ‘‘यह मुझे क्या हो गया है?’’ उसने दिमाग पर जोर देकर सोचने की कोशिश की। यह सपना तो हरगिज नहीं है। ‘‘फिर क्या है? फिर क्या है यह? कोई मुझे बताता क्यों नहीं है?’’
उसने तड़पकर उठने की कोशिश की। उसे अपने लहूलुहान जिस्म की एक झलक दिखायी दी और उसके सारे जख्म एक साथ दहक उठे। उसे लगा कि उस पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं और किसी किस्म के कीड़े उसे जगह-जगह से कुतर रहे हैं...
वह उलटा लेटकर अपना चेहरा घास में छिपा लेना चाहता था, लेकिन उलटते ही उसका मुँह खुल गया और आँखों के करीब कोई लाल चीज बिखर गयी। ‘‘खून है...मेरा खून...’’ उसने सोचा और अपने-आपको बेहद कमजोर महसूस करते हुए आँखें मूँद लीं।
बंद आँखों के बड़े परदे पर सना के चेहरे का क्लोजअप उभर आया।
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