Friday, August 7, 2009

हिन्दी में जारी निरर्थक विवाद

निरर्थक विवादों को छोड़ सार्थक बहसें चलायें

हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास न होने देना चाहने वाली शक्तियां आजकल यह देखकर परम प्रसन्न होंगी कि वे जो चाहती हैं, हिन्दी वाले स्वयं कर रहे हैं। कुछ दिन पहले वर्धा के महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिकाओं के संपादकों की नियुक्ति का मामला विवादों में रहा। फिर दिल्ली की हिन्दी अकादमी में उपाध्यक्ष की नियुक्ति और सञ्चालन समिति के कुछ सदस्यों के त्यागपत्र विवाद का विषय बने। गोरखपुर में एक कथाकार का एक योगी के हाथों सम्मानित होना अभी चर्चा में ही था कि रायपुर में एक सम्मान समारोह में कुछ लेखकों का भाग लेना और कुछ लेखकों द्वारा उसका बहिष्कार करना विवाद का विषय बन गया। ये विवाद पत्रिकाओं में कम, इन्टरनेट पर अधिक हो रहे हैं और उनमें व्यक्त विचारों तथा भाषा के प्रयोगों को देख कर लगता है कि हिन्दी में होने वाली चर्चाओं का स्तर कितना घटिया और शर्मनाक हो गया है। लगता है, हिन्दी के लेखक-पाठक देश, दुनिया, मानवता, समाज, साहित्य, सभ्यता और संस्कृति से सम्बंधित बृहत्तर प्रश्नों पर विचार करना छोड़ निरर्थक चर्चाओं में व्यस्त हो गए हैं, जिनका उद्देश्य येन केन प्रकारेण स्वयं को चर्चित बनाना होता है। और इसका तरीका होता है कोई ऐसा मुद्दा उछालना, जिस पर बिना किसी जिम्मेदारी या जवाबदेही के कोई भी कुछ भी कह सके। ऐसी चर्चाओं में भाग लेने के लिए न किसी विषय के गंभीर अध्ययन की आवश्यकता होती है, न चिंतन-मनन की। न भाषा पर ध्यान देने की ज़रूरत होती है, न बातचीत को विषय पर केंद्रित रखने के अनुशासन की। अतः कोई भी कितनी ही भद्दी भाषा में कुछ भी कह गुज़रता है।

इन विवादों में भाग लेने वाले लोग आजकल हिन्दी के लेखकों को अनैतिक सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका दावा है कि वे हिन्दी साहित्य में मौजूद गंदगी के विरुद्ध एक सफाई अभियान चला रहे हैं। वे दूसरों को अनैतिक बताते हुए स्वयं को परम नैतिकतावादी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। लेकिन उनके विचारों से ही नहीं, उनकी भाषा तक से पता चल जाता है कि वे नैतिकता का 'न' भी नहीं जानते और स्वयं किसी प्रकार नैतिक अनुशासन को नहीं मानते। दूसरों पर कीचड़ उछालने को वे सफाई करना समझते हैं और यह भी नहीं देखते कि ऐसा करते समय वे स्वयं कितने और कैसे कीचड़ में सन रहे हैं। उन्हें यह भी होश नहीं रहता कि हिन्दी में जो कुछ होता है, उससे हिन्दी वाले ही नहीं, दूसरी भाषाओँ के लोग भी प्रभावित होते हैं। हिन्दी देश की इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण भाषा है कि अन्य भारतीय भाषाओँ के लेखक हिन्दी लेखकों से एक नेतृत्वकारी भूमिका तथा मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं। सोचने की बात है कि हिन्दी में हो रही कुचर्चाओं से वे हिन्दी लेखकों तथा हिन्दी साहित्य के बारे में कैसी धारणाएं बनाते होंगे और कैसे निष्कर्ष निकालते होंगे।

इन्टरनेट का सदुपयोग किया जाए, तो वह अपनी भाषा और साहित्य के विकास तथा व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए बेहतरीन माध्यम हो सकता है। लेकिन बड़े खेद की बात है कि इसका दुरुपयोग अपनी भाषा और साहित्य से लोगों को विमुख करने के लिए किया जा रहा है। और यह काम हिन्दी वाले स्वयं कर रहे हैं!

नैतिकता की बात करने में कोई बुराई नहीं है। लेखकों के अनैतिक आचरण की आलोचना अवश्य की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा करने की पहली शर्त यह है कि आलोचना का सैद्धांतिक तथा मूल्यगत आधार स्पष्ट रहे तथा आलोचक जो कसौटी दूसरों के लिए अपनाए, वही अपने लिए भी अपनाए। लेकिन हिन्दी लेखकों की अनैतिकता की जो आलोचना आजकल की जा रही है, उसमें कहीं भी यह स्पष्ट नहीं होता कि आलोचक स्वयं क्या है और क्या करना चाहता है।

लेखकों के आचरण को सम्पूर्ण साहित्यिक गतिविधि के सन्दर्भ में ही सही ढंग से समझा जा सकता है और उसके सन्दर्भ में पहला नैतिक प्रश्न आज यह उठाना चाहिए कि साहित्यिक गतिविधियों पर राज्य, राजनीतिक दलों और पूंजीपतियों द्वारा जो रुपया पानी की तरह बहाया जाता है, वह कहाँ से आता है और कहाँ जाता है। एक जनतांत्रिक व्यवस्था में नैतिकता की कसौटी यह है कि जनता का पैसा जनहित में खर्च होना चाहिए। साहित्यिक गतिविधि के सन्दर्भ में इसका अर्थ यह है कि जनता का पैसा जनता की भाषा की उन्नति के लिए तथा जनता को अच्छा साहित्य सुलभ कराने के लिए खर्च होना चाहिए। यदि वह इस जनतांत्रिक उद्देश्य के लिए खर्च न होकर किन्हीं अन्य उद्देश्यों के लिए खर्च होता है, तो यह अनैतिक है। और इस कार्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जो भी शामिल है, वह अनैतिक है।

इस दृष्टि से देखें, तो साहित्यिक गतिविधि में अनैतिकता का स्रोत है वह पूंजीवादी व्यवस्था और उसमें शासकवर्ग की वह राजनीति, जो अनेक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपों में लेखकों को भ्रष्ट बनाने के साथ-साथ उनमें छोटे-बड़े का भेद, आपसी ईर्ष्या-द्वेष और गलाकाटू प्रतिद्वंद्विता पैदा करती है। वह साहित्य के विकास और प्रचार-प्रसार के नाम पर असंख्य सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं के जरिये भारी धनराशियाँ खर्च करती है, जिनसे विभिन्न प्रकार की साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और संस्थान बनाये-चलाये जाते हैं, उनके द्वारा हर साल काफ़ी बड़े बजट वाले कार्यक्रम किए जाते हैं, छोटे-बड़े असंख्य पुरस्कार बांटे जाते हैं, पुस्तकों और पत्रिकाओं की थोक सरकारी खरीद की जाती है, साहित्यिक पत्रिकाओं को विज्ञापन तथा आर्थिक सहायतायें दी जाती हैं और लेखकों को विभिन्न प्रकार की वृत्तियाँ, सहायताएं, सुविधाएं आदि उपलब्ध कराई जाती हैं। इस प्रक्रिया में जो विशाल धनराशियाँ खर्च की जाती हैं, वे नैतिकता की इस कसौटी पर कदापि जायज़ नहीं ठहराई जा सकतीं कि जनता का पैसा जनता की भाषा की उन्नति के लिए तथा जनता को अच्छा साहित्य सुलभ कराने के लिए खर्च होना चाहिए।

अतः जो लोग हिन्दी साहित्य में वाकई कोई सफाई अभियान चलाना चाहते हैं, उन्हें लेखकों की अनैतिकता के मूल स्रोत पर ध्यान देना चाहिए और ऐसा कुछ करना चाहिए कि उस स्रोत से साहित्य में गन्दगी का आना बंद हो। इस दिशा में पहला और सबसे ज़रूरी काम यह है कि यदि जनता का पैसा साहित्यिक गतिविधि में जनता के लिए खर्च न होकर किन्हीं और लोगों पर किन्हीं और उद्देश्यों के लिए खर्च हो रहा है, तो इससे सम्बंधित तमाम तथ्य और आंकडे जनता के सामने लाकर इसके विरुद्ध एक व्यापक जन-आन्दोलन चलाया जाए।

लेकिन यह गंभीरतापूर्वक मेहनत और ज़िम्मेदारी के साथ किया जाने वाला काम है और यह काम अकेले-अकेले नहीं, मिल-जुलकर ही किया जा सकता है। यह काम निरर्थक विवादों में अपना और दूसरों का समय नष्ट करके नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ सार्थक बहस चला कर ही किया जा सकता है।

--रमेश उपाध्याय

10 comments:

  1. रमेश जी!
    आप से बिलकुल सहमत हूँ। लोग जानबूझ कर हवा देते हैं। ऐसे मामले जिन में कीचड़ उछाला जाए जल्दी ही लोकप्रियता प्राप्त कर लेते हैं। यह प्रतियोगिता मीडिया ने आरंभ की है जिस का नेतृत्व मीडिया समूहों के मालिकों के हाथ में है। अब क्या सांसद और क्या संस्थान सभी इसी काम में जुटे हैं। सीपीएम महासचिव भी आज कल इस प्रवृत्ति से अछूते नहीं रह गए हैं। आप चाहें तो निम्न लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं।
    http://teesarakhamba.blogspot.com/2009/08/blog-post_07.html

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  2. बिल्कुल सही कहा है आपने, मै भी आपके बात से सहमत हुं।

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  3. बिल्कुल सही कहा है आपने, मै भी आपके बात से सहमत हुं।

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  4. ब्ळोग जगत भी इस प्रवृत्ति से अछूता नहीं है।
    धनदोहन की प्रवृत्ति तो हर क्षेत्र में है।

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  5. आपने बहुत सही लिखा है लेकिन कोई इसका कोई कारगर हल या समाधान नहीं सुझाया है।

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  6. सौ प्रतिशत सहमत हूँ....समझिये आपने कई पाठको की भावनाओ को शब्द दिए है

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  7. रमेश जी आपने बिलकुल सटीक सवाल उठाया है। हिंदी में मुद्दों पर आधारित बहस होती ही नहीं है। बहस को मुद्दे से भटका कर व्यक्तियों पर केंद्रित कर दिया जाता है और फिर ऐसी बहसों में व्यक्तिगत हिसाब-किताब चुकता करने का आग्रह मूल मुद्दे से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। और बहस की भाषा के तो क्या कहने...

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  8. आदरणीय रमेश जी ,यह बात मैं भी महसूस कर रहा हूँ कि यह विवाद इंटरनेट पर अधिक हो रहे हैं और यह विवाद भी उन लोगों के बारे मे अधिक हो रहे है जो इंटरनेट से जुड़ॆ हैं साथ ही इसकी चर्चा भी उन लोगों के बीच हो रही है जो इंटरनेट का उपयोग करते हैं । जिन विवादों की आपने चर्चा की है पत्रिकाओं में उनका उल्लेख नहीं है। हो सकता है बाद में इनका ज़िक्र हो लेकिन तब तक इंटरनेट के लिये यह विषय पुराने हो चुके होंगे . लेकिन आपकी यह चिंता स्वाभाविक है कि इस सम्पूर्ण कार्यव्यापार से हिन्दी और हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधियों की छवि धूमिल हो रही है । इस माध्यम कि द्रुत गति को देखते हुए यह सम्भव नहीं है कि यहाँ के पाठकों की स्मृति में सब कुछ अधिक दिनों तक रहे ,त्वरित प्रतिक्रिया प्रस्तुत करने के पश्चात वे सब भूल जाते है । यद्यपि जिन महानुभावों ने आपके इस आलेख पर टिप्पणियाँ की हैं उनकी तरह गम्भीर पाठक भी यहाँ हैं और अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं. लेखकों के आचरण के सम्बन्ध में मुझे कुछ नहीं कहना है लेकिन यह सही है कि लेखक हो या आलोचक उसे अपने गिरेबाँ में झाँकने का साहस होना चाहिये. आपका यह कहना भी सही है कि अनेक संस्थान व पत्रिकायें इन्ही लोगों द्वारा पोषित है और इनकी साहित्यिक गतिविधियों मे अनैतिकता का स्त्रोत है लेकिन अभी भी अनेक संस्थायें व पत्रिकायें अपने बलबूते पर इस जनतांत्रिक उद्देश्य की पूर्ति के लिये प्रयासरत है । पत्रिकाओं में मैं यहाँ "पहल" और "कथन" जैसी पत्रिकाओं का नाम रेखांकित करना चाहता हूँ ।

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  9. रमेश जी, मुझे लगता है आपने सबकी दुखती नस पर हाथ्‍ा रख दिया है। लेकिन लेखक की नैतिकता और अनैतिकता पर और खुलकर बोलना होगा। बात अभी साफ नहीं हुई है। सही है कि निरर्थक विवाद क्‍यों किए जाएं। पर सार्थक बहस के लिए भी आप जैसे लेखकों को आगे आना होगा। तो कयों न आप अपने इस ब्‍लाग में या फिर कथन में इस विषय को लेकर एक सार्थक परिचर्चा आयोजित करें। मेरी अपेक्षा तो यह है।

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