Monday, October 19, 2009

हिन्दी प्रकाशन की दिशा

हिन्दी का पुस्तक प्रकाशन भी 'सेलेब्रिटीज' की ओर?

दिवाली के त्यौहार के लिए घर की सफाई करते समय मुझे अपने कुछ पुराने नोट्स मिले। कुछ कागजों पर मैंने आधा-अधूरा-सा कुछ लिख रखा था। कुछ उद्धरण थे, लेकिन उनके सन्दर्भ नहीं थे। ऐसे कागजों को फाड़कर फेंकते समय एक कागज़ पर नज़र पड़ी, जिस पर लिखा था :

"सुबह अखबार में पढा लेख याद आ गया--'बियोंड लेफ्ट एंड राइट'। उसमें लिखा था कि परिस्थिति बदल जाने से बहुत-से वामपंथी मार्क्स, माओ, मंडेला को छोड़कर मैनेजमेंट, मार्केटिंग और मीडिया की तरफ़ चले गए हैं। वाम और दक्षिण का अब कोई मतलब नहीं रह गया है। बहुत-से लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने दलगत राजनीति और उससे सम्बद्ध विचारधाराओं से ही नहीं, बल्कि राजनीति मात्र से ही पल्ला झाड़ लिया है। लेकिन सभी ऐसा नहीं कर रहे हैं। जाक दरीदा मार्क्सवाद के अंत पर पुनर्विचार कर रहा है। ल्योतार उत्तर-आधुनिक नैतिकता पर किताब लिख रहा है। फ्रांस्वा फ्यूरे कम्युनिज्म का अध्ययन कर रहा है। लेकिन तीन-चार दिन पहले मैंने एक और लेख पढा था--'सेलेब्रिटी नोवेल्स'। उसमें लिखा था--'बुक पब्लिशिंग नाउ रिज़म्बल्स हॉलीवुड एंड दि फ़िल्म इंडस्ट्री। इट हैज़ दि सेम रिलेंटलेस सेलेब्रिटी पफ्स, सिनिकल मार्केटिंग प्लोयज़ एंड रूथलेस टैक्टिक्स...'। तभी तो पश्चिम के प्रकाशक एक लेखक की पुस्तकों की चार करोड़ प्रतियाँ तक बेच लेते हैं। इतना बिकने वाला एक लेखक है कैन फालेट, जिसे ब्रिटेन के आलोचक 'शैम्पेन सोशलिस्ट' कहते हैं..."

ये बातें शायद मैंने कोई लेख लिखने की तैयारी करते समय नोट की होंगी। लेकिन कब? याद नहीं। जिन लेखों का यहाँ ज़िक्र है, वे किनके थे, कब और कहाँ छपे थे, यह भी याद नहीं। लेकिन इन बातों को फिर से पढ़ा, तो लगा कि अब हिन्दी का पुस्तक प्रकाशन भी सेलेब्रिटीज की तरफ़ जा रहा है। उसकी शक्ल भी फ़िल्म उद्योग से मिलने लगी है। उसमें भी मार्केटिंग के सिनिकल तौर-तरीके अपनाए जाने लगे हैं और अपनाई जाने लगी हैं 'रूथलेस टैक्टिक्स'। और आज नहीं तो कल, हिन्दी के भी अपने कैन फालेट होंगे! हिन्दी के भी अपने 'शैम्पेन सोशलिस्ट' होंगे!

--रमेश उपाध्याय

5 comments:

  1. मार्केटिंग ने हर ओर अपना सिक्‍का जमा लिया है .. व्‍यवसायिक सफलता को महत्‍व देने वाले युग में कोई क्षेत्र इससे नहीं बच सकता !!

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  2. रमेश जी, आपकी चिंता जायज है। करोड़ों हिंदी भाषियों के बीच हजार-पांच सौ प्रतियों के संस्करण बिकने में वर्षों लग जाते हैं। हिंदी जगत में अपने साहित्य को लेकर जिस तरह की उदासीनता है, नई पीढ़ी में जिस तरह का भाव-बोध विकसित हो रहा है, वैसे में बाजार को सेलिब्रिटीज को छापने और मार्केटिंग की रूथलेस टैक्टिक्स अपनाने के लिए बहाना भी मिल गया है। हिंदी का पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय सिर्फ सेलिब्रिटीज ही नहीं, समर्थ अफसरों, मंत्रियों और धन-शक्ति-संपन्न लोगों के पीछे भी भाग रहा है। ऐसे लोगों की किताबें धड़ल्ले से छप रही हंै, जो थोक में किताबें बिकवाने की व्यवस्था करा सकें। हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशकों में ऐसे 'समर्थ' लेखकों को लपक लेने की एक प्रतिस्पर्धा-सी चल रही है। आगे-आगे देखिए होता है क्या?

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  3. अरुण जी की बात से पूरी सहमति है। प्रकाशकों के लिये लेखन की सामर्थ्य मह्त्वहीन है; पुस्तक बिकवाने की सामर्थ्य महत्वपूर्ण।

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  4. अरुण की बात से मेरी भी सहमति है.
    बात चिन्ता की यह है कि हम, खासकर हिन्दी साहित्य के लोग इन चीजों के बरक्स अपने अच्छे साहित्य की पब्लिसिटी क्यों नहीं कर पाते? क्या आपको नहीं लगता कि यह कमी हमारी भी है कि लोग साहित्य को नकार रहे हैं और एसी चीजें पढ़ने मे लगे हैं जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं?

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  5. रमेश जी आपने लंबे समय से कुछ नहीं लिखा, लिखना जारी रखें..

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