बहुत शोर सुनते थे...
मैंने जे डी सेलिंगर को पहले कभी नहीं पढ़ा था, लेकिन उनके उपन्यास 'The Catcher in the Rye' का नाम सुना था। जब मैंने लिखना शुरू किया था, 1960 के दशक में, तब इसकी काफी चर्चा थी। पिछले दिनों सेलिंगर की मृत्यु के समय उनके बारे में लिखे गये लेखों में पुनः इस उपन्यास के बारे में पढ़ा, तो इच्छा हुई कि इसे पढ़ा जाये। खोजकर पढ़ा। यह ज्यादा बड़ा नहीं, केवल 218 पृष्ठों का उपन्यास है और बोलचाल वाली अंग्रेजी में रोचक ढंग से लिखा गया है, इसलिए पढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा। इसमें होल्डेन कॉलफील्ड नामक एक अमरीकी किशोर की कहानी है, जिसे फेल हो जाने पर स्कूल से निकाल दिया जाता है। स्कूल से अपने घर पहुँचने के बीच के तीन दिनों में वह क्या-क्या करता है और उसके साथ क्या-क्या होता है, इसका बयान वह स्वयं करता है। इस क्षीण-से कथा-सूत्र पर टँगी छोटी-छोटी असंबद्ध-सी घटनाओं के वर्णन के ज़रिये लेखक ने अमरीकी जीवन का एक चित्र प्रस्तुत किया है।
यह उपन्यास पहली बार 1951 में हैमिश हैमिल्टन से ग्रेट ब्रिटेन में प्रकाशित हुआ था। पेंगुइन बुक्स में यह पहली बार 1958 में आया और तब से यह लगातार पुनर्मुद्रित होता रहा है। कई बार तो एक वर्ष में दो-दो बार भी। लेकिन इस अतिप्रसिद्ध उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे ऐसा क्यों लगा कि यह एक साधारण-सा उपन्यास है, जिसे विश्व की महान कृतियों के समकक्ष तो क्या, उनके पासंग में भी नहीं रखा जा सकता? आखिर इसमें ऐसी क्या बात थी कि यह इतना चर्चित और प्रसिद्ध हुआ?
मन में उठे इन सवालों के जवाब पाने के लिए मैंने इस उपन्यास के बारे में आलोचकों के विचार पढ़े, तो पता चला कि यह उपन्यास अपने कथ्य के कारण उतना नहीं, जितना अपने शिल्प के नयेपन के कारण सराहा गया था। लेकिन कोई साहित्यिक रचना केवल शिल्प के बल पर इतनी चर्चित और प्रसिद्ध नहीं हो सकती। इसमें कथ्य का भी कुछ नयापन था।
उस समय पश्चिमी देशों के साहित्य में, शीतयुद्ध के संदर्भ में, यथार्थवाद के विरुद्ध एक अभियान-सा चलाया जा रहा था, जो आधुनिकतावाद, अस्तित्ववाद और नकारवाद की विचारधाराओं के साथ किये जाने वाले ‘नवलेखन’ (नयी कविता, नयी कहानी, नयी आलोचना) के रूप में तथा ‘एंटी’ और ‘एब्सर्ड’ जैसे उपसर्गों वाली विधाओं (एंटी-स्टोरी, एंटी-नॉवेल, एब्सर्ड ड्रामा आदि) के रूप में सामने आ रहा था। हिंदी साहित्य में यह ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ का और कुछ आगे चलकर ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ का समय था। निस्संदेह इस ‘नवलेखन’ में शिल्प के स्तर पर ही नहीं, कथ्य के स्तर पर भी कुछ नया था। इसमें पुरानी आदर्शवादी भावुकता और परंपरागत नैतिकता का निषेध था, लेकिन साथ-साथ उस यथार्थवाद का भी निषेध था, जो आधुनिक साहित्य की एक मुख्य विशेषता बनकर विश्व साहित्य में अपनी एक प्रभुत्वशाली जगह बना चुका था।
यथार्थवाद किसी कला-रूप, कला-सिद्धांत या रचना-पद्धति के रूप में नहीं, बल्कि पूँजीवाद के उदय के साथ उसकी विश्वदृष्टि के रूप में सामने आया था। साहित्य और कलाओं में वह यथार्थ को सार्थक और सोद्देश्य रूप में चित्रित करने की कला के रूप में विकसित हुआ था। शुरू से ही उसकी विशेषता यह रही है कि यथार्थ के बदलने के साथ वह स्वयं को भी बदलता है। उसके इस प्रकार बदलते रहने के कारण ही उसके विकासमान स्वरूप का संकेत करने वाले उसके विभिन्न नामकरण होते रहते हैं, जैसे--प्रकृतवाद, आलोचनात्मक यथार्थवाद, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, समाजवादी यथार्थवाद और अब भूमंडलीय यथार्थवाद। उन्नीसवीं शताब्दी तक यथार्थवाद काफी प्रौढ़ और परिपक्व हो चुका था, जिसे हम मुख्यतः फ्रांस, रूस और इंग्लैंड के तत्कालीन कथासाहित्य में देख सकते हैं।
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में उपनिवेशवाद-विरोधी स्वाधीनता आंदोलनों तथा समाजवादी क्रांतियों के साथ-साथ एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका के विभिन्न देशों के साहित्य में यथार्थवाद का विकास अपने-अपने ढंग से हुआ। लेकिन इस नयी परिस्थिति में पूँजीवाद को यथार्थवाद खटकने लगा था, क्योंकि वह साहित्य और कलाओं में उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों तथा समाजवादी क्रांतियों के पक्ष से पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की आलोचना का औजार बन गया था। इसी कारण उसका नामकरण हुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद। उसके बाद जब से समाजवादी देशों में उसके नये रूप समाजवादी यथार्थवाद की चर्चा होने लगी, तब से तो पूँजीवादी देशों में यथार्थवाद को शत्रुवत ही माना जाने लगा। शीतयुद्ध के दौरान साहित्य और कलाओं में यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्तियों को खूब उभारा गया तथा व्यापक प्रचार के बल पर उन्हें एक तरफ ‘लोकप्रिय’ बनाया गया, तो दूसरी तरफ प्रतिष्ठित और पुरस्कृत भी किया गया।
'The Catcher in the Rye' उसी दौर की रचना है और इसके वास्तविक मूल्य और महत्त्व को यथार्थवाद-विरोधी अभियान के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। लेकिन यह काम मेरे बस का नहीं, क्योंकि मैं कोई आलोचक नहीं हूँ। मैंने यह उपन्यास एक पाठक के रूप में पढ़ा है और यहाँ जो मैं लिख रहा हूँ, वह इस उपन्यास की आलोचना नहीं, केवल मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया है। लेकिन इस प्रश्न का उत्तर तो मुझे खोजना ही होगा कि मुझे यह अतिप्रसिद्ध उपन्यास क्यों एक साधारण-सा उपन्यास लगा? क्यों यह मुझे ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया?
मुझे लगता है कि यह उपन्यास यथार्थवाद-विरोधी रचना है। जिस समय यह लिखा गया था, सारी दुनिया का यथार्थ कई बुनियादी रूपों में बदल रहा था। मसलन, उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की विश्व-व्यवस्था एक नया रूप ले रही थी। पूँजीवाद एक नये चरण में प्रवेश कर चुका था। समाजवाद--चाहे वह जैसा भी था--अस्तित्व में आ चुका था और पूँजीवाद को चुनौती भी दे रहा था। उपनिवेशवाद का अंत हो रहा था, लेकिन साम्राज्यवाद--खास तौर से अमरीकी साम्राज्यवाद--पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया के रूप में तीसरी दुनिया में फैलकर एक नया रूप धारण कर रहा था। अमरीका उस समय एक समृद्ध और शक्तिशाली देश के रूप में अपने प्रभुत्व का विस्तार कर रहा था, पर शेष विश्व के साथ के अंतर्विरोधों के साथ-साथ उसे अपने आंतरिक अंतर्विरोधों का भी सामना करना पड़ रहा था। लेकिन इस उपन्यास में उस समय के इस यथार्थ को सामने लाने के बजाय दबाने, छिपाने, उसकी उपेक्षा करने या उसकी तरफ से पाठकों का ध्यान हटाने का काम किया गया है।
साहित्य में सामाजिक अंतर्विरोधों को दबाने और उनकी तरफ से लोगों का ध्यान हटाने का एक तरीका है नैतिक किस्म के मानसिक द्वंद्वों को प्रमुखता प्रदान करना और उन्हीं को सबसे अहम समस्याओं के रूप में प्रस्तुत करना। जिस समय 'The Catcher in the Rye' लिखा गया था, साहित्य में यथार्थवाद-विरोधी लोग ‘प्रामाणिकता’ पर बड़ा जोर दिया करते थे। पश्चिम की देखादेखी यह प्रवृत्ति हमारे साहित्य में भी आयी। उसी के चलते यहाँ ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ और ‘जिये-भोगे यथार्थ के चित्रण’ पर जोर देते हुए यथार्थवाद के विरुद्ध अनुभववाद को खड़ा किया गया।
'The Catcher in the Rye' में भी नैतिक किस्म का एक मानसिक द्वंद्व खड़ा किया गया है, जो इसके किशोर नायक की मनोदशा का चित्रण करते हुए 'phoney' और 'genuine' के द्वंद्व के रूप में उभारा गया है। उपन्यास के नायक को सारी दुनिया 'phoney' लगती है, जबकि वह एक 'genuine' जिंदगी जीना चाहता है। उपन्यास में 'phoney' शब्द इतनी बार आया है कि मानो यह उपन्यास की थीम बताने वाला key-word हो। लेकिन अपने लिखे जाने के समय यह उपन्यास और इसका नायक पाठकों और आलोचकों को चाहे जितने 'genuine' लगते हों, आज दोनों ही 'phoney' लगते हैं!
उदाहरण के लिए, उपन्यास का नायक अपनी छोटी बहन के द्वारा यह पूछे जाने पर कि वह क्या बनना चाहता है, कहता है:
"I keep picturing all these little kids playing some game in this big field of rye and all. Thousands of little kids, and nobody's around--nobody big, I mean--except me. And I'm standing on the edge of some crazy cliff. What I have to do, I have to catch everybody if they start to go over the cliff--I mean if they're running and they don't look where they're going I have to come out from somewhere and catch them. That's all I'd do all day. I'd just be the catcher in the rye and all. I know it's crazy, but that's the only thing I'd really like to be."
यही है इस उपन्यास की थीम। लेकिन यह जिस भावुकतापूर्ण आदर्शवाद को सामने लाती है, वह 1950 और 1960 के दशकों में साहित्य के पाठकों और आलोचकों को चाहे जितना 'genuine' लगता रहा हो, आज बिलकुल 'phoney' लगता है।
उपर्युक्त उद्धरण का सीधा संबंध उपन्यास के नामकरण से जुड़ता है। लेकिन राई के खेत की यह कल्पना लेखक की अपनी नहीं है। उसने स्वयं स्वीकार किया है कि यह शीर्षक रॉबर्ट बर्न्स की एक कविता की पंक्ति से लिया गया है। रॉबर्ट बर्न्स (1759-1796) अठारहवीं शताब्दी के कवि हैं, जो स्कॉटलैंड के महानतम कवि माने जाते हैं। उनकी कविता की पंक्ति है--"If a body meet a body comming through the Rye"। सेलिंगर ने 'meet' की जगह 'catch' कर दिया है और अपने उपन्यास के नायक को 'Catcher in the Rye' बना दिया है।
बहरहाल, मुझे उपन्यास पढ़ने के बाद रॉबर्ट बर्न्स की वह कविता पढ़ने की इच्छा हुई, जिसकी पंक्ति के आधार पर उपन्यास का नामकरण किया गया है। मैंने बहुत पहले इस कवि की कुछ कविताएँ 'The Golden Treasury of the Best Songs and Lyrical Poems in the English Language' में पढ़ी थीं। सौभाग्य से मेरे द्वारा 22 मई, 1961 के दिन खरीदी गयी यह पुस्तक आज भी मेरे पास है। मैंने उसे खोजकर उलटा-पलटा और उसमें संकलित रॉबर्ट बर्न्स की तमाम कविताएँ पढ़ डालीं। वह कविता तो मुझे नहीं मिली, जिसकी पंक्ति के आधार पर उपन्यास का नामकरण किया गया है, लेकिन उनमें से एक कविता में अपनी ये प्रिय पंक्तियाँ मुझे पुनः पढ़ने को मिल गयीं:
To see her is to love her,
And love but her for ever;
For nature made her what she is,
And never made anither!
मुझे लगता है कि महान साहित्यिक रचनाएँ ऐसी ही होती हैं या होनी चाहिए। यह नहीं कि अपने लिखे जाने के समय तो उनका बड़ा शोर हो और कालान्तर में उनकी प्रशंसाएं बढ़ा-चढ़ाकर की गयी लगने लगें।
--रमेश उपाध्याय
बहुत सही समीक्षा..कैचर इन दि राइ के अनछुए पहलुओं को आपने इस लेख मे पकड़ा है..
ReplyDeleteरमेश जी आपकी यह टिप्पणी पढ़कर मेरा मन भी इस उपन्यास को पढ़ने की सोचने लगा है। क्या यह हिन्दी में उपलब्ध है? अगर नहीं तो आप ही इसे अनुवाद करके कथन में या यहीं ब्लाग में धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करिए न। या कम से कम कुछ अंश जो आपको आज के समय के लिए महत्वपूर्ण लगते हों।
ReplyDeleteमुझे लगता है कि यह उपन्यास यथार्थवाद-विरोधी रचना है।
ReplyDelete______
शायद यह उप्न्यास इसी लिये आपको पसन्द नहीनं आया। बेहतरीन आलेख।
आज दिनांक 15 जुलाई 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट बहुत शोर था शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं।
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