Tuesday, June 1, 2010

डायरी का एक पन्ना (24 मई, 2010)


‘आलोचना’ में अरुण कमल का संपादकीय

सब कुछ न तो पूरी तरह नष्ट होता है, न पूरी तरह बदलता है। बहुत-सी अच्छी चीजें नष्ट या विकृत हो रही हैं, फिर भी उनमें से कुछ बच रही हैं और पहले से बेहतर नयी चीजों को जन्म दे रही हैं। उन्हीं में जीवन है, उन्हीं में आशा।

आज 'आलोचना' का अप्रैल-जून, 2010 का अंक मिला। इस अंक का संपादकीय बहुत ही अच्छा लगा। अरुण कमल ने अपने संपादकीय में लिखा है:

‘‘प्रचलित पत्र-पत्रिकाओं को देखने से लगता है कि हिंदी का साहित्यकार केवल पुरस्कारों-सम्मानों को लेकर चिंतित है। ...भंगुर प्रसिद्धि या पद या पैसा किसी भी साहित्य या साहित्यकार का इष्ट नहीं होता। फिर भी इसी को लेकर उद्वेग दिखलाता है कि हमारी आलोचना अपना काम ठीक से नहीं कर रही है। यह भी कि बतौर लेखक शायद हमारी चिंताएँ कुछ बदल गयी हैं। दिलचस्प यह है कि सत्ता से सारे लाभ प्राप्त करने वाले, स्वयं सत्ता केंद्रों पर काबिज लोग और साहित्य को दुहकर अपनी बाल्टी भरने वाले सबसे ज्यादा उद्विग्न दिखते हैं। क्या हम सत्ता-विमुख, सत्ता-निरपेक्ष नहीं रह सकते, यदि सत्ता-विरोधी न हो सकें तो? यहाँ सत्ता का अर्थ केवल सरकार नहीं, बल्कि धन या बाजार भी है। ऐसे समय में जब देश की आधी आबादी भूखे सोती हो, जहाँ लगातार बढ़ती छँटनी और बेरोजगारी हो, सत्ता-पोषित-संचालित बेदखली हो और हर तरह के लोकतांत्रिक प्रतिरोध का हिंस्र दमन हो--उस समय बतौर लेखक हमारी मुख्य चिंता क्या हो? हाल के दिनों में मेरे जानते इन मुद्दों पर न तो लेखकों ने कोई सामूहिक विचार-विमर्श किया, न प्रदर्शन, न विरोध। वामपंथी लेखक संगठनों ने भी कोई तत्परता न दिखायी।...हमारा औसत हिंदी लेखक आज पहले से कहीं ज्यादा सुखी-संपन्न है। लेकिन उसकी आत्मा में घुन लग गया है। कभी-कभी तो इच्छा होती है, पूछा जाये, पार्टनर तुम्हारी संपत्ति कितनी है, तुम भी घोषणा करो। यह ठीक है कि इसके आधार पर मूल्य-निर्णय न हुए हैं न होंगे न होने चाहिए, लेकिन इससे पाखंड और फरेब का तो पता चलेगा। जो साहित्य को भी जन और जीवन के पक्ष में मोड़ना चाहते हैं, उनका पक्ष तो मजबूत होगा। और इस तरह हम वापिस साहित्य के वास्तविक प्रश्नों की ओर लौट सकेंगे।’’

इस संपादकीय में लेखकों के मूल्यांकन के बारे में भी बहुत अच्छी बात कही गयी है:

‘‘कोई लेखक अच्छा है या बुरा, महत्त्वपूर्ण है या महत्त्वहीन, इसका निर्णय न तो हाथ उठाकर होगा न प्रस्ताव पारित करके। इसका निर्णय कभी अंतिम भी नहीं होगा। यह हमेशा एक तदर्थ, औपबंधिक निर्णय होगा। लगातार पिटते, मार खाते, बहिष्कृत होते और लहूलुहान होकर ही कोई यहाँ टिकता है। वे सारी लड़ाइयाँ, जो जीवन और समाज में लड़ी जाती हैं, वे एक बार फिर हर श्रेष्ठ रचना में और हर श्रेष्ठ आलोचना में भी लड़ी जाती हैं। और यह लड़ाई हजारों साल तक चलती रहती है। ऐसी स्थिति में सार्वजनिक प्रतिष्ठा यानी पुरस्कार या सम्मान संध्या के युद्ध-विराम से अधिक नहीं। बेहतर हो कि हम ‘हिंस्र पशुओं भरी’ शर्वरी से जूझें और कल के संग्राम की रणनीति तय करें। साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध यह संग्राम हमारी महान साहित्य-परंपरा का ही प्रसाद है। हम शहीद हों तो इसी मोर्चे पर।’’

साधुवाद, भाई अरुण कमल, इतने अच्छे संपादकीय के लिए!

--रमेश उपाध्याय


4 comments:

  1. कुडि़यों से चिकने आपके गाल लाल हैं सर और भोली आपकी मूरत है http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/06/blog-post.html जूनियर ब्‍लोगर ऐसोसिएशन को बनने से पहले ही सेलीब्रेट करने की खुशी में नीशू तिवारी सर के दाहिने हाथ मिथिलेश दुबे सर को समर्पित कविता का आनंद लीजिए।

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  2. aaj ke be-dil samay me is bevaaki ke saath lekhak aur rachnashilta ke khilaaf pahad ki tarah khade hue satta aur punji ke haad maans se nirmit shatru ki or ungli utha kar lekhakiya biraadri ko sachet karne ke liye arun kamal ji ka aabhaar...aur ramesh bhai,is tippani se hamne parichit karvane ke liye aapka bhi shukriya...
    yadvendra

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  3. मै आपसे सहमत हूं कि पुरस्कारों,सम्मानो,पैसे,पद और यात्राओं के उत्कोच ने हिन्दी के अधिकांश लेखकों से उनकी आग़ छिन ली है…

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  4. हमारा औसत हिंदी लेखक आज पहले से कहीं ज्यादा सुखी-संपन्न है। लेकिन उसकी आत्मा में घुन लग गया है। कभी-कभी तो इच्छा होती है, पूछा जाये, पार्टनर तुम्हारी संपत्ति कितनी है, तुम भी घोषणा करो। यह ठीक है कि इसके आधार पर मूल्य-निर्णय न हुए हैं न होंगे न होने चाहिए, लेकिन इससे पाखंड और फरेब का तो पता चलेगा। जो साहित्य को भी जन और जीवन के पक्ष में मोड़ना चाहते हैं, उनका पक्ष तो मजबूत होगा। और इस तरह हम वापिस साहित्य के वास्तविक प्रश्नों की ओर लौट सकेंगे।’’

    सही सवाल है ---

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