Tuesday, July 6, 2010

नए-पुराने की निरर्थक बहस पर

लेखकों के मुंह में चांदी की चम्मच!?

हिंदी साहित्य में एक नयी पीढ़ी को ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर श्री रवींद्र कालिया ने ‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2010 के संपादकीय में लिखा है कि ‘‘आज की युवा पीढ़ी उन खुशकिस्मत पीढ़ियों में है, जिन्हें मुँह में चाँदी का चम्मच थामे पैदा होने का अवसर मिलता है।’’

यह वाक्य एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी अनुवाद करके बनाया गया है--‘‘born with a silver spoon in one's mouth", जिसका अर्थ होता है "born to affluence", यानी वह, जो किसी धनाढ्य के यहाँ पैदा हुआ हो।

इस पर अंग्रेजी के ही एक और मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि कालिया जी के इन शब्दों से ‘‘बिल्ली बस्ते से बाहर आ गयी है’’! भावार्थ यह कि कालिया जी ने अपने द्वारा हिंदी साहित्य में लायी गयी नयी पीढ़ी का वर्ग-चरित्र स्वयं ही बता दिया है!

वैसे यह कोई रहस्य नहीं था कि सेठों के संस्थानों से निकलने वाली पत्रिकाओं से (पहले भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका ‘वागर्थ’ से और फिर भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ से) पैदा हुई नयी पीढ़ी ही नयी पीढ़ी के रूप में क्यों और कैसे प्रतिष्ठित हुई! अन्यथा उसी समय में ‘परिकथा’ जैसी कई और पत्रिकाएँ ‘नवलेखन’ पर अंक निकालकर जिस नयी पीढ़ी को सामने लायीं, उसके लेखक इतने खुशकिस्मत क्यों न निकले? जाहिर है, वे ‘लघु’ पत्रिकाएँ थीं और ‘वागर्थ’ तथा ‘नया ज्ञानोदय’ तथाकथित ‘बड़ी’ पत्रिकाएँ! और ‘नया ज्ञानोदय’ तो भारतीय ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान की ही पत्रिका थी, जिसका संपादक उस प्रकाशन संस्थान का निदेशक होने के नाते अपने द्वारा सामने लायी गयी पीढ़ी के मुँह में चाँदी का चम्मच दे सकता था!

अतः बहस नयी-पुरानी पीढ़ी के बजाय लेखकों और संपादकों के वर्ग-चरित्र पर होनी चाहिए।

--रमेश उपाध्याय

5 comments:

  1. mere man ki baat kahi hai aapnee. dhanyavaad. bilkul,ab toh बहस नयी-पुरानी पीढ़ी के बजाय लेखकों और संपादकों के वर्ग-चरित्र पर hi होनी चाहिए।

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  2. इस अहो रूपम-अहो स्वरम के दौर में आपने सही नब्ज़ पकड़ी…पहले भी कथन के संपादकीय में जो नयी रचनाशीलता की बात कही गयी थी, वह बेहद महत्वपूर्ण थी…पर उसे एवायड किया गया…

    यह वस्तुतः पतित कलावाद का उभार है…

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  3. युवा पीढ़ी खुद अजीब स्थिति में है। असहमति या आत्मीय आलोचनात्मक रिश्ते से तो बिदकती है पर ऐसी कालियाना बेहूदा `तारीफ` पर खुश होती है। यही है समय का फर्क, राजनीित का फर्क।

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  4. कालिया जी का मतलब शायद यह रहा हो कि युवा वे हैं जिन्हें वे युवा मान रहे हैं। शेष युवा पीढ़ी खुशकिस्मत नहीं है क्योंकि उन्हें उनका कृपा-प्रसाद नहीं मिला। ‘नया ज्ञानोदय’ का हाल तो यह है कि वहाँ विशेषांकों के नाम पर संकलन मात्र हो रहा है यानी अपने प्रकाशन की पुस्तकों एवं उनके लेखकों का प्रचार। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि यदि कोई युवा बिना उनका सर्टिफिकेट लिए अपनी रचना भेजता भी है तो उसे जवाब मिले कि ‘प्रकाशन के लिए रचनाएँ हम स्वयं आमंत्रित करते हैं। भेजी गयी रचनाओं पर हम विचार नहीं करते।’

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