Monday, November 29, 2010

कहानी में भूमंडलीय यथार्थ ऐसे भी आ सकता है!

मनोज रूपड़ा को मैंने ज्यादा नहीं पढ़ा है। उसकी कुछ ही कहानियाँ पढ़ी हैं और उनमें से एक ही मुझे याद रह गयी है--‘साज-नासाज’। मैं इस कहानीकार को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। कभी पत्र या फोन से भी संवाद नहीं हुआ। उसने मुझे पढ़ा है या नहीं, मुझे नहीं मालूम। लेकिन इससे क्या? जिस लेखक की कोई कहानी मुझे पसंद आ जाती है और याद रह जाती है, उसकी नयी कहानी सामने आ जाये, तो मैं जरूर पढ़ लेता हूँ, चाहे पढ़कर निराश ही क्यों न होना पड़े। सो मनोज रूपड़ा की नयी कहानी ‘आमाजगाह’ देखी, तो लंबी होने के बावजूद मैं उसे पढ़ गया।

आजकल हिंदी कहानियों के शीर्षक अक्सर अंग्रेजी या अरबी-फारसी के शब्दों से बनाये जाने लगे हैं। इसका गुनाहगार मैं खुद भी हूँ। मैंने भी अपनी कई कहानियों के नामकरण इसी तरह किये हैं। मसलन, ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्राइवेट पब्लिक’ या ‘त्रासदी...माइ फुट!’ इसी तरह लक्ष्मी शर्मा ने अपनी एक कहानी का शीर्षक अरबी में रखा ‘खते मुतवाजी’, जिसका अर्थ होता है समानांतर रेखा और मनोज रूपड़ा ने अपनी नयी कहानी का शीर्षक फारसी में रखा है ‘आमाजगाह’, जिसका अर्थ है लक्ष्यस्थान या गंतव्य। मैं अरबी-फारसी नहीं जानता, अतः इन दोनों कहानियों को पढ़ने से पहले मुझे इनके शीर्षकों के अर्थ शब्दकोश में देखने पड़े। ‘आमाजगाह’ का अर्थ देखते समय मुझे यह शे’र भी पढ़ने को मिला:

किस्मत मेरे सिवा तुझे कोई मिला नहीं
आमाजगाहे-जौर बनाया किया मुझे।

खैर, मैं कहानी पढ़ गया। लंबी है, लेकिन उबाऊ नहीं। मनोज रूपड़ा पर शायद हिंदी फिल्मों का काफी असर है कि उसकी कहानियाँ सीन-दर-सीन कुछ इस तरह लिखी हुई होती हैं कि चाहे तो कोई आसानी से पटकथा लिखकर फिल्म बना ले। और इस कहानी में तो मुंबई और अरब सागर, इलाहाबाद और गंगा-यमुना का संगम तथा उदयपुर और थार का रेगिस्तान बड़े भव्य और प्रभावशाली फिल्मी दृश्यों के रूप में चित्रित किये गये हैं। खास तौर से रेगिस्तान के दृश्य।

कहानी एक संगीतकार की है, बल्कि दो संगीतकारों की, जिनमें से एक पुरुष है, जो अपनी कहानी कह रहा है और दूसरी एक स्त्री, जिसका नाम जेसिका कोहली उर्फ जिप्सी कैट है और जो ‘‘सिक्ख बाप और कैनेडियन माँ की औलाद’’ है। कैट अंतररष्ट्रीय रूप से प्रसिद्ध एक शो-डिजायनर है और ‘मैं’ उसकी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अनुबंधित एक म्यूजिक कंपोजर। (मनोज रूपड़ा को संगीत की अच्छी जानकारी है, जो उसकी कहानी ‘साज-नासाज’ में भी दिखी थी।) लेकिन वर्तमान के इन दोनों पात्रों के माध्यम से एक पुरानी दरबारी गायिका अस्मत जाँ और उसके साथ संगत करने वाले सारंगीवादक काले खाँ की कहानी कही गयी है।

कहानी की संरचना कुछ इस तरह की है कि पाठक उसकी हिंदी-उर्दू या संस्कृत-फारसी मिश्रित भाषा के चमत्कार में उलझ जाये या फिल्मों जैसी दृश्यावली में खो जाये और इसे यथार्थवादी कहानी की जगह एक कल्पना या फैंटेसी की रचना मान ले। मैं भी इसे पढ़ते समय ऐसा ही कुछ मानकर चल रहा था, मगर कहानी का यह हिस्सा पढ़कर मैं चकित रह गया:

‘‘मैं कड़ी धूप, थकान और अपनी खराब तबियत के बावजूद बहुत मुस्तैदी से चलता रहा। मुझे लगा, अब मैं उस ‘चीज’ को अच्छी तरह समझने लगा हूँ, जिसे दुनिया की कोई पद्धति मुझे समझा नहीं सकी। जैसे-जैसे मेरे कदम आगे बढ़ते जा रहे हैं, मैं उतना ही भारहीन और स्फूर्त होता जा रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि ऐसा सिर्फ मेरे साथ हो रहा है या उन सबके साथ भी हुआ होगा, जो वैश्वीकरण के हाथों मार दिये जाने के बाद दुबारा जन्म लेते हैं।’’

यहाँ से मुझे कहानी को समझने का एक नया सूत्र हाथ लगा और मैंने कहानी को फिर से नये सिरे से पढ़ा और पाया कि यह तो बाकायदा भूमंडलीय यथार्थवादी कहानी है, जिसमें वर्तमान को इतिहास में और ‘लोकल’ को ‘ग्लोबल’ में बड़े ही कलात्मक और अर्थपूर्ण रूप में गूँथा गया है!

--रमेश उपाध्याय

7 comments:

  1. ... saarthak va saargarbhit abhivyakti !!!

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  2. pranam !
    prerna padan karta hai ye aalekh , sunder .
    sadhuwad

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  3. भूमण्डलीय परिवेश में कहानी का निष्कर्ष भी वही होगा, रोचक लग रही है, पढ़ना पड़ेगा।

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  4. यह कहानी कहाँ आई है…आपने पढ़ने की इच्छा जगा दी

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  5. किसी कथाकार के हमारी बेतरतीब स्मृति मे स्थायी रूप से टिके रह जाने के लिये एक कहानी ही काफ़ी होती है..मनोज रूपड़ा साब की ’साज-नासाज’ ऐसी ही कहानी है..जो कई साल पहले हंस मे कहीं पढ़ने के बावजूद दिमाग के किसी कोने की जंग खई खूँटी मे अभी भी सलीके से टंगी हुई है..ऐसे लेखक की नई कहानी के बारे मे सुन कर उत्सुक होना स्वाभाविक ही है..सो स्रोत जानने की इच्छा जागती है..

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  6. यह कहानी ‘नया ज्ञानोदय’ के नवंबर, 2010 अंक में आयी है।

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  7. यह कहानी मैं भी पढूंगा।

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