Wednesday, December 8, 2010
कथाकार इसराइल और उनकी कहानी ‘फर्क’
मुंबई से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘नवनीत’ का नये साल 2011 का पहला अंक ‘मील के पत्थर’ नामक योजना के तहत हिंदी कथा यात्रा की आधी सदी के मोड़ों का आकलन होगा। इसमें चर्चित कथाकारों द्वारा चुनी गयी ऐसी कहानियाँ प्रकाशित की जायेंगी, जो मील का पत्थर सिद्ध हुईं और यह भी बताया जायेगा कि क्यों हैं ये मील का पत्थर।
‘नवनीत’ के संपादक विश्वनाथ सचदेव मेरे पुराने मित्र हैं। जब उन्होंने मुझसे कहा कि मैं ऐसी किस मील पत्थर कहानी पर लिखना चाहूँगा, तो मैंने कहा--इसराइल की कहानी ‘फर्क’ पर। विश्वनाथ ने सहर्ष मेरे प्रस्ताव को स्वीकार किया और ‘फर्क’ पर टिप्पणी लिखने के साथ-साथ इसराइल का फोटो और परिचय भी भेजने को कहा। टिप्पणी के साथ परिचय तो मैंने आसानी से लिख दिया, लेकिन इसराइल का फोटो मेरे पास नहीं था। और उसे प्राप्त करना एक ऐसी समस्या बन गया कि उसे हल करने के लिए मैंने दिल्ली से लेकर कोलकाता तक के अपने कई मित्रों को परेशान कर डाला। फिर भी जब यह समस्या हल न हुई, तो मैंने अपनी पुरानी तस्वीरों के जखीरे को खँगाला और एक ग्रुप फोटो में इसराइल को ढूँढ़ निकाला। वह फोटो यह है, जिसमें भैरवप्रसाद गुप्त, अमरकांत, मार्कंडेय, इसराइल, दूधनाथ सिंह, विमल वर्मा, सतीश जमाली, आनंद प्रकाश आदि के साथ मैं भी हूँ।
इसराइल का जन्म बिहार के एक गाँव (महम्मदपुर, जिला छपरा) में हुआ था, इसलिए किसानों और खेतिहर मजदूरों के जीवन का यथार्थ तो उनका खूब जाना-पहचाना था ही, बाद में उनके जीवन का अधिकांश महानगर कलकत्ता में मजदूरी करते और फिर मजदूर वर्ग की राजनीति में सक्रिय रहते बीता। वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कुलवक्ती कार्यकर्ता, उसके मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ में काम करने वाले पत्रकार और जनवादी लेखक संघ के संस्थापक तथा सम्मानित सदस्य रहे। इस प्रकार वे सही मायनों में सर्वहारा वर्ग के लेखक थे। उन्होंने कम लिखा (उनकी कुल तीन ही पुस्तकें हैं--दो कहानी संग्रह ‘फर्क’ और ‘रोजनामचा’ तथा एक उपन्यास ‘रोशन’), लेकिन अच्छा लिखा।
अपने पहले कहानी संग्रह ‘फर्क’ (1978) की भूमिका में उन्होंने लिखा--‘‘एक मार्क्सवादी के रूप में मेरे कलाकार ने सीखा है कि सिर्फ वही सच नहीं है, जो सामने है, बल्कि वह भी सच है, जो कहीं दूर अनागत की कोख में जन्म लेने के लिए कसमसा रहा है। उस अनागत सच तक पहुँचने की प्रक्रिया को तीव्र करने के संघर्ष को समर्पित मेरे कलाकार की चेतना अगर तीसरी आँख की तरह अपने पात्रों में उपस्थित नजर आती हो, तो यह मेरी सफलता है। दूसरे इसे जो भी समझें।’’
इसराइल के कथा-लेखन में उनकी यह ‘तीसरी आँख’ ही उन्हें अपने समकालीन कथाकारों से भिन्न और विशिष्ट बनाती है।
1970 के आसपास जब इसराइल की कहानी ‘फर्क’ प्रकाशित हुई थी, मैं ‘सारिका’ में ‘परिक्रमा’ नामक स्तंभ लिखा करता था। उसमें मैं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों की चर्चा किया करता था। सबसे पहले मैंने ही ‘फर्क’ की ओर पाठकों का ध्यान खींचा था। उसके बाद, मेरी टिप्पणी का हवाला देते हुए, आरा (बिहार) से निकलने वाली पत्रिका ‘वाम’ के संपादक चंद्रभूषण तिवारी ने ‘फर्क’ पर पूरा संपादकीय लिखा और इस कहानी की धूम मच गयी। इसराइल का पहला कहानी संग्रह ‘फर्क’ नाम से ही छपा और अब यह हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों में गिनी जाती है। ‘श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ: 1970-80’ नामक संकलन में इसे ‘‘हिंदी की एक मील पत्थर कहानी’’ बताते हुए संकलन के संपादक स्वयं प्रकाश ने इस कहानी और इसके लेखक इसराइल के बारे में लिखा है :
‘‘इसराइल जीवन भर श्रमिक आंदोलन से जुड़े रहे, इसलिए वे अपने जीवनानुभव को बहुत आसानी, कुशलता और प्रामाणिकता के साथ कहानी में विन्यस्त कर सकते थे। उन्होंने ऐसा किया भी, और इसीलिए उनके विवरणों में चंचल आक्रोश या चपल उत्तेजना नहीं, एक प्रौढ़ ठंडापन दिखायी देता है। लेकिन ‘फर्क’ में वे एक महान रचनाकार की तरह भारत में भूमि सुधार न हो पाने और सामंतवाद के लगभग सही-सलामत बचे रह जाने के गहरे कारणों की ओर इशारा करते हैं। वे कृषि क्रांति के बरक्स सर्वोदय को रखकर दिखाते हैं और प्रसंगवश इसी में हिंसा-अहिंसा का प्रश्न उठ खड़ा होता है। सर्वोदय-भूदान-ग्रामदान आदि का पूरा अभियान सामंतों की उपजाऊ जमीनों को छिनने से बचाने का एक सत्तापोषित उपक्रम था। यह वह जमाना था, जब ‘कम्युनिस्ट’ एक गाली थी और कम्युनिस्टों से तर्क करने के बजाय उन्हें सिर्फ एक शब्द ‘हिंसा’ की लाठी से पीटकर एरीना से बाहर कर दिया जाता था। इस शानदार और यादगार कहानी को लिखते समय शायद इसराइल को भी अंदाजा नहीं होगा कि सर्वोदय को श्रमिकों के कटघरे में खड़ा करके दरअसल वे गांधीवादी अर्थशास्त्र का मर्सिया लिख रहे हैं।’’
यहाँ ‘फर्क’ के विस्तृत समीक्षात्मक विश्लेषण का अवकाश नहीं है, अतः मैं अत्यंत संक्षेप में केवल तीन तथ्यों की ओर संकेत करना चाहता हूँ, जिन्होंने इसे हिंदी कहानी की विकास-यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने वाली कहानी बनाया।
एक : इस कहानी की चर्चा और प्रतिष्ठा से पहले हिंदी कहानी में ‘अकहानी’ की वह प्रवृत्ति हावी थी, जिसमें तत्कालीन सामाजिक यथार्थ की तथा हिंदी कहानी की यथार्थवादी परंपरा की उपेक्षा करते हुए ऊलजलूल किस्म की कहानियाँ लिखी जा रही थीं। ‘फर्क’ ने सामाजिक यथार्थ के सशक्त चित्रण से प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को पुनः प्रतिष्ठित किया और किसानों-मजदूरों के संघर्ष को कहानी के केंद्र में रखा।
दो : ‘अकहानी’ के दौर में हिंदी कहानी सामाजिक यथार्थ से तथा यथार्थवादी चित्रण से इतनी दूर जा चुकी थी कि उस दौर की ज्यादातर कहानियाँ ऊलजलूल ढंग से लिखी जाती थीं, जिनका कोई सिर-पैर समझना अक्सर मुश्किल होता था। कहानी में कोई सुसंबद्ध और तर्कसंगत घटनाक्रम नहीं होता था और जीते-जागते वास्तविक मनुष्यों जैसे चरित्रों की जगह हवाई किस्म के नाम-रूपहीन पात्र होते थे, जिन्हें केवल ‘मैं’ या ‘वह’ कहा जाता था। ऐसे निष्क्रिय और निर्जीव पात्रों की निरुद्देश्य और निरर्थक कहानियों के दौर में इसराइल की कहानी ‘फर्क’ ने एक ऐसा सर्जनात्मक हस्तक्षेप किया कि कहानियों में जीते-जागते, हाड़-मांस वाले, अपने नाम और काम से पहचाने जाने वाले सशक्त और संघर्षशील चरित्र (‘पात्र’ नहीं, ‘चरित्र’) आने लगे। ‘फर्क’ से पहले की बहुत-सी कहानियों का आदमी ‘सपाट चेहरे वाला आदमी’ था, जबकि इसके बाद की कई कहानियों के शीर्षक अपने चरित्रों के नामों पर रखे गये, जैसे ‘सुधीर घोषाल’ (काशीनाथ सिंह), ‘देवीसिंह कौन?’ (रमेश उपाध्याय), ‘बलैत माखुन भगत’ (विजयकांत) इत्यादि।
तीन : ‘अकहानी’ के दौर में हिंदी कहानी मुख्य रूप से महानगरीय मध्यवर्गीय जीवन की कहानी बनकर रह गयी थी, लेकिन ‘फर्क’ की चर्चा और प्रतिष्ठा के बाद हिंदी कहानी में गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों के लोगों के--मुख्य रूप से किसानों और मजदूरों के--जीवन तथा संघर्ष की कहानियाँ लिखी जाने लगीं, जिनसे हिंदी में जनवादी कहानी के आंदोलन की शुरूआत हुई।
--रमेश उपाध्याय
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यह दुर्भाग्य ही है सर कि हमारी पीढ़ी इसराईल के बारे में कितना कम जानती है. ( कम से कम मैं अपने बारे में तो यही कहूंगा.. आपने यह लेख लिखकर बहुत बड़ा काम किया है...आपका आभार...आगर हो सके तो इसराइल की वो कहानी भी यहां दें ताकि हम लोग पढ़ सकें... आपके ब्लॉग पर पहली बार आया...बहुत अच्छा लगा...अब आता रहूंगा...मैने अनुसरण भी कर लिया है...
ReplyDeleteमेरा भी एक ब्वॉग है
http://bimleshtripathi.blogspot.com
एक संवेदनशील कथाकार से परिचय कराने का बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteइसराइल की यह कहानी ‘नवनीत’ के जनवरी, 2011 के अंक में आ रही है। वहाँ पढ़ लें।
ReplyDeleteजिस तरह से एक कथाकार के बारे में परिचय आपसे मिला इस तरह से कहीं से नहीं मिलता। आभार आपका ।
ReplyDeleteइसराईल की इस कहानी को सामने लाने के लिए बहुत बधाई और धन्यवाद . आपने सही लिखा है कि अकहानी के दौर में 'मैं'और
ReplyDelete'वह' को कथानायक बनाकर ऊलजलूल कहानियां लिखी गयीं . मैंने खुद भी कुछेक ऐसी ही कहानियां लिखीं . तब 18 - 20 साल की उम्र में कहानी की कोई समझ तो थी नहीं . समय के बहाव में सब एक सा लिख रहे थे . पर यह दौर ज्यादा दिन नहीं चला . मैंने भी बहुत जल्दी इससे निजात पा ली , जब 1970 में मेरी लम्बी कहानी 'बलवा' का धर्मयुग में धारावाहिक प्रकाशन हुआ था , उसके साथ ही मेरी कहानियों में 'मैं' और 'वह' गायब हो गया .
रमेश भाई , आपने बहुत मार्के की बात कही है , उस वक़्त की प्रवृत्ति को सही पकड़ा है .
- सुधा अरोड़ा
सुधाजी, आपको इसराइल की कहानी पर लिखी मेरी बातें पसंद आयीं, यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। आभार।
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