जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा गुलशन बानो का संदेश आया कि वहाँ के शोध छात्र एक योजना के तहत ‘‘जब मैंने पहली बार प्रेमचंद को पढ़ा’’ विषय पर प्रतिष्ठित विद्वानों, लेखकों और आलोचकों के लेखों का एक संग्रह प्रकाशित करना चाहते हैं। उन्होंने लिखा--‘‘आलोचना और संस्मरण के इस समन्वित प्रयास के माध्यम से हम यह भी जानना चाहते हैं कि प्रेमचंद के साहित्य ने आपके व्यक्तित्व को किस तरह प्रभावित किया।’’ इसके उत्तर में मैंने यह लिखा :
1953 की बात है। मैं उत्तर प्रदेश के एटा जिले की तहसील कासगंज के एक हाई स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ता था। पढ़ता क्या था, छठी पास करने के बाद सातवीं में आया ही था। जुलाई का महीना था। गरमी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुल गया था। मेरे लिए नयी कक्षा की किताबें आ गयी थीं। नयी छपी हुई किताबों की गंध, जो पता नहीं, नये कागज की होती थी या उस पर की गयी छपाई में इस्तेमाल हुई सियाही की, या जिल्दसाजी में लगी चीजों की, या बरसात के मौसम में कागज में आयी हल्की-सी सीलन की, मुझे बहुत अच्छी लगती थी। ज्यों ही मेरे लिए नयी किताबें आतीं, मैं सबसे पहले अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक पढ़ डालता। सो एक दिन स्कूल से लौटकर मैं अपनी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक पढ़ रहा था, जिसमें एक पाठ था ‘बड़े भाई साहब‘। पुस्तक में अवश्य ही लिखा रहा होगा कि यह कहानी है और इसके लेखक हैं प्रेमचंद। लेकिन इस सबसे मुझे क्या! मैं तो ‘बड़े भाई साहब’ शीर्षक देखकर ही उसे पढ़ने लगा।
उसमें बड़े भाई साहब के बारे में मैंने पढ़ा :
‘‘वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुंदर अक्षरों से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी--स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक--इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था।...’’
पढ़ते-पढ़ते मुझे इतनी जोर की हँसी छूटी कि रोके न रुके। घर के लोगों ने मेरी हँसी की आवाज सुनकर देखा कि मैं अकेला बैठा हँस रहा हूँ, तो उन्होंने कारण पूछा और मैं बता नहीं पाया। मैंने खुली हुई किताब उनके आगे कर दी और उँगली रखकर बताया कि जिस चीज को पढ़कर मैं हँस रहा हूँ, उसे वे भी पढ़ लें। उन्होंने भी पढ़ा और वे भी हँसे, हालाँकि मेरी तरह नहीं।
बाद में, न जाने कब, मुझे पता चला कि ‘बड़े भाई साहब’ कहानी थी और वह प्रेमचंद की लिखी हुई थी। और उसके बाद तो मैं कहानियाँ और खास तौर से प्रेमचंद की कहानियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़ने लगा। लेकिन प्रेमचंद की यह कहानी मुझे हमेशा के लिए अपनी एक मनपंसद कहानी के रूप में याद रह गयी। बाद में मैंने इसे कई बार पढ़ा है, पढ़ाया भी है, लेकिन आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर मुझे हँसी आ जाती है।
मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का असर था या कुछ और, लेकिन मेरे साथ यह जरूर हुआ कि मैंने अपनी पढ़ाई को कभी उस कहानी के बड़े भाई साहब की तरह गंभीरता से नहीं लिया। हमेशा खेलता-कूदता रहा और अच्छे नंबरों से पास भी होता रहा। हो सकता है, यह उस कहानी का ही असर हो कि बाद में जब मैं लेखक बना, तो हल्का-सा यह अहसास मेरे मन में हमेशा रहा कि रचना पाठक को प्रभावित करती है--वह कभी उसे हँसाती है, कभी रुलाती है, कभी गुस्सा दिलाती है, कभी विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला बँधाती है और लड़ाई में जीतने की उम्मीद भी जगाती है।
--रमेश उपाध्याय
Monday, December 20, 2010
Wednesday, December 8, 2010
कथाकार इसराइल और उनकी कहानी ‘फर्क’
मुंबई से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘नवनीत’ का नये साल 2011 का पहला अंक ‘मील के पत्थर’ नामक योजना के तहत हिंदी कथा यात्रा की आधी सदी के मोड़ों का आकलन होगा। इसमें चर्चित कथाकारों द्वारा चुनी गयी ऐसी कहानियाँ प्रकाशित की जायेंगी, जो मील का पत्थर सिद्ध हुईं और यह भी बताया जायेगा कि क्यों हैं ये मील का पत्थर।
‘नवनीत’ के संपादक विश्वनाथ सचदेव मेरे पुराने मित्र हैं। जब उन्होंने मुझसे कहा कि मैं ऐसी किस मील पत्थर कहानी पर लिखना चाहूँगा, तो मैंने कहा--इसराइल की कहानी ‘फर्क’ पर। विश्वनाथ ने सहर्ष मेरे प्रस्ताव को स्वीकार किया और ‘फर्क’ पर टिप्पणी लिखने के साथ-साथ इसराइल का फोटो और परिचय भी भेजने को कहा। टिप्पणी के साथ परिचय तो मैंने आसानी से लिख दिया, लेकिन इसराइल का फोटो मेरे पास नहीं था। और उसे प्राप्त करना एक ऐसी समस्या बन गया कि उसे हल करने के लिए मैंने दिल्ली से लेकर कोलकाता तक के अपने कई मित्रों को परेशान कर डाला। फिर भी जब यह समस्या हल न हुई, तो मैंने अपनी पुरानी तस्वीरों के जखीरे को खँगाला और एक ग्रुप फोटो में इसराइल को ढूँढ़ निकाला। वह फोटो यह है, जिसमें भैरवप्रसाद गुप्त, अमरकांत, मार्कंडेय, इसराइल, दूधनाथ सिंह, विमल वर्मा, सतीश जमाली, आनंद प्रकाश आदि के साथ मैं भी हूँ।
इसराइल का जन्म बिहार के एक गाँव (महम्मदपुर, जिला छपरा) में हुआ था, इसलिए किसानों और खेतिहर मजदूरों के जीवन का यथार्थ तो उनका खूब जाना-पहचाना था ही, बाद में उनके जीवन का अधिकांश महानगर कलकत्ता में मजदूरी करते और फिर मजदूर वर्ग की राजनीति में सक्रिय रहते बीता। वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कुलवक्ती कार्यकर्ता, उसके मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ में काम करने वाले पत्रकार और जनवादी लेखक संघ के संस्थापक तथा सम्मानित सदस्य रहे। इस प्रकार वे सही मायनों में सर्वहारा वर्ग के लेखक थे। उन्होंने कम लिखा (उनकी कुल तीन ही पुस्तकें हैं--दो कहानी संग्रह ‘फर्क’ और ‘रोजनामचा’ तथा एक उपन्यास ‘रोशन’), लेकिन अच्छा लिखा।
अपने पहले कहानी संग्रह ‘फर्क’ (1978) की भूमिका में उन्होंने लिखा--‘‘एक मार्क्सवादी के रूप में मेरे कलाकार ने सीखा है कि सिर्फ वही सच नहीं है, जो सामने है, बल्कि वह भी सच है, जो कहीं दूर अनागत की कोख में जन्म लेने के लिए कसमसा रहा है। उस अनागत सच तक पहुँचने की प्रक्रिया को तीव्र करने के संघर्ष को समर्पित मेरे कलाकार की चेतना अगर तीसरी आँख की तरह अपने पात्रों में उपस्थित नजर आती हो, तो यह मेरी सफलता है। दूसरे इसे जो भी समझें।’’
इसराइल के कथा-लेखन में उनकी यह ‘तीसरी आँख’ ही उन्हें अपने समकालीन कथाकारों से भिन्न और विशिष्ट बनाती है।
1970 के आसपास जब इसराइल की कहानी ‘फर्क’ प्रकाशित हुई थी, मैं ‘सारिका’ में ‘परिक्रमा’ नामक स्तंभ लिखा करता था। उसमें मैं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों की चर्चा किया करता था। सबसे पहले मैंने ही ‘फर्क’ की ओर पाठकों का ध्यान खींचा था। उसके बाद, मेरी टिप्पणी का हवाला देते हुए, आरा (बिहार) से निकलने वाली पत्रिका ‘वाम’ के संपादक चंद्रभूषण तिवारी ने ‘फर्क’ पर पूरा संपादकीय लिखा और इस कहानी की धूम मच गयी। इसराइल का पहला कहानी संग्रह ‘फर्क’ नाम से ही छपा और अब यह हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों में गिनी जाती है। ‘श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ: 1970-80’ नामक संकलन में इसे ‘‘हिंदी की एक मील पत्थर कहानी’’ बताते हुए संकलन के संपादक स्वयं प्रकाश ने इस कहानी और इसके लेखक इसराइल के बारे में लिखा है :
‘‘इसराइल जीवन भर श्रमिक आंदोलन से जुड़े रहे, इसलिए वे अपने जीवनानुभव को बहुत आसानी, कुशलता और प्रामाणिकता के साथ कहानी में विन्यस्त कर सकते थे। उन्होंने ऐसा किया भी, और इसीलिए उनके विवरणों में चंचल आक्रोश या चपल उत्तेजना नहीं, एक प्रौढ़ ठंडापन दिखायी देता है। लेकिन ‘फर्क’ में वे एक महान रचनाकार की तरह भारत में भूमि सुधार न हो पाने और सामंतवाद के लगभग सही-सलामत बचे रह जाने के गहरे कारणों की ओर इशारा करते हैं। वे कृषि क्रांति के बरक्स सर्वोदय को रखकर दिखाते हैं और प्रसंगवश इसी में हिंसा-अहिंसा का प्रश्न उठ खड़ा होता है। सर्वोदय-भूदान-ग्रामदान आदि का पूरा अभियान सामंतों की उपजाऊ जमीनों को छिनने से बचाने का एक सत्तापोषित उपक्रम था। यह वह जमाना था, जब ‘कम्युनिस्ट’ एक गाली थी और कम्युनिस्टों से तर्क करने के बजाय उन्हें सिर्फ एक शब्द ‘हिंसा’ की लाठी से पीटकर एरीना से बाहर कर दिया जाता था। इस शानदार और यादगार कहानी को लिखते समय शायद इसराइल को भी अंदाजा नहीं होगा कि सर्वोदय को श्रमिकों के कटघरे में खड़ा करके दरअसल वे गांधीवादी अर्थशास्त्र का मर्सिया लिख रहे हैं।’’
यहाँ ‘फर्क’ के विस्तृत समीक्षात्मक विश्लेषण का अवकाश नहीं है, अतः मैं अत्यंत संक्षेप में केवल तीन तथ्यों की ओर संकेत करना चाहता हूँ, जिन्होंने इसे हिंदी कहानी की विकास-यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने वाली कहानी बनाया।
एक : इस कहानी की चर्चा और प्रतिष्ठा से पहले हिंदी कहानी में ‘अकहानी’ की वह प्रवृत्ति हावी थी, जिसमें तत्कालीन सामाजिक यथार्थ की तथा हिंदी कहानी की यथार्थवादी परंपरा की उपेक्षा करते हुए ऊलजलूल किस्म की कहानियाँ लिखी जा रही थीं। ‘फर्क’ ने सामाजिक यथार्थ के सशक्त चित्रण से प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा को पुनः प्रतिष्ठित किया और किसानों-मजदूरों के संघर्ष को कहानी के केंद्र में रखा।
दो : ‘अकहानी’ के दौर में हिंदी कहानी सामाजिक यथार्थ से तथा यथार्थवादी चित्रण से इतनी दूर जा चुकी थी कि उस दौर की ज्यादातर कहानियाँ ऊलजलूल ढंग से लिखी जाती थीं, जिनका कोई सिर-पैर समझना अक्सर मुश्किल होता था। कहानी में कोई सुसंबद्ध और तर्कसंगत घटनाक्रम नहीं होता था और जीते-जागते वास्तविक मनुष्यों जैसे चरित्रों की जगह हवाई किस्म के नाम-रूपहीन पात्र होते थे, जिन्हें केवल ‘मैं’ या ‘वह’ कहा जाता था। ऐसे निष्क्रिय और निर्जीव पात्रों की निरुद्देश्य और निरर्थक कहानियों के दौर में इसराइल की कहानी ‘फर्क’ ने एक ऐसा सर्जनात्मक हस्तक्षेप किया कि कहानियों में जीते-जागते, हाड़-मांस वाले, अपने नाम और काम से पहचाने जाने वाले सशक्त और संघर्षशील चरित्र (‘पात्र’ नहीं, ‘चरित्र’) आने लगे। ‘फर्क’ से पहले की बहुत-सी कहानियों का आदमी ‘सपाट चेहरे वाला आदमी’ था, जबकि इसके बाद की कई कहानियों के शीर्षक अपने चरित्रों के नामों पर रखे गये, जैसे ‘सुधीर घोषाल’ (काशीनाथ सिंह), ‘देवीसिंह कौन?’ (रमेश उपाध्याय), ‘बलैत माखुन भगत’ (विजयकांत) इत्यादि।
तीन : ‘अकहानी’ के दौर में हिंदी कहानी मुख्य रूप से महानगरीय मध्यवर्गीय जीवन की कहानी बनकर रह गयी थी, लेकिन ‘फर्क’ की चर्चा और प्रतिष्ठा के बाद हिंदी कहानी में गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों के लोगों के--मुख्य रूप से किसानों और मजदूरों के--जीवन तथा संघर्ष की कहानियाँ लिखी जाने लगीं, जिनसे हिंदी में जनवादी कहानी के आंदोलन की शुरूआत हुई।
--रमेश उपाध्याय
Monday, November 29, 2010
कहानी में भूमंडलीय यथार्थ ऐसे भी आ सकता है!
मनोज रूपड़ा को मैंने ज्यादा नहीं पढ़ा है। उसकी कुछ ही कहानियाँ पढ़ी हैं और उनमें से एक ही मुझे याद रह गयी है--‘साज-नासाज’। मैं इस कहानीकार को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। कभी पत्र या फोन से भी संवाद नहीं हुआ। उसने मुझे पढ़ा है या नहीं, मुझे नहीं मालूम। लेकिन इससे क्या? जिस लेखक की कोई कहानी मुझे पसंद आ जाती है और याद रह जाती है, उसकी नयी कहानी सामने आ जाये, तो मैं जरूर पढ़ लेता हूँ, चाहे पढ़कर निराश ही क्यों न होना पड़े। सो मनोज रूपड़ा की नयी कहानी ‘आमाजगाह’ देखी, तो लंबी होने के बावजूद मैं उसे पढ़ गया।
आजकल हिंदी कहानियों के शीर्षक अक्सर अंग्रेजी या अरबी-फारसी के शब्दों से बनाये जाने लगे हैं। इसका गुनाहगार मैं खुद भी हूँ। मैंने भी अपनी कई कहानियों के नामकरण इसी तरह किये हैं। मसलन, ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्राइवेट पब्लिक’ या ‘त्रासदी...माइ फुट!’ इसी तरह लक्ष्मी शर्मा ने अपनी एक कहानी का शीर्षक अरबी में रखा ‘खते मुतवाजी’, जिसका अर्थ होता है समानांतर रेखा और मनोज रूपड़ा ने अपनी नयी कहानी का शीर्षक फारसी में रखा है ‘आमाजगाह’, जिसका अर्थ है लक्ष्यस्थान या गंतव्य। मैं अरबी-फारसी नहीं जानता, अतः इन दोनों कहानियों को पढ़ने से पहले मुझे इनके शीर्षकों के अर्थ शब्दकोश में देखने पड़े। ‘आमाजगाह’ का अर्थ देखते समय मुझे यह शे’र भी पढ़ने को मिला:
किस्मत मेरे सिवा तुझे कोई मिला नहीं
आमाजगाहे-जौर बनाया किया मुझे।
खैर, मैं कहानी पढ़ गया। लंबी है, लेकिन उबाऊ नहीं। मनोज रूपड़ा पर शायद हिंदी फिल्मों का काफी असर है कि उसकी कहानियाँ सीन-दर-सीन कुछ इस तरह लिखी हुई होती हैं कि चाहे तो कोई आसानी से पटकथा लिखकर फिल्म बना ले। और इस कहानी में तो मुंबई और अरब सागर, इलाहाबाद और गंगा-यमुना का संगम तथा उदयपुर और थार का रेगिस्तान बड़े भव्य और प्रभावशाली फिल्मी दृश्यों के रूप में चित्रित किये गये हैं। खास तौर से रेगिस्तान के दृश्य।
कहानी एक संगीतकार की है, बल्कि दो संगीतकारों की, जिनमें से एक पुरुष है, जो अपनी कहानी कह रहा है और दूसरी एक स्त्री, जिसका नाम जेसिका कोहली उर्फ जिप्सी कैट है और जो ‘‘सिक्ख बाप और कैनेडियन माँ की औलाद’’ है। कैट अंतररष्ट्रीय रूप से प्रसिद्ध एक शो-डिजायनर है और ‘मैं’ उसकी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अनुबंधित एक म्यूजिक कंपोजर। (मनोज रूपड़ा को संगीत की अच्छी जानकारी है, जो उसकी कहानी ‘साज-नासाज’ में भी दिखी थी।) लेकिन वर्तमान के इन दोनों पात्रों के माध्यम से एक पुरानी दरबारी गायिका अस्मत जाँ और उसके साथ संगत करने वाले सारंगीवादक काले खाँ की कहानी कही गयी है।
कहानी की संरचना कुछ इस तरह की है कि पाठक उसकी हिंदी-उर्दू या संस्कृत-फारसी मिश्रित भाषा के चमत्कार में उलझ जाये या फिल्मों जैसी दृश्यावली में खो जाये और इसे यथार्थवादी कहानी की जगह एक कल्पना या फैंटेसी की रचना मान ले। मैं भी इसे पढ़ते समय ऐसा ही कुछ मानकर चल रहा था, मगर कहानी का यह हिस्सा पढ़कर मैं चकित रह गया:
‘‘मैं कड़ी धूप, थकान और अपनी खराब तबियत के बावजूद बहुत मुस्तैदी से चलता रहा। मुझे लगा, अब मैं उस ‘चीज’ को अच्छी तरह समझने लगा हूँ, जिसे दुनिया की कोई पद्धति मुझे समझा नहीं सकी। जैसे-जैसे मेरे कदम आगे बढ़ते जा रहे हैं, मैं उतना ही भारहीन और स्फूर्त होता जा रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि ऐसा सिर्फ मेरे साथ हो रहा है या उन सबके साथ भी हुआ होगा, जो वैश्वीकरण के हाथों मार दिये जाने के बाद दुबारा जन्म लेते हैं।’’
यहाँ से मुझे कहानी को समझने का एक नया सूत्र हाथ लगा और मैंने कहानी को फिर से नये सिरे से पढ़ा और पाया कि यह तो बाकायदा भूमंडलीय यथार्थवादी कहानी है, जिसमें वर्तमान को इतिहास में और ‘लोकल’ को ‘ग्लोबल’ में बड़े ही कलात्मक और अर्थपूर्ण रूप में गूँथा गया है!
--रमेश उपाध्याय
आजकल हिंदी कहानियों के शीर्षक अक्सर अंग्रेजी या अरबी-फारसी के शब्दों से बनाये जाने लगे हैं। इसका गुनाहगार मैं खुद भी हूँ। मैंने भी अपनी कई कहानियों के नामकरण इसी तरह किये हैं। मसलन, ‘डॉक्यूड्रामा’, ‘प्राइवेट पब्लिक’ या ‘त्रासदी...माइ फुट!’ इसी तरह लक्ष्मी शर्मा ने अपनी एक कहानी का शीर्षक अरबी में रखा ‘खते मुतवाजी’, जिसका अर्थ होता है समानांतर रेखा और मनोज रूपड़ा ने अपनी नयी कहानी का शीर्षक फारसी में रखा है ‘आमाजगाह’, जिसका अर्थ है लक्ष्यस्थान या गंतव्य। मैं अरबी-फारसी नहीं जानता, अतः इन दोनों कहानियों को पढ़ने से पहले मुझे इनके शीर्षकों के अर्थ शब्दकोश में देखने पड़े। ‘आमाजगाह’ का अर्थ देखते समय मुझे यह शे’र भी पढ़ने को मिला:
किस्मत मेरे सिवा तुझे कोई मिला नहीं
आमाजगाहे-जौर बनाया किया मुझे।
खैर, मैं कहानी पढ़ गया। लंबी है, लेकिन उबाऊ नहीं। मनोज रूपड़ा पर शायद हिंदी फिल्मों का काफी असर है कि उसकी कहानियाँ सीन-दर-सीन कुछ इस तरह लिखी हुई होती हैं कि चाहे तो कोई आसानी से पटकथा लिखकर फिल्म बना ले। और इस कहानी में तो मुंबई और अरब सागर, इलाहाबाद और गंगा-यमुना का संगम तथा उदयपुर और थार का रेगिस्तान बड़े भव्य और प्रभावशाली फिल्मी दृश्यों के रूप में चित्रित किये गये हैं। खास तौर से रेगिस्तान के दृश्य।
कहानी एक संगीतकार की है, बल्कि दो संगीतकारों की, जिनमें से एक पुरुष है, जो अपनी कहानी कह रहा है और दूसरी एक स्त्री, जिसका नाम जेसिका कोहली उर्फ जिप्सी कैट है और जो ‘‘सिक्ख बाप और कैनेडियन माँ की औलाद’’ है। कैट अंतररष्ट्रीय रूप से प्रसिद्ध एक शो-डिजायनर है और ‘मैं’ उसकी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अनुबंधित एक म्यूजिक कंपोजर। (मनोज रूपड़ा को संगीत की अच्छी जानकारी है, जो उसकी कहानी ‘साज-नासाज’ में भी दिखी थी।) लेकिन वर्तमान के इन दोनों पात्रों के माध्यम से एक पुरानी दरबारी गायिका अस्मत जाँ और उसके साथ संगत करने वाले सारंगीवादक काले खाँ की कहानी कही गयी है।
कहानी की संरचना कुछ इस तरह की है कि पाठक उसकी हिंदी-उर्दू या संस्कृत-फारसी मिश्रित भाषा के चमत्कार में उलझ जाये या फिल्मों जैसी दृश्यावली में खो जाये और इसे यथार्थवादी कहानी की जगह एक कल्पना या फैंटेसी की रचना मान ले। मैं भी इसे पढ़ते समय ऐसा ही कुछ मानकर चल रहा था, मगर कहानी का यह हिस्सा पढ़कर मैं चकित रह गया:
‘‘मैं कड़ी धूप, थकान और अपनी खराब तबियत के बावजूद बहुत मुस्तैदी से चलता रहा। मुझे लगा, अब मैं उस ‘चीज’ को अच्छी तरह समझने लगा हूँ, जिसे दुनिया की कोई पद्धति मुझे समझा नहीं सकी। जैसे-जैसे मेरे कदम आगे बढ़ते जा रहे हैं, मैं उतना ही भारहीन और स्फूर्त होता जा रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि ऐसा सिर्फ मेरे साथ हो रहा है या उन सबके साथ भी हुआ होगा, जो वैश्वीकरण के हाथों मार दिये जाने के बाद दुबारा जन्म लेते हैं।’’
यहाँ से मुझे कहानी को समझने का एक नया सूत्र हाथ लगा और मैंने कहानी को फिर से नये सिरे से पढ़ा और पाया कि यह तो बाकायदा भूमंडलीय यथार्थवादी कहानी है, जिसमें वर्तमान को इतिहास में और ‘लोकल’ को ‘ग्लोबल’ में बड़े ही कलात्मक और अर्थपूर्ण रूप में गूँथा गया है!
--रमेश उपाध्याय
Tuesday, November 23, 2010
अचानक और अनायास
कभी-कभी मन अचानक और अकारण ही उदास हो जाता है। कारण तो अवश्य कुछ न कुछ रहता होगा, लेकिन समझ में नहीं आता। 20 नवंबर, 2010 की शाम कुछ ऐसा ही हुआ। मन भारी था और समझ में नहीं आ रहा था कि बात क्या है। कागज सामने था और कलम हाथ में, सो बिना कुछ सोचे-समझे कलम चलाने लगा। जो लिखा गया, उसे पढ़ा, तो लगा कि मैं स्वस्थ हो गया। जैसे आकाश पर जो बदली-सी छा गयी थी, हट गयी और धूप निकल आयी। जो लिखा गया, यह था:
महानगर के उजले तन पर फूटे फोड़े-सी वह बस्ती
बरसों-बरस पुरानी होकर भी अवैध थी जिसकी हस्ती
गत चुनाव में सहसा वैध हो गयी घोषित
नये घरों के नीले नक्शे किये गये सबको आवंटित
लोग खुश हुए, लगा कि जैसे सब सपने साकार हो गये
मानो मतदाता से बढ़कर वे खुद ही सरकार हो गये
लेकिन यह क्या? वोट डालकर ज्यों ही लौटे, बस्ती गायब!
बस्ती जलकर खाक हो गयी, सपने सारे खत्म हो गये
नये घरों के नीले नक्शे सारे जलकर भस्म हो गये
लेकिन तभी राख से उठती दिखी उसरती नयी झोंपड़ी
जो कहती थी--‘‘नीले नक्शे भस्म हो गये, हो जाने दो।
हम उन नक्शों के अनुसार नहीं बनती हैं।
जैसे बनती रहीं हमेशा, वैसे ही अब भी बनती हैं।’’
मैं नहीं जानता कि यह कविता है या कहानी या कुछ भी नहीं, पर इतना जानता हूँ कि जब बिना कुछ सोचे-विचारे ऐसा कुछ लिखा जाता है--अचानक और अनायास--तो उससे जो आनंद मिलता है, वह लिखने वाले के मन पर अचानक और अनजाने ही आ पड़े बोझ को हटाकर उसे स्वस्थ बनाने में बड़ा कारगर होता है।
--रमेश उपाध्याय
महानगर के उजले तन पर फूटे फोड़े-सी वह बस्ती
बरसों-बरस पुरानी होकर भी अवैध थी जिसकी हस्ती
गत चुनाव में सहसा वैध हो गयी घोषित
नये घरों के नीले नक्शे किये गये सबको आवंटित
लोग खुश हुए, लगा कि जैसे सब सपने साकार हो गये
मानो मतदाता से बढ़कर वे खुद ही सरकार हो गये
लेकिन यह क्या? वोट डालकर ज्यों ही लौटे, बस्ती गायब!
बस्ती जलकर खाक हो गयी, सपने सारे खत्म हो गये
नये घरों के नीले नक्शे सारे जलकर भस्म हो गये
लेकिन तभी राख से उठती दिखी उसरती नयी झोंपड़ी
जो कहती थी--‘‘नीले नक्शे भस्म हो गये, हो जाने दो।
हम उन नक्शों के अनुसार नहीं बनती हैं।
जैसे बनती रहीं हमेशा, वैसे ही अब भी बनती हैं।’’
मैं नहीं जानता कि यह कविता है या कहानी या कुछ भी नहीं, पर इतना जानता हूँ कि जब बिना कुछ सोचे-विचारे ऐसा कुछ लिखा जाता है--अचानक और अनायास--तो उससे जो आनंद मिलता है, वह लिखने वाले के मन पर अचानक और अनजाने ही आ पड़े बोझ को हटाकर उसे स्वस्थ बनाने में बड़ा कारगर होता है।
--रमेश उपाध्याय
Saturday, November 13, 2010
त्रासदी...माइ फुट!
नूर भोपाली का पूरा परिवार यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली मिक गैस के जहरीले असर से मारा गया था। बूढ़ी माँ, भली-चंगी पत्नी, एक बेटा और दो बेटियाँ--सब उसी रात मारे गये थे, जिस रात दूसरे हजारों लोग या तो तत्काल मारे गये थे या घायल-अपाहिज होकर बाद में मरे थे और कई पिछले पंद्रह सालों में लगातार मरते रहे थे। नूर भोपाली बच गये थे, तो केवल इस कारण कि वे उस रात भोपाल में नहीं थे, किसी काम से इंदौर गये हुए थे।
वे मुझे अस्सी या इक्यासी के साल भोपाल में हुए एक साहित्यिक कार्यक्रम में मिले थे, जिसमें मैंने अपनी कहानी पढ़ी थी और उन्होंने अपनी गजलें। लंबे कद, छरहरे बदन, गोरे रंग, सुंदर चेहरे और हँसमुख स्वभाव वाले नूर भोपाली से मेरी दोस्ती पहली मुलाकात में ही हो गयी थी। कार्यक्रम के बाद वे मुझे आग्रहपूर्वक अपने घर ले गये थे, जो यूनियन कार्बाइड के कारखाने के पास की एक घनी बस्ती में था। उन्होंने अपनी माँ, पत्नी और बच्चों से मुझे मिलवाया था, अच्छी व्हिस्की पिलायी थी, उम्दा खाना खिलाया था, देश-दुनिया के बारे में बड़ी समझदारी की बातें की थीं और मेरे मन पर एक सुशिक्षित, विचारवान, उदार और प्रगतिशील व्यक्तित्व के साथ अपने अच्छे कवित्व की छाप छोड़ी थी।
नूर भोपाली सिर्फ शायरी नहीं, एक बैंक में नौकरी भी करते थे। अच्छा वेतन पाते थे। अच्छा खाते-पीते थे। बच्चों को अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल में अच्छी शिक्षा दिला रहे थे। हमारी पहली मुलाकात के कुछ ही दिन पहले उन्होंने अपने लिए नयी मोटरसाइकिल खरीदी थी। अपने घर पर खाना खिलाकर वे उसी पर बिठाकर मुझे उस होटल तक पहुँचा गये थे, जहाँ मैं ठहरा हुआ था।
गैस-कांड में अपने पूरे परिवार के मारे जाने के बाद वे उसके सदमे से विक्षिप्त हो गये थे। लेकिन कुछ महीने अस्पताल में रहकर ठीक भी हो गये थे। यूनियन कार्बाइड के कारखाने के पास वाली बस्ती में रहना छोड़कर बैंक अधिकारियों के लिए बनी एक नयी कॉलोनी में फ्लैट लेकर रहने लगे थे। अपने एक भतीजे को सपरिवार उन्होंने अपने पास रख लिया था और उसी के परिवार को अपना परिवार मानने लगे थे।
भोपाल के साहित्यिक मित्रों से मुझे उनके बारे में ये सारी सूचनाएँ मिलती रही थीं। जब वे अस्पताल में थे, कई बार मेरे मन में आया कि भोपाल जाकर उन्हें देख आऊँ। लेकिन समझ में नहीं आया कि मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा। विक्षिप्त नूर मुझे पहचानेंगे भी या नहीं? पहचान भी गये, तो मैं उनसे क्या कहूँगा? क्या कहकर उन्हें सांत्वना दूँगा? फिर जब पता चला कि वे ठीक हो गये हैं, नौकरी पर जाने लगे हैं, नयी जगह जाकर अपने फ्लैट में रहने लगे हैं और उनका भतीजा उनकी अच्छी देखभाल कर रहा है, तो मैं निश्ंिचत-सा हो गया था। मैंने उन्हें पत्र लिखा था, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया था। मुझे मेरे मित्रों ने यह भी बताया था कि नूर ने अब साहित्य से संन्यास ले लिया है। पहले हिंदी या उर्दू साहित्य का कोई भी आयोजन हो, वे बिना बुलाये भी लोगों को सुनने पहुँच जाते थे, लेकिन अब गजल पढ़ने के लिए बुलाये जाने पर भी कहीं नहीं जाते। साहित्यिक मित्रों से मिलना-जुलना भी उन्होंने बंद कर दिया है।
लेकिन मुझे गैस-कांड, मुआवजों के लिए होने वाली मुकदमेबाजी, गैस-पीड़ितों की दुर्दशा और यूनियन कार्बाइड के खिलाफ किये जा रहे आंदोलनों से संबंधित लेख या समाचार पढ़ने-सुनने पर नूर की याद जरूर आती थी। इसलिए गैस-कांड के लगभग पंद्रह साल बाद एक साहित्यिक कार्यक्रम में फिर भोपाल जाना हुआ, तो मैंने निश्चय किया कि और किसी से मिलूँ या न मिलूँ, नूर से जरूर मिलूँगा। एक दिन के लिए ही सही, उन्होंने जो प्यार और अपनापन मुझे दिया था, उसे मैं भूला नहीं था।
कार्यक्रम में उपस्थित कुछ लोगों से मैंने नूर भोपाली के बारे में पूछताछ की, तो पाया कि नये लेखक तो उनके बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं, पुराने लेखक भी उनकी कोई खोज-खबर नहीं रखते हैं। मैंने बैंक में काम करने वाले एक लेखक से पूछा, तो पता चला कि वह अपने ब्रांच मैनेजर नूर मुहम्मद साहब को जानता है, जिनका पूरा परिवार गैस-कांड में मारा गया था। विजय प्रताप नामक उस लेखक ने नूर का हुलिया बताकर पूछा, ‘‘क्या वही नूर भोपाली हैं?’’
‘‘जी हाँ, वही।’’ मैंने कहा, ‘‘मुझे उनसे मिलना है।’’
विजय उम्र में मुझसे छोटा था, पहली ही बार मुझे मिला था, लेकिन मुझे जानता था। शायद यह सोचकर कि मैं दिल्ली से आया हूँ, दिल्ली के संपादकों और प्रकाशकों को जानता हूँ और परिचय हो जाने पर किसी दिन उसके काम आ सकता हूँ, वह मेरे प्रति कुछ अधिक आदर और आत्मीयता प्रकट कर रहा था। मेरे कहे बिना ही वह शाम को मुझे नूर के पास ले जाने को तैयार हो गया। उसने कहा, ‘‘कार्यक्रम के बाद आप होटल जाकर थोड़ा आराम कर लें, मैं शाम को छह बजे गाड़ी लेकर आ जाऊँगा और आपको उनके घर ले चलूँगा।’’
शाम को ठीक छह बजे विजय ने मेरे कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी और मुझे साथ लेकर चल पड़ा। अपनी मारुति कार में बैठते-बैठते उसने यह भी बता दिया कि वह बैंक में सहायक शाखा प्रबंधक है और कार उसने कुछ महीने पहले ही खरीदी है। फिर वह अपनी साहित्यिक उपलब्धियाँ बताने लगा। मध्यप्रदेश सरकार से प्राप्त एक पुरस्कार का और आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से तकरीबन हर महीने होने वाले अपनी कविताओं के प्रसारण का जिक्र उसने काफी जोरदार ढंग से किया।
मैं हाँ-हूँ करता रहा, तो वह समझ गया कि मैं उससे प्रभावित नहीं हो रहा हूँ। तब उसने विषय बदलते हुए मुझसे पूछा, ‘‘आप नूर मुहम्मद साहब को कब से और कैसे जानते हैं?’’
मैंने अपनी पिछली भोपाल यात्रा और नूर भोपाली से हुई भेंट के बारे में बताया।
‘‘लेकिन आप तो, सर, हिंदी के लेखक हैं और वे उर्दू के!’’
‘‘तो क्या हुआ?’’ मैं उसकी बात का मतलब नहीं समझा।
‘‘वैसे मेरे भी कई दोस्त मुसलमान हैं।’’
‘‘ओह!’’ अब उसका अभिप्राय मेरी समझ में आया। मैंने जरा तेज-तुर्श आवाज में कहा, ‘‘हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा समझना ठीक नहीं है, विजय जी! यह तो भाषा और साहित्य के बारे में बड़ा ही सांप्रदायिक दृष्टिकोण है।’’
‘‘सॉरी, सर, मेरा मतलब यह नहीं था।’’ विजय ने कहा।
मैं इस पर चुप रहा, तो वह दूसरी बातें करने लगा।
‘‘नूर साहब से आप पहली भेंट के बाद फिर कभी नहीं मिले हैं न?’’
‘‘जी।’’
‘‘सुना है, वे अच्छे शायर हुआ करते थे। उस हादसे के बाद उन्होंने लिखना-पढ़ना छोड़ दिया। मैंने यह भी सुना है कि फिल्म इंडस्ट्री के लोग उनसे फिल्मों के लिए गाने लिखवाना चाहते थे। काफी बड़े ऑफर थे। नूर साहब ने सब ठुकरा दिये। आप क्या सोचते हैं? उनका ऐसा करना ठीक था?’’
‘‘मैं यह कैसे बता सकता हूँ? पता नहीं, उनकी क्या परिस्थिति या मनःस्थिति रही होगी।’’
‘‘मैं मनःस्थिति की ही बात कर रहा हूँ, सर! सुना है, उस हादसे के बाद नूर साहब कुछ समय के लिए पागल हो गये थे।’’
‘‘किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के साथ ऐसा हो सकता है।’’
‘‘लेकिन, सर, नूर साहब को अगर फिल्मों में बढ़िया चांस मिल रहा था, तो उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए था। उससे उनको नाम और पैसा तो मिलता ही, उस हादसे को भुलाने में मदद भी मिलती। उस हादसे में कई लोगों के परिवार खत्म हो गये, लेकिन फिर से उन्होंने अपने घर बसा लिये। लोगों को जिंदा तो रहना ही होता है न, सर!’’
‘‘हाँ, लेकिन सब लोग एक जैसे नहीं होते।’’
‘‘आपको मालूम है, सर, नूर साहब ने मुआवजा भी नहीं माँगा! कह दिया कि मैं अपनी माँ और बीवी-बच्चों की जान के बदले चंद सिक्के नहीं लूँगा। सुना है, उनका यह बयान अखबारों में भी छपा था। लेकिन, सर, अपन को तो यह बात कुछ जमी नहीं। यूनियन कार्बाइड ने जो किया, उसकी कोई और सजा तो उसे मिलनी नहीं थी। मुआवजा लेकर इतनी-सी सजा भी आप उसको नहीं देना चाहते, इसका क्या मतलब हुआ?’’
मुझे विजय की बातें अच्छी नहीं लग रही थीं। मैंने कहा, ‘‘आप तो उनके सहकर्मी हैं, उनसे ही पूछें तो बेहतर।’’
विजय शायद समझ गया कि मैं उससे बात करना नहीं चाहता। वह चुप हो गया और नूर भोपाली के घर पहुँचने तक चुपचाप गाड़ी चलाता रहा।
नूर का घर एक खुली-खुली और साफ-सुथरी कॉलोनी में था, जिसके मकानों के सामने सड़क के किनारे गुलमोहर के पेड़ लगे हुए थे और इस समय वे लाल फूलों से लदे हुए थे।
नूर का फ्लैट पहली मंजिल पर था। सीढ़ियों से ऊपर जाकर मैंने घंटी बजायी, तो सोलह-सत्रह साल की एक लड़की ने दरवाजा खोला और यह जानकर कि मैं नूर साहब से मिलने आया हूँ, उसने मुझे अंदर आने के लिए कहा। एक कमरे के खुले दरवाजे के पास पहुँचकर उसने जरा ऊँची आवाज में कहा, ‘‘दादू, आपसे कोई मिलने आये हैं।’’
मैंने एक ही नजर में देख लिया कि कमरा काफी बड़ा है। एक तरफ सोफा-सेट है, दूसरी तरफ अलमारियाँ, तीसरी तरफ बाहर बालकनी में खुलने वाला दरवाजा और चौथी तरफ एक पलंग, जिस पर लेटे हुए नूर कोई किताब पढ़ रहे हैं। नजरों से ओझल किसी म्यूजिक सिस्टम पर बहुत मंद स्वर में सरोद बज रहा था।
नूर किताब एक तरफ रखकर उठ खड़े हुए। उन्होंने शायद मुझे नहीं पहचाना, इसलिए विजय से कहा, ‘‘आइए-आइए, विजय साहब!’’
‘‘देखिए, सर, मैं अपने साथ किनको लाया हूँ!’’ विजय ने आगे बढ़कर कहा।
नूर अचकचाकर मेरी ओर देखने लगे और पहचान जाने पर, ‘‘अरे, राजन जी, आप!’’ कहते हुए मुझसे लिपट गये। गले मिलने के बाद वे मेरा हालचाल पूछते हुए सोफे की ओर बढ़े और मुझे अपने सामने बिठाकर पूछने लगे कि मैं कब और किस सिलसिले में भोपाल आया। मैंने बताया, तो बोले, ‘‘आप सवेरे ही किसी से मुझे फोन करवा देते, मैं खुद आपसे मिलने आ जाता।’’
मैंने देखा, बीच में बीते समय ने उन्हें खूब प्रभावित किया है। पहले जब मैं उनसे मिला था, वे अधेड़ होकर भी जवान लगते थे। अब एकदम बूढ़े दिखायी दे रहे थे। लगभग सफेद होते हुए लंबे और बिखरे-बिखरे बाल, कुछ कम सफेद दाढ़ी और आँखों पर मोटे काँच का चश्मा। पहले दाढ़ी नहीं रखते थे और चश्मा नहीं लगाते थे। अगर पहले से पता न होता, तो शायद मैं उन्हें पहचान न पाता।
विजय को भी बैठने के लिए कहते हुए उन्होंने कहा, ‘‘बहुत-बहुत शुक्रिया, विजय साहब, कि आप इनको ले आये। हम दूसरी ही बार मिल रहे हैं, लेकिन पुराने प्रेमी हैं। लव एट फर्स्ट साइट वाले!’’ कहकर वे हँसे।
मैंने देखा, नीचे खड़ा गुलमोहर का पेड़ उनकी बालकनी तक बढ़ आया है और उसके लाल फूल बिलकुल नजदीक से दिखायी दे रहे हैं। शाम की हल्की धूप में खूब चटक चमकते हुए।
‘‘अकेले ही आये हैं या परिवार के साथ?’’ नूर ने मुझसे कहा, ‘‘पिछली बार जब आप आये थे, आपने कहा था कि भोपाल बहुत खूबसूरत शहर है, अगली बार आयेंगे तो परिवार के साथ आयेंगे।’’
मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्हें यह बात इतने साल बाद भी याद है। मैंने कहा, ‘‘अब परिवार के साथ निकलना मुश्किल है। पत्नी की नौकरी है और बच्चे बड़े हो गये हैं। सबकी अपनी व्यस्तताएँ हैं।’’ कहते-कहते मुझे नूर के परिवार की याद आ गयी। मैंने दुख प्रकट करने के लिए कहा, ‘‘आपके परिवार के साथ जो हादसा हुआ, उससे बड़ा...’’
‘‘हादसा?’’ नूर जैसे एकदम तड़प उठे। उन्होंने मेरा वाक्य भी पूरा नहीं होने दिया। बोले, ‘‘आप उसे हादसा कहते हैं? वह तो हत्याकांड था! ब्लडी मैसेकर!’’
मैं सहमकर खामोश हो गया और नीचे देखने लगा।
विजय ने नूर को शांत करने की गरज से कहा, ‘‘अब उन पुराने जख्मों को कुरेदने से क्या फायदा है, सर?’’
‘‘मैं नहीं मानता। हमें उन जख्मों को तब तक कुरेदते रहना चाहिए, जब तक दुनिया में ऐसे हत्याकांड बंद नहीं हो जाते!’’ नूर ने विजय को झिड़क दिया और मुझसे पूछा, ‘‘क्या हादसे और हत्याकांड में कोई फर्क नहीं है? हादसे अचानक हो जाते हैं, जैसे दो रेलगाड़ियाँ टकरा जायें, लेकिन हत्याएँ तो की जाती हैं।’’
तभी वह लड़की, जिसने दरवाजा खोला था, काँच के तीन गिलासों में पानी ले आयी। ट्रे को सलीके से मेज पर रखकर उसने नूर से पूछा, ‘‘दादू, चाय या शर्बत?’’
‘‘पहले शर्बत, फिर चाय।’’ कहकर नूर ने मुस्कराते हुए मुझसे पूछा, ‘‘आपको शुगर-वुगर तो नहीं है न?’’
मैंने हँसकर कहा, ‘‘अभी तक तो नहीं।’’
लड़की जाने लगी, तो नूर ने उसे वापस बुलाया, अपने पास बिठाया और उसके सिर पर हाथ रखकर परिचय कराया, ‘‘यह आयशा है। मेरे भतीजे की बेटी। यह अपने दादू का बहुत खयाल रखती है। बी.ए. में पढ़ती है। बहुत समझदार है। और, आयशा, ये हैं आपके दिल्ली वाले दादू राजन जी।’’
आयशा ने मुझे सलाम किया और मैंने उसे आशीर्वाद दिया। लेकिन मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि न तो नूर ने विजय से उसका परिचय कराया और न उसने ही विजय को सलाम किया। उसने विजय की तरफ देखा भी नहीं। उठकर अंदर चली गयी।
बातचीत शुरू करने के लिए मैंने नूर से पूछा, ‘‘सुना है, आपने साहित्यिक कार्यक्रमों में जाना बंद कर दिया है? ऐसा क्यों?’’
नूर ने एक नजर विजय पर डाली और मुझसे कहा, ‘‘वहाँ जो कुछ होता है, मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। अब वहाँ साहित्य नहीं होता, साहित्य से पैसा कमाने, पुरस्कार पाने और खुद को महान साहित्यकार मनवा लेने की तिकड़में होती हैं। किसी से कुछ फायदा हो सकता है, तो उसे खुश करने की और जिससे कुछ नुकसान हो सकता है, उसकी जड़ें खोदने की कोशिशें की जाती हैं। देश और दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी तो सबको है, जो वहाँ बड़े जोर-शोर से उगली भी जाती है, लेकिन देश-दुनिया के हालात का आम लोगों पर क्या असर पड़ रहा है और उसके बारे में क्या किया जा सकता है, इसकी चिंता किसी को नहीं है। गरीबी और बेरोजगारी बढ़ रही है। समाज में हिंसा बढ़ रही है। अपराध बढ़ रहे हैं। लोग मर रहे हैं और मारे जा रहे हैं। लोगों में जबर्दस्त निराशा फैल रही है। लेकिन साहित्यकार क्या कर रहे हैं? वे फूलों और चिड़ियों पर कविताएँ लिख रहे हैं। दलितवाद के नाम पर जातिवाद फैला रहे हैं। स्त्रीवाद के नाम पर सेक्स की कहानियाँ लिख रहे हैं। संप्रदायवाद के नाम पर हिंसा और बलात्कार के ब्यौरे दे रहे हैं। और समझ रहे हैं कि हम बहुत बड़े तीर मार रहे हैं। भोपाल तो साहित्यकारों का गढ़ है। लेकिन चौरासी में यूनियन कार्बाइड ने एक ही झटके में हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, हजारों लोगों को अंधा और अपाहिज बना दिया, हजारों परिवारों से उनके मुँह का निवाला छीनकर उन्हें भूखा भिखारी बना दिया, मगर इसके खिलाफ यहाँ के साहित्यकारों ने क्या किया? कुछ बयान दिये, कुछ कविताएँ लिखीं और बस! दिन-रात भाषा के खेल खेलने वालों ने यह भी नहीं देखा कि उस बर्बर हत्याकांड को ‘भोपाल गैस त्रासदी’ जैसा भ्रामक नाम दे दिया गया है, जिससे लगे कि उस भयानक घटना का संबंध सिर्फ गैस से है। जैसे भोपाल के हजारों लोगों को गैस ने ही मार डाला हो। या जैसे गैस का फैलना भूचाल जैसी कोई प्राकृतिक घटना हो, जिसके लिए किसी को जिम्मेदार न ठहराया जा सकता हो! त्रासदी...माइ फुट!’’
नूर ने हिंदी में और धीरे-धीरे बोलना शुरू किया था, लेकिन दो-चार वाक्यों के बाद ही वे उत्तेजित होकर अंग्रेजी में, तेज-तेज और जोर-जोर से बोलने लगे थे। अंततः उनकी साँस फूल गयी और वे चुप हो गये।
मेरे साथ आये विजय को शायद यह लगा कि नूर ने भोपाल के साहित्यकारों का और व्यक्तिगत रूप से उसका अपमान किया है। नूर के चुप होते ही उसने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘आपका तो यह जिया-भोगा सत्य था, आपने इस पर क्यों कुछ नहीं लिखा?’’
नूर ने जलती-सी आँखों से विजय की ओर देखा, लेकिन तत्काल ही स्वयं को संयत कर लिया। एक सिगरेट सुलगायी और गहरा कश लेकर ढेर-सा धुआँ छोड़ने के बाद शांत स्वर में विजय से कहा, ‘‘आप जानते हैं, मैं शायर हूँ, गद्य नहीं लिखता। मैंने गजल के सिवा और कुछ लिखना सीखा ही नहीं। लेकिन गजल में उस सबको बयान नहीं किया जा सकता, जो मैंने जिया और भोगा है। मैंने सिर्फ जिया और भोगा ही नहीं है, बहुत कुछ जाना और सोचा-समझा भी है। मैंने गजल में उस सबको कहने की कोशिश की और सैकड़ों शेर लिख डाले। मगर मुझे लगा, बेकार है। फिर मैंने गद्य में लिखने की कोशिश की। आत्मकथा के रूप में ढेरों कागज काले किये। लेकिन बात नहीं बनी। कहानी भी लिखने की कोशिश की, लेकिन लगा कि कहानी में वह सब नहीं कहा जा सकता, जो मैं कहना चाहता हूँ। तब लगा कि उपन्यास लिखूँ, तो शायद कुछ बात बने। मगर उपन्यास लिखना मुझे आता नहीं। कहीं वह निबंध जैसा हो जाता है, तो कहीं भाषण जैसा। लिखता हूँ और फाड़कर फेंक देता हूँ। कभी कागज-कलम लेकर बैठता हूँ और बैठा ही रह जाता हूँ। सामने रखा कोरा कागज मुझे चिढ़ाता रहता है, मेरी तरफ चुनौतियाँ फेंकता रहता है, लेकिन मैं उस पर एक शब्द भी लिख नहीं पाता। दिमाग में एक साथ इतनी सारी बातें आती हैं कि मैं समझ नहीं पाता, क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ। फिर मुझे डर लगने लगता है कि मैं कहीं पागल न हो जाऊँ। पागलपन के एक दौर से गुजर चुका हूँ, फिर से गुजरना नहीं चाहता।’’
इतने में आयशा शर्बत ले आयी। नींबू की कुछ बूँदें डालकर बनाया गया रूह-अफजा का लाल शर्बत। बिना कुछ बोले उसने शर्बत मेज पर रखा और चली गयी।
‘‘लीजिए, शर्बत लीजिए।’’ नूर ने कहा और उठकर एक अलमारी में से मोटी-मोटी फाइलों का एक ढेर उठा लाये। उसे मेज पर रखते हुए बोले, ‘‘लोग कहते हैं कि मैंने लिखना-पढ़ना बंद कर दिया है। लेकिन मैं बेकार नहीं बैठा हूँ। मैंने इन पंद्रह सालों में उस हत्याकांड के बारे में ढेरों तथ्य जुटाये हैं। इन फाइलों में वे तमाम तथ्य और प्रमाण हैं, जो बताते हैं कि भोपाल में गैस-कांड अचानक नहीं हो गया था।’’
उन्होंने शर्बत का एक घूँट पीकर गिलास रख दिया और एक फाइल खोलकर दिखाते हुए बोले, ‘‘यह देखिए, ये कागज बताते हैं कि जब यूनियन कार्बाइड ने अपना कारखाना यहाँ लगाने का फैसला किया था, तब कई लोगों ने, हमारी सरकार के कुछ समझदार और जिम्मेदार अधिकारियों ने भी, इसका विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि ऐसी घनी आबादी के पास ऐसा खतरनाक कारखाना नहीं लगाया जाना चाहिए।’’
‘‘क्या उन्हें पहले से ही मालूम था कि यह कारखाना खतरनाक होगा, सर?’’ विजय ने मजाक उड़ाती-सी आवाज में कहा।
नूर ने विजय की तरफ देखा और पूछा, ‘‘क्या आप उस जहरीली गैस के बारे में कुछ जानते हैं, जिसने हजारों लोगों की जान ली और अभी तक ले रही है?’’
‘‘जी, सर, मैंने उसके बारे में पढ़ा तो था, पर उसका नाम याद नहीं रहा।’’ विजय झेंप गया।
नूर व्यंग्यपूर्वक मुस्कराये, लेकिन तत्काल गंभीर होकर बताने लगे, ‘‘उसे मिक कहते हैं। एम आइ सी मिक। पूरा नाम मिथाइल आइसोसाइनेट। यह कोई प्राकृतिक गैस नहीं है। यह पिछली ही सदी में कारखानों से निकलकर पृथ्वी के पर्यावरण में शामिल हुई है। अब इसका व्यापारिक उत्पादन होता है और इसका इस्तेमाल पेस्टीसाइड्स यानी कीटनाशक बनाने में किया जाता है, जो कीड़े-मकोड़े मारने के काम आते हैं। मिक जिंदा चीजों पर, खास तौर से ऐसी चीजों पर, जिनमें पानी का अंश हो, ऐसी प्रतिक्रिया करती है कि वे तत्काल मर जाती हैं। समझे आप? तो जानकार जानते थे कि यूनियन कार्बाइड कीटनाशक बनाने में इस गैस का इस्तेमाल करने वाली है। यह गैस यहाँ बड़े-बड़े टैंकों में भरकर रखी जायेगी और अगर यह किसी भी तरह से टैंकों से निकलकर फैल गयी, तो आसपास की आबादी के लिए बहुत ही खतरनाक साबित होगी।’’
विजय तो नूर की बातों को मुँह बाये सुन ही रहा था, मैं भी चकित था कि एक आदमी, जो शौकिया तौर पर शायर और पेशे से बैंक मैनेजर है, वैज्ञानिक चीजों की इतनी जानकारी रखता है।
नूर कह रहे थे, ‘‘आप जानते हैं कि वह गैस पूरे शहर में नहीं, कारखाने के आसपास के ही इलाके में क्यों फैली? इसलिए कि मिक अगर खुली छोड़ दी जाये, तो फैल तो जाती है, लेकिन वह हवा से ज्यादा घनी होती है, इसलिए ऊपर उठकर हवा में घुल-मिल नहीं पाती। इसीलिए वह उड़कर दूर तक नहीं जा पाती। नजदीक ही नीचे बैठ जाती है और पानीदार चीजों को जला देती है। इंसान के जिस्म के नाजुक हिस्सों पर, जैसे आँखों और फेफड़ों पर, वह बहुत जल्द और घातक असर करती है।’’
कहते-कहते नूर ने फाइल में से एक कागज निकाला और पढ़कर सुनाने लगे, ‘‘बीइंग डेंसर दैन एयर, मिक वेपर डज नॉट डिस्सिपेट बट सैटल्स ऑन व्हाटएवर इज नियरबाइ। इफ एक्स्पोज्ड टु वॉटर-बियरिंग टिश्यूज, इट रिएक्ट्स वायोलेंटली, लीडिंग टु चेंजेज दैट कैन नॉट बी कंटेंड बाइ दि नॉर्मल प्रोटेक्टिव डिवाइसेज ऑफ दि अफेक्टेड ऑर्गैनिज्म। दि एमाउंट ऑफ एनर्जी रिलीज्ड बाइ दि एनसुइंग रिएक्शन स्विफ्टली एक्सीड्स दि हीट-बफरिंग कैपेबिलिटीज ऑफ दि बॉडी। सो दि बॉडी सफर्स सीवियर बर्न्स, इस्पेशली ऑफ एक्सपोज्ड टिश्यूज रिच इन वॉटर, सच एज लंग्स एंड आइज।’’
नूर ने कागज को पढ़ना बंद करके कहा, ‘‘यही वजह थी कि गैस ने कारखाने के आसपास की आबादी में इतनी तबाही मचायी। हजारों लोग मर गये, हजारों अंधे हो गये, हजारों के फेफड़े हमेशा के लिए खराब हो गये।’’
उन्होंने आधी जल चुकी सिगरेट से फिर एक गहरा कश लिया, धुआँ छोड़ा और सिगरेट एश ट्रे में बुझा दी। उनकी बात शायद अभी पूरी नहीं हुई थी, इसलिए मैं चुप रहा। नूर फिर बोलने लगे, ‘‘तो मैं कह रहा था कि जब यूनियन कार्बाइड ने अपना कारखाना लगाने के लिए घनी आबादी के पास वाली जगह चुनी, तो कुछ समझदार और जिम्मेदार अधिकारियों ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि यह कारखाना शहर के बाहर लगाया जाना चाहिए। लेकिन यूनियन कार्बाइड ने यह बात नहीं मानी। कहा कि शहर के बाहर कारखाना लगाना उसके लिए बहुत खर्चीला होगा। समझे आप? कंपनी को अपना खर्च बचाने की चिंता थी, लोगों की सुरक्षा की उसे कोई चिंता नहीं थी। इस तरह, अगर आप चौरासी के दिसंबर की उस रात यहाँ जो कुछ हुआ, उसे एक हादसा कहते हैं, तो उस हादसे की संभावना या आशंका शुरू से ही थी। यानी एक विदेशी कंपनी और देशी सरकार, दोनों को मालूम था कि वह हादसा कभी भी हो सकता है। फिर भी कंपनी ने उसी जगह कारखाना लगाया और सरकार ने लगाने दिया। इसको आप क्या कहेंगे? क्या यह जान-बूझकर हादसों को दावत देना नहीं? या कंपनी का खर्च बचाने के लिए जान-बूझकर लोगों को मौत के मुँह में धकेलना नहीं?’’
विजय ने मानो कंपनी और सरकार दोनों का बचाव करते हुए कहा, ‘‘माफ कीजिए, सर, आपकी बातों से तो ऐसा लगता है कि जैसे यह एक साजिश थी जान-बूझकर लोगों को मार डालने की। लेकिन क्या कोई विदेशी कंपनी किसी दूसरे देश में जाकर ऐसी साजिश कर सकती है? और, क्या उस देश की सरकार जानते-बूझते अपने लोगों के खिलाफ ऐसी साजिश उसे करने दे सकती है? जहाँ तक खर्च बचाने की बात है, तो वह तो हर उद्योग-व्यापार का नियम है। कंपनी का मकसद ही होता है कम से कम लागत में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना। इसमें साजिश जैसी क्या बात है?’’
मैं अब तक चुप था, लेकिन विजय की बात सुनकर मुझे बोलना पड़ा, ‘‘कंपनी के दृष्टिकोण से देखें, तो आपकी बात ठीक है, विजय जी! यूनियन कार्बाइड को अपना खर्च बचाना था, लेकिन सरकार तो सख्ती से कह सकती थी कि कारखाना शहर के बाहर लगाना पड़ेगा। उसे तो अपने लोगों की सुरक्षा की चिंता होनी चाहिए थी। उसने क्यों कंपनी की बात मान ली?’’
उत्तर दिया नूर ने, ‘‘सरकार को लोगों की क्या परवाह! उसे तो यह लगता है कि विदेशी कंपनियाँ आयेंगी, अपनी पूँजी यहाँ लगायेंगी, तभी हमारा विकास होगा। इसलिए वह तो हाथ-पाँव जोड़कर उन्हें बुलाती है--आइए हुजूर, हमारे देश में आकर अपने कारखाने लगाइए। हम आपको बेहद सस्ती जमीनें देंगे, बेहद सस्ते मजदूर और वैज्ञानिक-टेक्नीशियन वगैरह देंगे, कारखाना लगाने के लिए लोहा-लक्कड़, ईंट-सीमेंट, पानी-बिजली भी तकरीबन मुफ्त में मुहैया करायेंगे। सुरक्षा के नियम और श्रम-कानून आपके लिए ढीले कर देंगे। टैक्सों में भारी छूटें और रिआयतें देंगे। और तो और, हम आपको लेबर ट्रबल से भी बचायेंगे। आपकी तरफ कोई आँख भी उठायेगा, तो आँख फुड़वायेगा और अपना सिर तुड़वायेगा। इस काम के लिए हमारी पुलिस है न! आप हमारे जल, जंगल, जमीन और जनों के साथ चाहे जो करें, हमें कोई ऐतराज नहीं होगा। आप आइए तो! हमारे यहाँ आकर अपना कारखाना लगाइए तो!’’
‘‘आप लिखिए, नूर भाई! आप बहुत अच्छा उपन्यास लिखेंगे। आपका व्यंग्य तो कमाल का है!’’ मैंने प्रशंसा और प्रोत्साहन के लहजे में कहा।
लेकिन विजय को शायद यह अच्छा नहीं लगा। उसने नूर से कहा, ‘‘लेकिन, सर, उपन्यास लिखने के लिए तो कारखाने की पूरी वर्किंग आपको मालूम होनी चाहिए। फर्स्ट हैंड नॉलेज। उसके अंदर क्या बनता है, कैसे बनता है, लोग कैसे काम करते हैं, वगैरह...’’
नूर उसकी बात सुनकर मुस्कराये और बोले, ‘‘आप यह बताइए, क्या धरती गोल है?’’
‘‘जी? जी, हाँ...’’
‘‘और वह घूमती भी है?’’
‘‘जी, हाँ...’’
‘‘क्या आपने उसकी गोलाई को देखा है? उसे घूमते हुए देखा है? यह आपकी फर्स्ट हैंड नॉलेज तो नहीं है न? फिर भी यह सत्य तो है न? इस सत्य को आपने पुस्तकों से, शिक्षकों से या कहीं से भी जाना हो, इससे क्या फर्क पड़ता है?’’
एक क्षण रुककर नूर ने अपने सामने रखी फाइलों की तरफ इशारा किया, ‘‘इस जानकारी को जमा करने में मैंने पंद्रह साल लगाये हैं। पंद्रह साल! आपको क्या मालूम कि इसके लिए मैंने कितनी लाइब्रेरियों की खाक छानी है, कितनी पुस्तकें और पत्रिकाएँ खरीदकर पढ़ी हैं, कितनी मेहनत से उनमें से नोट्स लिये हैं और कहाँ-कहाँ जाकर किन-किन लोगों से कितनी पूछताछ की है! मैं उन लोगों में से नहीं हूँ, जो भोपाल गैस त्रासदी पर लेख, कविताएँ और कहानियाँ लिखते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि यूनियन कार्बाइड के कारखाने में क्या बनता था। आपने सेविन का नाम सुना है?’’
‘‘सेविन?’’ विजय सकपका गया, ‘‘आपका मतलब है हिंदी में सात?’’
‘‘जी, नहीं! एस ई वी आइ एन सेविन। यह एक पेस्टीसाइड है। कीटनाशक। इसको बनाने में यूनियन कार्बाइड मिक गैस का इस्तेमाल करती थी। सेविन यूरोप और अमरीका में भी बनाया जाता है, मगर सीधे मिक से नहीं। वहाँ की सरकारें जानती हैं कि मिक कितनी खतरनाक गैस है। इसलिए वहाँ सीधे मिक से सेविन बनाने की इजाजत नहीं है। लेकिन यूनियन कार्बाइड ने भोपाल के अपने कारखाने में सीधे उसी से सेविन बनाना शुरू कर दिया, क्योंकि इस तरह सेविन बनाने में खर्च कम आता था। यह प्रक्रिया यहाँ के लोगों के लिए चाहे जितनी खतरनाक हो, पर कंपनी के लिए कम खर्चीली थी। दूसरी तरह से कहें, तो ज्यादा मुनाफा देने वाली।’’
विजय फँस गया था। उसने कुछ कहने के लिए कहा, ‘‘लेकिन, सर, विदेशी कंपनियों के पास तो इतनी पूँजी होती है कि वे सारी दुनिया में अपना कारोबार फैला सकें। फिर यूनियन कार्बाइड को अपना खर्च कम करने की इतनी चिंता क्यों थी?’’
‘‘यही तो मुख्य बात है!’’ नूर ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘देखिए, कंपनी देशी हो या विदेशी, उसका एकमात्र उद्देश्य होता है ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना। इसके लिए हर कंपनी अपना माल ऊँचे से ऊँचे दाम पर बेचना चाहती है। लेकिन इसमें आड़े आ जाती हैं दूसरी कंपनियाँ, जिनसे उसे बाजार में प्रतिस्पर्द्धा करनी होती है। उनसे मुकाबला करने के लिए जरूरी हो जाता है कि माल के दाम कम रखे जायें। लेकिन दाम कम रखने से कंपनी का मुनाफा कम हो जाता है। तब कंपनी के सामने मुनाफा बढ़ाने का एक ही रास्ता बचता है--खर्च घटाना। यानी लागत कम से कम लगाना। और यही वह चीज है, जो मल्टीनेशनल कंपनियों को जन्म देती है। मान लीजिए, एक अमरीकी कंपनी अमरीका में ही अपना माल बनाकर बेचना चाहे, तो उसे अमरीकी मानकों के मुताबिक अपना कारखाना बनाना पड़ेगा, वहीं के मानकों के मुताबिक सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ेंगे, कर्मचारियों को वहीं के मानकों के मुताबिक तनख्वाहें और दूसरी सुविधाएँ देनी पड़ेंगी और माल की क्वालिटी भी ऐसी रखनी पड़ेगी, जो वहाँ के मानकों पर खरी उतरे। यह सब उसके लिए बहुत खर्चीला होगा और उसका मुनाफा कम हो जायेगा। इसलिए वह कंपनी क्या करती है कि अपना माल अमरीका में न बनाकर किसी गरीब या पिछड़े देश में जाकर बनाती है, जहाँ कारखाना लगाना और चलाना बहुत सस्ता पड़ता है और जहाँ की सरकार पर दबाव डालकर या सरकारी लोगों को घूस देकर वह मनमानी कर सकती है। इस तरह उसका खर्च बहुत कम हो जाता है--यानी मुनाफा बहुत बढ़ जाता है।’’
नूर अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे। विजय क्या महसूस कर रहा था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं अब ऊबने लगा था। मेरे लिए ये कोई नयी बातें नहीं थीं। फिर भी मैं चुपचाप सुन रहा था, तो सिर्फ इसलिए कि ये बातें मुझे उस आदमी के मुँह से सुनने को मिल रही थीं, जो पहले शेरो-शायरी के अलावा कोई बात ही नहीं करता था और गंभीर साहित्यिक चर्चाओं तक से बड़ी जल्दी ऊब जाता था।
अच्छा हुआ कि आयशा चाय ले आयी। चाय की ट्रे मेज पर रखकर और शर्बत के जूठे गिलासों की ट्रे उठाकर ले जाते हुए उसने कहा, ‘‘दादू, गर्मागरम पकौड़े भी ला रही हूँ।’’
‘‘आप पकौड़े बना लेंगी?’’ नूर ने ऐसे कहा, जैसे चाहते हों कि आयशा पकौड़े बना ले, पर डरते भी हों कि यह लड़की बना भी पायेगी या नहीं।
‘‘घर में कोई और नहीं है क्या?’’ मैंने चिंतित होकर पूछा।
‘‘इसके माता-पिता बंबई गये हुए हैं।’’ नूर ने कुछ परेशानी के साथ बताया, ‘‘फिलहाल यही घर की मालकिन और बावर्चिन है। आजकल यही मुझे पाल रही है। बिलकुल एक माँ की तरह।’’
मैं आयशा के माता-पिता के बारे में कुछ और जानना चाहता था, लेकिन विजय ने बातचीत का रुख मोड़ते हुए नूर से कहा, ‘‘सर, उपन्यास लिखने के लिए जरूरी जानकारी तो आपने काफी जुटा ली है, पर उपन्यास की कहानी क्या है?’’
मुझे लगा कि शायद अब नूर अपने परिवार के समाप्त हो जाने की करुण कथा सुनायेंगे, या अपने अकेले रह जाने के दुख का वर्णन करेंगे, लेकिन विजय का प्रश्न सुनकर उन्होंने हल्की-सी झुँझलाहट के साथ कहा, ‘‘कहानी ही तो सुना रहा हूँ!’’
मैंने कहा, ‘‘विजय जी का मतलब शायद यह है कि उपन्यास का कथानक क्या है, उसमें किन पात्रों की कहानी कही जायेगी और कैसे।’’
इतने में आयशा पकौड़ों की प्लेट और चटनी ले आयी। हमारे साथ-साथ नूर ने भी एक पकौड़ा उठा लिया और उसे कुतरते हुए कहा, ‘‘राजन भाई, मैं विकास के नाम पर होने वाले विनाश की कहानी कहना चाहता हूँ। लेकिन कैसे कहूँ, कहाँ से शुरू करूँ, कुछ समझ में नहीं आता। आप तो कथाकार हैं, मुझे कुछ सुझाइए न!’’
विजय ने एक गर्मागरम पकौड़ा पूरा का पूरा अपने मुँह में रख लिया था, जिसे चबाकर निगल जाने में उसे दिक्कत हो रही थी। उसका मुँह जल रहा था, फिर भी वह मेरे कुछ कहने से पहले ही भरे मुँह से बोल पड़ा, ‘‘आपके साथ जो घटा-बीता है, वही लिखिए न! राजन जी ने कहीं लिखा है कि लेखक आपबीती को जगबीती और जगबीती को आपबीती बनाकर कहानी लिखता है।’’ फिर जैसे-तैसे पकौड़ा निगलकर उसने मुझसे पूछा, ‘‘क्यों, सर, मुझे ठीक याद है न? आपने यही कहा है न?’’
मैंने उत्तर नहीं दिया। उसके प्रश्न को अनसुना करके नूर की ओर ही देखता रहा। नूर को विजय का बीच में टपक पड़ना अच्छा नहीं लगा। अपने मनोभाव को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘विजय साहब, आप तो भोपाल में ही हैं। आपकी सलाह तो मैं लेता ही रहूँगा। राजन भाई दिल्ली से आये हैं और ये उन लेखकों में से नहीं हैं, जो दिल्ली से अक्सर भोपाल आते रहते हैं।’’
इसी बीच मुझे एक बात सूझ गयी और मैंने कहा, ‘‘नूर भाई, आपको मालूम होगा, यूनियन कार्बाइड ने भोपाल गैस-कांड के बाद अपनी सफाई में एक बयान दिया था?’’
‘‘हाँ, मुझे मालूम है। इन फाइलों में से किसी में मैंने उसे सँभालकर रखा भी है।’’
‘‘तो मेरा खयाल है, उसी से उपन्यास की शुरूआत करना ठीक रहेगा।’’
‘‘मैं ठीक से उसे याद नहीं कर पा रहा हूँ, जरा याद दिलाइए कि उसमें क्या था।’’
‘‘उसमें यूनियन कार्बाइड ने इस बात से इनकार नहीं किया कि भोपाल में उसका कारखाना था और उस कारखाने में मिक से कीटनाशक बनाये जाते थे। बल्कि उसने गर्व के साथ कहा कि भोपाल वाला उसका कारखाना तो तीसरी दुनिया के देशों में खाद्य उत्पादन बढ़ाने में सफल हरित क्रांति में सहायक था। कंपनी ने अपनी वेबसाइट के जरिये दुनिया भर को बताया कि उसने भोपाल में अपना कारखाना एक महान मानवीय उद्देश्य के लिए लगाया था। वह उद्देश्य था भारतीय कृषि उत्पादन की रक्षा के लिए कीटनाशक उपलब्ध कराना और उसके साथ ही भारतीय उद्योग और व्यापार को नये तौर-तरीकों से विकसित करके आगे बढ़ाना। कंपनी ने कहा था--हमारा खयाल था कि भारत में हमने जो निवेश किया है, उसे भारतीय लोगों ने पसंद किया है और वहाँ हमारी साख अच्छी बनी है। लेकिन भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खलनायक समझा जाता है, सो हमें भी समझा गया। हम पर आरोप है कि हमने वहाँ के अपने कारखाने में मिक से सुरक्षा के उपाय नहीं किये। मगर यह आरोप निराधार है। हम तो हमेशा ही सुरक्षा के मानकों का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं। हम पर भारत की जनता और वहाँ के संसाधनों का शोषण करने का आरोप भी लगाया जाता है। लेकिन यह आरोप भी निराधार है। हम तो चौरासी में हुई उस त्रासद घटना के दिन से ही वहाँ के लोगों के प्रति करुणा और सहानुभूति से विचलित हैं।’’
नूर ने अत्यंत घृणा और क्षोभ के साथ कहा, ‘‘कंपनी के दिल में कितनी करुणा और सहानुभूति थी, यह तो हमने मुआवजे के मामले में देख लिया! उसकी करुणा और सहानुभूति उस रासायनिक कचरे के रूप में भी यहाँ पड़ी हुई है, जिससे यहाँ की मिट्टी, पानी और हवा में आज तक प्रदूषण फैल रहा है और लोगों में तरह-तरह की बीमारियाँ पैदा कर रहा है। वह कचरा तमाम तरह के लोगों, संगठनों और संस्थाओं के लगातार हल्ला मचाते रहने पर भी आज तक साफ नहीं किया गया है। करुणा और सहानुभूति! माइ फुट!’’
क्षुब्ध नूर कुछ देर चुप रहे, फिर सहसा उन्होंने मेरी ओर विस्मय भरी आँखों से देखते हुए कहा, ‘‘कमाल है, आपको तो यूनियन कार्बाइड का वह बयान तकरीबन हू-ब-हू याद है!’’
‘‘दरअसल मैं भी गैस-कांड पर कुछ लिखना चाहता था। एक कहानी लिखी भी थी। पता नहीं, वह आपकी नजरों से गुजरी या नहीं।’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं पढ़ी, लेकिन मैं उसे जरूर पढ़ना चाहूँगा। आप दिल्ली जाकर मुझे उसकी फोटोकॉपी भेज देंगे?’’
‘‘जरूर।’’
‘‘आपने बहुत अच्छा सुझाव दिया है, राजन भाई! मैं अपना उपन्यास कंपनी के उस बयान से ही शुरू करूँगा। लेकिन आपको याद होगा, उसी बयान में कंपनी ने यह भी कहा था कि भोपाल के गैस-कांड के लिए वह जिम्मेदार नहीं है। उसने कहा था कि उस घटना के बाद हमने अपने तौर पर पूरी जाँच की, जिससे पता चला कि यह निश्चित रूप से तोड़-फोड़ की कार्रवाई थी और तोड़-फोड़ हमारे भोपाल कारखाने के किसी कर्मचारी ने ही की थी। उस कर्मचारी ने जान-बूझकर मिथाइल आइसोसाइनेट से भरे हुए टैंक में पानी डाल दिया था। गैस में पानी डाल देने से टैंक फट गया और जहरीली गैस निकल पड़ी। कंपनी ने जोर देकर कहा कि सच यही था, लेकिन यह सच भारत सरकार ने लोगों को अच्छी तरह बताया नहीं। इसलिए भारत सरकार भी दोषी है, जो भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों की दुर्दशा से उदासीन है।’’
मुझे सहसा याद आया कि ‘भोपाल गैस त्रासदी’ पद का इस्तेमाल शायद पहली बार यूनियन कार्बाइड के उसी बयान में किया गया था। मैंने यह बात नूर को बतायी, तो उन्होंने कहा, ‘‘अक्सर यही होता है। वे अपने विरोध की भाषा भी खुद ही हमें सिखा देते हैं और हम सोचे-समझे बिना उसे सीखकर रट्टू तोते की तरह दोहराते रहते हैं।’’
‘‘लेकिन, सर, तोड़-फोड़ की बात तो यहाँ के अखबारों में भी छपी थी। उसमें किसी असंतुष्ट कर्मचारी का हाथ था। हमारे लोगों में यह बड़ी खराबी है कि असंतुष्ट होने पर फौरन तोड़-फोड़ पर उतर आते हैं। यह नहीं सोचते कि इसका नतीजा क्या होगा।’’
मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने कहा, ‘‘विजय जी, तोड़-फोड़ का आरोप कंपनी ने लगाया जरूर, लेकिन तोड़-फोड़ करने वाले कर्मचारी का नाम कंपनी ने कभी नहीं बताया!’’
‘‘बता ही नहीं सकती थी!’’ नूर उत्तेजित हो उठे, ‘‘अगर वाकई ऐसा कोई कर्मचारी होता, तो कंपनी उसे जरूर पकड़ लेती। इतनी बड़ी कंपनी क्या एक गरीब देश के गरीब आदमी को नहीं पकड़ सकती थी? उसे पकड़कर वह ठोस सबूत के साथ अदालत में पेश करती--न्यायिक अदालत में ही नहीं, मीडिया के जरिये दुनिया की अदालत में भी--लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने अनुमानों के आधार पर यह नतीजा निकाला कि ऐसा हो सकता है या ऐसा हुआ होगा। यानी कोरा अंदाजा, कोई ठोस सबूत नहीं।’’
कहते-कहते नूर ने एक मोटी-सी फाइल उठायी और उस पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘ठोस सबूत यहाँ हैं! कंपनी ने एक झूठी कहानी गढ़कर दुनिया को सुनायी थी। सच्ची कहानी यह है कि न तो कारखाना निर्धारित मानकों के मुताबिक बनाया गया था और न ही उसका रख-रखाव ठीक था। कंपनी ने अपना खर्च बचाने के लिए मिक गैस के टैंकों में कार्बन-स्टील के वॉल्व लगवाये थे, जो तेजाब से गल जाते हैं। फिर, उन टैंकों में जरूरत से ज्यादा गैस भरी जा रही थी, क्योंकि गैस का उत्पादन उसकी खपत से ज्यादा हो रहा था। कंपनी के कीटनाशक उतने नहीं बिक रहे थे, जितने बिकने की उसे उम्मीद थी। कंपनी को घाटा हो रहा था। इसलिए चौरासी के दो साल पहले से ही उसने खर्चों में कटौती करना शुरू कर दिया था, जिसका सीधा असर सुरक्षा के उपायों पर पड़ रहा था। मसलन, कारखाने के कर्मचारी अपने अधिकारी से कहते हैं कि सर, यह पाइप लीक कर रहा है, इसे बदलना पड़ेगा। लेकिन अधिकारी कहता है--बदलने की जरूरत नहीं, पैचअप कर दो। खर्च में कटौती कर्मचारियों की संख्या कम करके भी की गयी। मिक गैस के ऑपरेटर पहले बारह थे। चौरासी तक आते-आते छह रह गये। सुपरवाइजर भी आधे कर दिये गये थे। रात पाली में कोई मेंटेनेंस सुपरवाइजर नहीं रहता था। जैसे रात में उसकी जरूरत ही खत्म हो जाती हो। ऐसे हालात में दुर्घटनाओं का होना तो निश्चित ही था और वे हुईं।’’
‘‘दुर्घटनाएँ?’’ विजय, जो अब लगभग अकेला ही पकौड़े खा रहा था, फिर हम दोनों की बातचीत के बीच टपक पड़ा, ‘‘दुर्घटना तो एक ही हुई थी न, सर, चौरासी में?’’
‘‘आप भोपाल में रहते हैं या किसी दूसरी दुनिया में?’’ नूर ने हिकारत के साथ विजय से कहा, ‘‘यूनियन कार्बाइड के कारखाने से गैस चौरासी में ही नहीं, पहले भी निकली थी। और क्यों न निकलती? उत्पादन ज्यादा और खपत कम होने से कारखाने में गैस बहुत ज्यादा इकट्ठी होती जा रही थी। अमरीका या यूरोप में ऐसा होता, तो कंपनी सरकार को यह बताने को बाध्य होती कि उसके कारखाने में यह गैस जरूरत से ज्यादा इकट्ठी हो गयी है। और वहाँ की सरकार तुरंत कोई कार्रवाई करती, ताकि कोई दुर्घटना न घट जाये। लेकिन यूनियन कार्बाइड को मध्यप्रदेश या भारत सरकार की क्या परवाह थी! उसने ऐसी कोई सूचना सरकार को नहीं दी।’’
मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी, इसलिए मैंने कहा, ‘‘अजीब बात है!’’
‘‘अजीब बातें तो बहुत सारी हैं, राजन भाई! सुरक्षा के इंतजामों की कहानी सुनिए। कारखाने के ओवरसियर अपने अधिकारी से कहते हैं कि सर, यहाँ के कर्मचारियों को बेहतर प्रशिक्षण की जरूरत है। मगर अधिकारी कहता है--कम प्रशिक्षण से भी काम चलाया जा सकता है। ओवरसियर कहते हैं--सर, सारे के सारे इंस्ट्रक्शन-मैनुअल अंग्रेजी में हैं और कारखाने के कर्मचारी अंग्रेजी नहीं समझते। लेकिन अधिकारी कहता है--वे अंग्रेजी नहीं समझते, तो तुम उन्हें हिंदी में समझा दो। तुम किस मर्ज की दवा हो? एक समय तो ऐसा भी आया कि कर्मचारियों की नियमानुसार होने वाली तरक्की भी रोक दी गयी। कह दिया गया कि कंपनी घाटे में चल रही है, तो तरक्की कैसे दी जा सकती है? इसकी वजह से कई लोग, जो दूसरी जगह बेहतर नौकरी पा सकते थे, नौकरी छोड़कर चले गये। लेकिन उनकी जगह नयी नियुक्तियाँ नहीं की गयीं। शायद यह सोचकर कि चलो, अच्छा हुआ, कुछ खर्च बचा! मगर इसका नतीजा क्या हुआ? कारखाने में गैस के रख-रखाव की देखभाल करने वाले लोग बहुत कम रह गये। मिसाल के तौर पर, टैंकों में गैस कितनी है, यह बताने के लिए जो इंडीकेटर लगे हुए थे, उनकी रीडिंग कायदे से हर घंटे ली जानी चाहिए थी। पहले ली भी जाती थी, मगर चूँकि कर्मचारी आधे रह गये थे, इसलिए वह रीडिंग हर दो घंटे बाद ली जाने लगी। रात में रीडिंग ली भी जाती थी या नहीं, अल्लाह ही जाने!’’
मैंने कहीं पढ़ा था कि चौरासी के चार-पाँच साल पहले से ही कारखाने के कर्मचारी गैस के रिसाव की शिकायत करने लगे थे। इक्यासी में कारखाने की जाँच करने के लिए कुछ अमरीकी विशेषज्ञ बुलाये गये थे। उन्होंने खुद कहा था कि मिक के एक स्टोरेज टैंक में ‘रनअवे रिएक्शन’ हो सकता है।
मैं उस बात को याद कर रहा था और नूर विजय से कह रहे थे, ‘‘विजय साहब, आपको याद नहीं कि सन् बयासी के अक्टूबर महीने में क्या हुआ था? कारखाने में इतनी गैस लीक हुई थी कि कई कर्मचारियों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था।’’
विजय ने प्लेट में पड़े आखिरी पकौड़े को चटनी में सानते हुए पूछा, ‘‘तो हमारी सरकार क्या कर रही थी?’’
नूर ने कड़वा-सा मुँह बनाते हुए उत्तर दिया, ‘‘हमारी सरकार! उसके पास कारखाने के आसपास होने वाले वायु प्रदूषण को जाँचते रहने की न तो कोई व्यवस्था थी और न उसके लिए जरूरी उपकरण। और जब कर्मचारियों ने संभावित दुर्घटनाओं से बचाव के उपाय न किये जाने का विरोध किया, तो उसे अनसुना कर दिया गया। एक कर्मचारी ने अपना विरोध प्रकट करने के लिए पंद्रह दिनों की भूख हड़ताल की। लेकिन उसे नौकरी से निकाल दिया गया। कर्मचारियों की सुरक्षा पर होने वाले खर्च में लगातार कटौती की जाती रही और गैस रिसने की छोटी-मोटी घटनाएँ कारखाने के अंदर होती रहीं। चौरासी में जो कुछ हुआ, वह इसी खर्च-कटौती और लापरवाही का नतीजा था।’’
विजय फिर कुछ कहने को हुआ, लेकिन नूर ने कहना जारी रखा, ‘‘आपको मालूम है, मिक को रिसने से रोकने के लिए उसका मेंटेनेंस टेंपरेचर चार या पाँच डिग्री सेल्सियस रखना जरूरी होता है? इसके लिए कारखाने में एक रेफ्रिजरेशन सिस्टम मौजूद था, लेकिन पॉवर का खर्च बचाने के लिए उस सिस्टम को बंद कर दिया गया था और गैस बीस डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रखी जा रही थी। फिर, जो टैंक फटा, वह एक सप्ताह से ठीक तरह से काम नहीं कर रहा था। लेकिन उसे ठीक कराने के बजाय अधिकारियों ने उसे उसी हाल में छोड़ दिया और दूसरे टैंकों से काम लेने लगे। इसका ही नतीजा था कि उस टैंक के अंदर प्रेशर कुकर का-सा दबाव बन गया और विस्फोट हो गया।’’
नूर ने आँखें बंद कर लीं, जैसे अभी-अभी उन्होंने उस विस्फोट को सुना हो और उससे होने वाली तबाही अपने भीतर के किसी परदे पर देख रहे हों।
‘‘आपने तो पूरी रिसर्च कर रखी है, सर!’’ विजय ने आखिरी पकौड़ा खाकर रूमाल से हाथ-मुँह पोंछते हुए कहा।
नूर ने अपने प्याले में ठंडी हो चुकी चाय को एक घूँट में खत्म किया और उस भयानक रात के बारे में बताने लगे, जिस रात उनका पूरा परिवार गैस-कांड में मारा गया था, ‘‘उस रात जिस टैंक से गैस निकली थी, उसका कार्बन-स्टील वॉल्व गला हुआ पाया गया था, लेकिन उसे ठीक नहीं कराया गया था। इतना ही नहीं, उस टैंक पर लगा हुआ ऑटोमेटिक अलार्म पिछले चार साल से काम नहीं कर रहा था। उसकी जगह एक मैनुअल अलार्म से काम चलाया जा रहा था। यही कारखाना अमरीका में होता, तो क्या वहाँ ऐसी लापरवाही की जा सकती थी? वहाँ ऐसे टैंकों पर एक नहीं, चार-चार अलार्म सिस्टम होते हैं और गैस रिसने का जरा-सा अंदेशा होते ही खतरे की घंटियाँ बजने लगती हैं। लेकिन यहाँ कोई घंटी नहीं बजी। वहाँ के लोगों की हिफाजत जरूरी है, यहाँ के लोग तो कीड़े-मकोड़े हैं न! मरते हैं तो मर जायें! कंपनी की बला से!’’
अभी तक नूर किसी वैज्ञानिक की-सी तटस्थता के साथ बोलते आ रहे थे, लेकिन ‘कीड़े-मकोड़े’ कहते हुए उनका गला रुँध गया और बात पूरी होते-होते उनकी आँखों से आँसू बह निकले।
मैं उन्हें सांत्वना देने के लिए उठा, लेकिन उन्होंने मुझे हाथ के इशारे से रोक दिया और उठकर अपने कमरे से अटैच्ड बाथरूम में जाकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। मुझे लगा, निश्चय ही वे वहाँ फूट-फूटकर रो रहे होंगे।
‘‘ये कभी कोई उपन्यास नहीं लिख सकते।’’ विजय ने बाथरूम के बंद दरवाजे की ओर देखते हुए हिकारत के साथ कहा।
‘‘क्यों?’’ मैंने कुछ सख्ती से पूछा।
‘‘क्योंकि इनके पास केवल तथ्य और आँकड़े हैं। कहानी कहाँ है?’’ विजय ने ऐसे कहा, जैसे वह कहानी-कला का मर्मज्ञ हो, ‘‘मैं यह उम्मीद कर रहा था कि वे आपको अपने निजी अनुभव सुनायेंगे। लेकिन वे तो अपनी रिसर्च की थीसिस सुनाने बैठ गये। और इनकी थीसिस में है क्या? सिर्फ एक चीज--अमरीका की खाट खड़ी करना! मुसलमान हैं न!’’
‘‘क्या मतलब?’’ मुझे उस पर गुस्सा आने लगा।
‘‘अमरीका मुसलमानों को पसंद नहीं करता न! वह इन्हें आतंकवादी मानता है। जो कि ये लोग होते भी हैं।’’
‘‘आपको ऐसी बातें करते शर्म नहीं आती? आप एक निहायत भले इंसान के घर में बैठे हैं, जिसका पूरा परिवार गैस-कांड में मारा जा चुका है। और आप उसे एक मुसलमान और आतंकवादी के रूप में देख रहे हैं? आप तो भोपाल में रहते हैं, आपको तो पता ही होगा कि उस गैस-कांड में सिर्फ मुसलमान नहीं, सभी तरह के लोग मारे गये थे। यूनियन कार्बाइड के लिए वे सभी समान रूप से कीड़े-मकोड़े थे।’’
‘‘आप तो उनका पक्ष लेंगे ही। आप दोनों जनवादी हैं न!’’ विजय ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘मैं तो यह सोच रहा था कि मुझे कोई अच्छी कहानी सुनने को मिलेगी।’’
‘‘अच्छी कहानी से आपका क्या मतलब है?’’ मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था।
‘‘मैं सोच रहा था, नूर साहब यह बतायेंगे कि परिवार के न रहने पर इन्हें कैसा लगा। अकेले रह जाने पर इन्हें क्या-क्या अनुभव हुए। फिर से घर बसाने का विचार मन में आया कि नहीं आया। और सबसे खास बात यह कि इन पंद्रह सालों में इनकी सेक्सुअल लाइफ क्या रही। सेक्स तो इंसान की बेसिक नीड है न! और यहाँ आप देख ही रहे हैं, दादा अपनी जवान पोती के साथ घर में अकेला मौज कर रहा है!’’
‘‘शट अप एंड गेट आउट!’’ मैंने विजय को तर्जनी हिलाकर आदेश दिया और जब वह नासमझ-सा उठकर खड़ा हो गया, तो मैंने जोर से कहा, ‘‘अब आप फौरन यहाँ से चले जाइए! मैं अब आपको एक क्षण भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। जाइए, निकल जाइए!’’
‘‘लेकिन मैं तो आपको आपके होटल तक छोड़ने...’’
‘‘मेरी चिंता छोड़िए और जाइए।’’ मैंने शायद कुछ इस तरह कहा कि वह डर गया और अपनी कार की चाभी उठाकर कमरे से निकल गया। थोड़ी देर बाद ही नीचे से मैंने उसकी कार के स्टार्ट होने की आवाज सुनी।
नूर बाथरूम से निकलकर आये, तो उन्होंने पूछा कि विजय कहाँ गया। मैंने उन्हें बता दिया कि वह बकवास कर रहा था, मैंने उसे भगा दिया। नूर इस पर कुछ बोले नहीं, लेकिन मुझे लगा कि उन्होंने राहत की साँस ली है। तभी आयशा पकौड़ों की खाली प्लेट और चाय के खाली प्याले उठाने आयी। उसने मुझसे कहा, ‘‘दादू, आपने बहुत अच्छा किया, जो उस बदमाश को भगा दिया। मैं सब सुन रही थी।’’ वह बहुत गुस्से में थी।
‘‘साहित्यकार बनते हैं, लेकिन समझ और तमीज बिलकुल नहीं।’’ नूर भी गुस्से में थे।
मैंने उस प्रसंग को वहीं समाप्त करने के लिए कहा, ‘‘आयशा बेटी, तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। तुम्हारे माता-पिता भी यहाँ होते, तो और अच्छा रहता। मैं उनसे भी मिल लेता।’’
‘‘वे दोनों बंबई गये हैं।’’ नूर ने उदास आवाज में कहा, ‘‘वहाँ इसकी माँ का इलाज चल रहा है। उसकी आँखें तो बच गयीं, पर फेफड़े अब भी जख्मी हैं।’’
‘‘क्या वह भी...?’’ मैं सिहर-सा गया।
‘‘हाँ, उस रात बदकिस्मती से वह हमारे ही घर पर थी। मैं इंदौर गया हुआ था और मेरी माँ की तबीयत ठीक नहीं थी। आयशा की माँ मेरी बीमार माँ को देखने हमारे घर आयी हुई थी। आयशा उस वक्त बहुत छोटी थी। डेढ़-दो साल की। इसकी माँ इसे दादी के पास छोड़कर अकेली ही चली आयी थी कि शाम तक लौट जायेगी। लेकिन मेरी माँ ने उसे रोक लिया कि सुबह चली जाना। और उसी रात वह कांड हो गया। बेचारी वह भी चपेट में आ गयी। आयशा, इसके अब्बू और दादा-दादी बच गये, क्योंकि ये लोग शहर के उस इलाके में रहते थे, जहाँ गैस नहीं पहुँची थी। अब इसे किस्मत कहिए या चमत्कार, मेरे घर में उस रात बाकी सब मर गये, आयशा की माँ बच गयी। लेकिन बस, जिंदा ही बची। बीमार वह अब भी है। उसका इलाज यहाँ ठीक से नहीं हो पा रहा था। बंबई ले जाना पड़ा। वहाँ के इलाज से कुछ फायदा है, सो वहीं का इलाज चल रहा है। महीने में दो बार ले जाना पड़ता है। इतने साल हो गये...’’
आयशा जूठे बर्तनों की ट्रे उठाये खड़ी सुन रही थी। आखिर उसने नूर को टोक ही दिया, ‘‘दादू, यह क्यों नहीं कहते कि आपने ही मेरी अम्मी को बचा लिया। उनके इलाज पर जितना खर्च हो रहा है, उतना अकेले अब्बू तो कभी न उठा पाते। यों कहिए कि आपने अम्मी को ही नहीं, अब्बू को और मुझे भी बचा लिया।’’
‘‘नहीं, बेटा, बात बिलकुल उलटी है। तुम सबने ही मुझे बचा लिया। अकेला तो मैं टूट गया होता। कभी का कब्रिस्तान पहुँच गया होता।’’
नूर बहुत भावुक हो आये थे। शायद फिर से रो पड़ते। लेकिन आयशा ने समझदारी दिखायी। बोली, ‘‘अच्छा, यह सब छोड़िए, यह बताइए कि खाने के लिए क्या बनाऊँ?’’
‘‘यह तो अपने दिल्ली वाले दादू से पूछो।’’ कहते हुए नूर मुस्कराये।
‘‘नहीं-नहीं, आप तकल्लुफ न करें। मेरे खाने का इंतजाम होटल में है।’’ मैंने कहा और उठकर खड़ा हो गया, ‘‘अब मैं चलूँगा।’’
‘‘खाना खाकर जाइए न, दादू! मैं अच्छा बनाती हूँ।’’
‘‘वह तो मैं तुम्हारे बनाये पकौड़े चखकर ही जान गया हूँ।’’ मैंने कहा।
‘‘तो चलिए, मैं आपको छोड़ आऊँ।’’ नूर भी उठ खड़े हुए, ‘‘आयशा बेटा, गाड़ी की चाभी।’’
‘‘आप क्यों तकलीफ करते हैं, मैं चला जाऊँगा।’’
‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है!’’ नूर ने कहा, ‘‘थोड़ी देर बैठिए, मैं कपड़े बदल लूँ।’’
आयशा अंदर चली गयी। नूर मेरे सामने ही कपड़े बदलते हुए मुझसे बातें करने लगे, ‘‘आप एक जमाने के बाद आये और ऐसे ही चले जा रहे हैं। अभी तो कोई बात ही नहीं हुई। मैंने बेकार की बातों में आपकी शाम बर्बाद कर दी।’’
‘‘नहीं, नूर भाई, बिलकुल नहीं। मैं तो कहूँगा कि आपने मेरा भोपाल आना सार्थक कर दिया। सच कहूँ, तो आपसे मिलने से पहले मैं डर रहा था कि कहीं मैं आपको एक टूटे-बिखरे इंसान के रूप में न देखूँ। लेकिन आप तो बड़े जुझारू इंसान हैं। सचमुच एक रचनाकार को जैसा होना चाहिए। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि एक शायर पंद्रह साल से एक उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहा होगा। और वह भी ऐसा उपन्यास!’’
बात फिर उपन्यास पर आ गयी, तो नूर फिर जोश में आ गये, ‘‘उपन्यास के लिए मसाला तो मैंने बहुत सारा जमा कर लिया है। लेकिन यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि इसे कहानी के रूप में किस तरह ढालूँ। मैं जो कहानी कहना चाहता हूँ, वह किसी एक व्यक्ति की, एक परिवार की, एक शहर की या एक देश की नहीं, बल्कि सारी दुनिया की कहानी होगी। मुझे लगता है, ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में साहित्य को भी ग्लोबल होना पड़ेगा। मगर किस तरह?’’
‘‘मैं भी आजकल इसी समस्या से जूझ रहा हूँ।’’
‘‘तो कुछ बताइए न, मुझे यह उपन्यास कैसे लिखना चाहिए?’’
‘‘नूर भाई, यह मैं कैसे बता सकता हूँ? लिखना चाहे जितना सार्वजनिक या वैश्विक हो जाये, अंततः वह एक नितांत व्यक्तिगत काम है। यह तो वह जंगल है, जिसमें से हर किसी को अपना रास्ता खुद ही निकालना पड़ता है।’’
‘‘अच्छा, आप उपन्यास का कोई अच्छा-सा नाम तो सुझा सकते हैं?’’
‘‘आपने क्या सोचा है?’’
‘‘मैंने तो ‘कीटनाशक’ सोचा है। कैसा रहेगा? मैं इसे देश के किसानों के उन हालात से भी जोड़ना चाहता हूँ, जो अक्सर कीटनाशक ही खाकर आत्महत्याएँ करते हैं। मैं उपन्यास में यह दिखाना चाहता हूँ कि आज का पूँजीवाद हमारे जैसे देशों में कैसा विकास कर रहा है और उससे किसानों का कैसा सर्वनाश हो रहा है।’’
‘‘तब तो ‘कीटनाशक’ बहुत अच्छा नाम है। आपके उपन्यास के लिए अभी से बधाई!’’
‘‘शुक्रिया!’’ नूर ने मुस्कराते हुए कहा और चलने के लिए तैयार होकर बोले, ‘‘आइए।’’
आयशा ने अंदर से आकर उन्हें कार की चाभी दी और मुझे सलाम किया। मैंने आशीर्वाद दिया। उसने फिर आने के लिए कहा, तो मैंने उसे सबके साथ दिल्ली आने का निमंत्रण दिया।
नीचे उतरकर जब मैं नूर की कार में बैठने लगा, तो ऊपर से आयशा की आवाज आयी, ‘‘दिल्ली वाले दादू, खुदा हाफिज!’’
मैंने सिर उठाकर देखा, आयशा बालकनी में खड़ी हाथ हिलाकर मुझे विदा कर रही थी।
हालाँकि रात हो चुकी थी, फिर भी नूर के फ्लैट की बालकनी तक पहुँचे हुए गुलमोहर के लाल फूल सड़क-बत्तियों की रोशनी में चमक रहे थे।
--रमेश उपाध्याय
वे मुझे अस्सी या इक्यासी के साल भोपाल में हुए एक साहित्यिक कार्यक्रम में मिले थे, जिसमें मैंने अपनी कहानी पढ़ी थी और उन्होंने अपनी गजलें। लंबे कद, छरहरे बदन, गोरे रंग, सुंदर चेहरे और हँसमुख स्वभाव वाले नूर भोपाली से मेरी दोस्ती पहली मुलाकात में ही हो गयी थी। कार्यक्रम के बाद वे मुझे आग्रहपूर्वक अपने घर ले गये थे, जो यूनियन कार्बाइड के कारखाने के पास की एक घनी बस्ती में था। उन्होंने अपनी माँ, पत्नी और बच्चों से मुझे मिलवाया था, अच्छी व्हिस्की पिलायी थी, उम्दा खाना खिलाया था, देश-दुनिया के बारे में बड़ी समझदारी की बातें की थीं और मेरे मन पर एक सुशिक्षित, विचारवान, उदार और प्रगतिशील व्यक्तित्व के साथ अपने अच्छे कवित्व की छाप छोड़ी थी।
नूर भोपाली सिर्फ शायरी नहीं, एक बैंक में नौकरी भी करते थे। अच्छा वेतन पाते थे। अच्छा खाते-पीते थे। बच्चों को अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल में अच्छी शिक्षा दिला रहे थे। हमारी पहली मुलाकात के कुछ ही दिन पहले उन्होंने अपने लिए नयी मोटरसाइकिल खरीदी थी। अपने घर पर खाना खिलाकर वे उसी पर बिठाकर मुझे उस होटल तक पहुँचा गये थे, जहाँ मैं ठहरा हुआ था।
गैस-कांड में अपने पूरे परिवार के मारे जाने के बाद वे उसके सदमे से विक्षिप्त हो गये थे। लेकिन कुछ महीने अस्पताल में रहकर ठीक भी हो गये थे। यूनियन कार्बाइड के कारखाने के पास वाली बस्ती में रहना छोड़कर बैंक अधिकारियों के लिए बनी एक नयी कॉलोनी में फ्लैट लेकर रहने लगे थे। अपने एक भतीजे को सपरिवार उन्होंने अपने पास रख लिया था और उसी के परिवार को अपना परिवार मानने लगे थे।
भोपाल के साहित्यिक मित्रों से मुझे उनके बारे में ये सारी सूचनाएँ मिलती रही थीं। जब वे अस्पताल में थे, कई बार मेरे मन में आया कि भोपाल जाकर उन्हें देख आऊँ। लेकिन समझ में नहीं आया कि मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा। विक्षिप्त नूर मुझे पहचानेंगे भी या नहीं? पहचान भी गये, तो मैं उनसे क्या कहूँगा? क्या कहकर उन्हें सांत्वना दूँगा? फिर जब पता चला कि वे ठीक हो गये हैं, नौकरी पर जाने लगे हैं, नयी जगह जाकर अपने फ्लैट में रहने लगे हैं और उनका भतीजा उनकी अच्छी देखभाल कर रहा है, तो मैं निश्ंिचत-सा हो गया था। मैंने उन्हें पत्र लिखा था, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया था। मुझे मेरे मित्रों ने यह भी बताया था कि नूर ने अब साहित्य से संन्यास ले लिया है। पहले हिंदी या उर्दू साहित्य का कोई भी आयोजन हो, वे बिना बुलाये भी लोगों को सुनने पहुँच जाते थे, लेकिन अब गजल पढ़ने के लिए बुलाये जाने पर भी कहीं नहीं जाते। साहित्यिक मित्रों से मिलना-जुलना भी उन्होंने बंद कर दिया है।
लेकिन मुझे गैस-कांड, मुआवजों के लिए होने वाली मुकदमेबाजी, गैस-पीड़ितों की दुर्दशा और यूनियन कार्बाइड के खिलाफ किये जा रहे आंदोलनों से संबंधित लेख या समाचार पढ़ने-सुनने पर नूर की याद जरूर आती थी। इसलिए गैस-कांड के लगभग पंद्रह साल बाद एक साहित्यिक कार्यक्रम में फिर भोपाल जाना हुआ, तो मैंने निश्चय किया कि और किसी से मिलूँ या न मिलूँ, नूर से जरूर मिलूँगा। एक दिन के लिए ही सही, उन्होंने जो प्यार और अपनापन मुझे दिया था, उसे मैं भूला नहीं था।
कार्यक्रम में उपस्थित कुछ लोगों से मैंने नूर भोपाली के बारे में पूछताछ की, तो पाया कि नये लेखक तो उनके बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं, पुराने लेखक भी उनकी कोई खोज-खबर नहीं रखते हैं। मैंने बैंक में काम करने वाले एक लेखक से पूछा, तो पता चला कि वह अपने ब्रांच मैनेजर नूर मुहम्मद साहब को जानता है, जिनका पूरा परिवार गैस-कांड में मारा गया था। विजय प्रताप नामक उस लेखक ने नूर का हुलिया बताकर पूछा, ‘‘क्या वही नूर भोपाली हैं?’’
‘‘जी हाँ, वही।’’ मैंने कहा, ‘‘मुझे उनसे मिलना है।’’
विजय उम्र में मुझसे छोटा था, पहली ही बार मुझे मिला था, लेकिन मुझे जानता था। शायद यह सोचकर कि मैं दिल्ली से आया हूँ, दिल्ली के संपादकों और प्रकाशकों को जानता हूँ और परिचय हो जाने पर किसी दिन उसके काम आ सकता हूँ, वह मेरे प्रति कुछ अधिक आदर और आत्मीयता प्रकट कर रहा था। मेरे कहे बिना ही वह शाम को मुझे नूर के पास ले जाने को तैयार हो गया। उसने कहा, ‘‘कार्यक्रम के बाद आप होटल जाकर थोड़ा आराम कर लें, मैं शाम को छह बजे गाड़ी लेकर आ जाऊँगा और आपको उनके घर ले चलूँगा।’’
शाम को ठीक छह बजे विजय ने मेरे कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी और मुझे साथ लेकर चल पड़ा। अपनी मारुति कार में बैठते-बैठते उसने यह भी बता दिया कि वह बैंक में सहायक शाखा प्रबंधक है और कार उसने कुछ महीने पहले ही खरीदी है। फिर वह अपनी साहित्यिक उपलब्धियाँ बताने लगा। मध्यप्रदेश सरकार से प्राप्त एक पुरस्कार का और आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से तकरीबन हर महीने होने वाले अपनी कविताओं के प्रसारण का जिक्र उसने काफी जोरदार ढंग से किया।
मैं हाँ-हूँ करता रहा, तो वह समझ गया कि मैं उससे प्रभावित नहीं हो रहा हूँ। तब उसने विषय बदलते हुए मुझसे पूछा, ‘‘आप नूर मुहम्मद साहब को कब से और कैसे जानते हैं?’’
मैंने अपनी पिछली भोपाल यात्रा और नूर भोपाली से हुई भेंट के बारे में बताया।
‘‘लेकिन आप तो, सर, हिंदी के लेखक हैं और वे उर्दू के!’’
‘‘तो क्या हुआ?’’ मैं उसकी बात का मतलब नहीं समझा।
‘‘वैसे मेरे भी कई दोस्त मुसलमान हैं।’’
‘‘ओह!’’ अब उसका अभिप्राय मेरी समझ में आया। मैंने जरा तेज-तुर्श आवाज में कहा, ‘‘हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा समझना ठीक नहीं है, विजय जी! यह तो भाषा और साहित्य के बारे में बड़ा ही सांप्रदायिक दृष्टिकोण है।’’
‘‘सॉरी, सर, मेरा मतलब यह नहीं था।’’ विजय ने कहा।
मैं इस पर चुप रहा, तो वह दूसरी बातें करने लगा।
‘‘नूर साहब से आप पहली भेंट के बाद फिर कभी नहीं मिले हैं न?’’
‘‘जी।’’
‘‘सुना है, वे अच्छे शायर हुआ करते थे। उस हादसे के बाद उन्होंने लिखना-पढ़ना छोड़ दिया। मैंने यह भी सुना है कि फिल्म इंडस्ट्री के लोग उनसे फिल्मों के लिए गाने लिखवाना चाहते थे। काफी बड़े ऑफर थे। नूर साहब ने सब ठुकरा दिये। आप क्या सोचते हैं? उनका ऐसा करना ठीक था?’’
‘‘मैं यह कैसे बता सकता हूँ? पता नहीं, उनकी क्या परिस्थिति या मनःस्थिति रही होगी।’’
‘‘मैं मनःस्थिति की ही बात कर रहा हूँ, सर! सुना है, उस हादसे के बाद नूर साहब कुछ समय के लिए पागल हो गये थे।’’
‘‘किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के साथ ऐसा हो सकता है।’’
‘‘लेकिन, सर, नूर साहब को अगर फिल्मों में बढ़िया चांस मिल रहा था, तो उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए था। उससे उनको नाम और पैसा तो मिलता ही, उस हादसे को भुलाने में मदद भी मिलती। उस हादसे में कई लोगों के परिवार खत्म हो गये, लेकिन फिर से उन्होंने अपने घर बसा लिये। लोगों को जिंदा तो रहना ही होता है न, सर!’’
‘‘हाँ, लेकिन सब लोग एक जैसे नहीं होते।’’
‘‘आपको मालूम है, सर, नूर साहब ने मुआवजा भी नहीं माँगा! कह दिया कि मैं अपनी माँ और बीवी-बच्चों की जान के बदले चंद सिक्के नहीं लूँगा। सुना है, उनका यह बयान अखबारों में भी छपा था। लेकिन, सर, अपन को तो यह बात कुछ जमी नहीं। यूनियन कार्बाइड ने जो किया, उसकी कोई और सजा तो उसे मिलनी नहीं थी। मुआवजा लेकर इतनी-सी सजा भी आप उसको नहीं देना चाहते, इसका क्या मतलब हुआ?’’
मुझे विजय की बातें अच्छी नहीं लग रही थीं। मैंने कहा, ‘‘आप तो उनके सहकर्मी हैं, उनसे ही पूछें तो बेहतर।’’
विजय शायद समझ गया कि मैं उससे बात करना नहीं चाहता। वह चुप हो गया और नूर भोपाली के घर पहुँचने तक चुपचाप गाड़ी चलाता रहा।
नूर का घर एक खुली-खुली और साफ-सुथरी कॉलोनी में था, जिसके मकानों के सामने सड़क के किनारे गुलमोहर के पेड़ लगे हुए थे और इस समय वे लाल फूलों से लदे हुए थे।
नूर का फ्लैट पहली मंजिल पर था। सीढ़ियों से ऊपर जाकर मैंने घंटी बजायी, तो सोलह-सत्रह साल की एक लड़की ने दरवाजा खोला और यह जानकर कि मैं नूर साहब से मिलने आया हूँ, उसने मुझे अंदर आने के लिए कहा। एक कमरे के खुले दरवाजे के पास पहुँचकर उसने जरा ऊँची आवाज में कहा, ‘‘दादू, आपसे कोई मिलने आये हैं।’’
मैंने एक ही नजर में देख लिया कि कमरा काफी बड़ा है। एक तरफ सोफा-सेट है, दूसरी तरफ अलमारियाँ, तीसरी तरफ बाहर बालकनी में खुलने वाला दरवाजा और चौथी तरफ एक पलंग, जिस पर लेटे हुए नूर कोई किताब पढ़ रहे हैं। नजरों से ओझल किसी म्यूजिक सिस्टम पर बहुत मंद स्वर में सरोद बज रहा था।
नूर किताब एक तरफ रखकर उठ खड़े हुए। उन्होंने शायद मुझे नहीं पहचाना, इसलिए विजय से कहा, ‘‘आइए-आइए, विजय साहब!’’
‘‘देखिए, सर, मैं अपने साथ किनको लाया हूँ!’’ विजय ने आगे बढ़कर कहा।
नूर अचकचाकर मेरी ओर देखने लगे और पहचान जाने पर, ‘‘अरे, राजन जी, आप!’’ कहते हुए मुझसे लिपट गये। गले मिलने के बाद वे मेरा हालचाल पूछते हुए सोफे की ओर बढ़े और मुझे अपने सामने बिठाकर पूछने लगे कि मैं कब और किस सिलसिले में भोपाल आया। मैंने बताया, तो बोले, ‘‘आप सवेरे ही किसी से मुझे फोन करवा देते, मैं खुद आपसे मिलने आ जाता।’’
मैंने देखा, बीच में बीते समय ने उन्हें खूब प्रभावित किया है। पहले जब मैं उनसे मिला था, वे अधेड़ होकर भी जवान लगते थे। अब एकदम बूढ़े दिखायी दे रहे थे। लगभग सफेद होते हुए लंबे और बिखरे-बिखरे बाल, कुछ कम सफेद दाढ़ी और आँखों पर मोटे काँच का चश्मा। पहले दाढ़ी नहीं रखते थे और चश्मा नहीं लगाते थे। अगर पहले से पता न होता, तो शायद मैं उन्हें पहचान न पाता।
विजय को भी बैठने के लिए कहते हुए उन्होंने कहा, ‘‘बहुत-बहुत शुक्रिया, विजय साहब, कि आप इनको ले आये। हम दूसरी ही बार मिल रहे हैं, लेकिन पुराने प्रेमी हैं। लव एट फर्स्ट साइट वाले!’’ कहकर वे हँसे।
मैंने देखा, नीचे खड़ा गुलमोहर का पेड़ उनकी बालकनी तक बढ़ आया है और उसके लाल फूल बिलकुल नजदीक से दिखायी दे रहे हैं। शाम की हल्की धूप में खूब चटक चमकते हुए।
‘‘अकेले ही आये हैं या परिवार के साथ?’’ नूर ने मुझसे कहा, ‘‘पिछली बार जब आप आये थे, आपने कहा था कि भोपाल बहुत खूबसूरत शहर है, अगली बार आयेंगे तो परिवार के साथ आयेंगे।’’
मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्हें यह बात इतने साल बाद भी याद है। मैंने कहा, ‘‘अब परिवार के साथ निकलना मुश्किल है। पत्नी की नौकरी है और बच्चे बड़े हो गये हैं। सबकी अपनी व्यस्तताएँ हैं।’’ कहते-कहते मुझे नूर के परिवार की याद आ गयी। मैंने दुख प्रकट करने के लिए कहा, ‘‘आपके परिवार के साथ जो हादसा हुआ, उससे बड़ा...’’
‘‘हादसा?’’ नूर जैसे एकदम तड़प उठे। उन्होंने मेरा वाक्य भी पूरा नहीं होने दिया। बोले, ‘‘आप उसे हादसा कहते हैं? वह तो हत्याकांड था! ब्लडी मैसेकर!’’
मैं सहमकर खामोश हो गया और नीचे देखने लगा।
विजय ने नूर को शांत करने की गरज से कहा, ‘‘अब उन पुराने जख्मों को कुरेदने से क्या फायदा है, सर?’’
‘‘मैं नहीं मानता। हमें उन जख्मों को तब तक कुरेदते रहना चाहिए, जब तक दुनिया में ऐसे हत्याकांड बंद नहीं हो जाते!’’ नूर ने विजय को झिड़क दिया और मुझसे पूछा, ‘‘क्या हादसे और हत्याकांड में कोई फर्क नहीं है? हादसे अचानक हो जाते हैं, जैसे दो रेलगाड़ियाँ टकरा जायें, लेकिन हत्याएँ तो की जाती हैं।’’
तभी वह लड़की, जिसने दरवाजा खोला था, काँच के तीन गिलासों में पानी ले आयी। ट्रे को सलीके से मेज पर रखकर उसने नूर से पूछा, ‘‘दादू, चाय या शर्बत?’’
‘‘पहले शर्बत, फिर चाय।’’ कहकर नूर ने मुस्कराते हुए मुझसे पूछा, ‘‘आपको शुगर-वुगर तो नहीं है न?’’
मैंने हँसकर कहा, ‘‘अभी तक तो नहीं।’’
लड़की जाने लगी, तो नूर ने उसे वापस बुलाया, अपने पास बिठाया और उसके सिर पर हाथ रखकर परिचय कराया, ‘‘यह आयशा है। मेरे भतीजे की बेटी। यह अपने दादू का बहुत खयाल रखती है। बी.ए. में पढ़ती है। बहुत समझदार है। और, आयशा, ये हैं आपके दिल्ली वाले दादू राजन जी।’’
आयशा ने मुझे सलाम किया और मैंने उसे आशीर्वाद दिया। लेकिन मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि न तो नूर ने विजय से उसका परिचय कराया और न उसने ही विजय को सलाम किया। उसने विजय की तरफ देखा भी नहीं। उठकर अंदर चली गयी।
बातचीत शुरू करने के लिए मैंने नूर से पूछा, ‘‘सुना है, आपने साहित्यिक कार्यक्रमों में जाना बंद कर दिया है? ऐसा क्यों?’’
नूर ने एक नजर विजय पर डाली और मुझसे कहा, ‘‘वहाँ जो कुछ होता है, मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। अब वहाँ साहित्य नहीं होता, साहित्य से पैसा कमाने, पुरस्कार पाने और खुद को महान साहित्यकार मनवा लेने की तिकड़में होती हैं। किसी से कुछ फायदा हो सकता है, तो उसे खुश करने की और जिससे कुछ नुकसान हो सकता है, उसकी जड़ें खोदने की कोशिशें की जाती हैं। देश और दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी तो सबको है, जो वहाँ बड़े जोर-शोर से उगली भी जाती है, लेकिन देश-दुनिया के हालात का आम लोगों पर क्या असर पड़ रहा है और उसके बारे में क्या किया जा सकता है, इसकी चिंता किसी को नहीं है। गरीबी और बेरोजगारी बढ़ रही है। समाज में हिंसा बढ़ रही है। अपराध बढ़ रहे हैं। लोग मर रहे हैं और मारे जा रहे हैं। लोगों में जबर्दस्त निराशा फैल रही है। लेकिन साहित्यकार क्या कर रहे हैं? वे फूलों और चिड़ियों पर कविताएँ लिख रहे हैं। दलितवाद के नाम पर जातिवाद फैला रहे हैं। स्त्रीवाद के नाम पर सेक्स की कहानियाँ लिख रहे हैं। संप्रदायवाद के नाम पर हिंसा और बलात्कार के ब्यौरे दे रहे हैं। और समझ रहे हैं कि हम बहुत बड़े तीर मार रहे हैं। भोपाल तो साहित्यकारों का गढ़ है। लेकिन चौरासी में यूनियन कार्बाइड ने एक ही झटके में हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, हजारों लोगों को अंधा और अपाहिज बना दिया, हजारों परिवारों से उनके मुँह का निवाला छीनकर उन्हें भूखा भिखारी बना दिया, मगर इसके खिलाफ यहाँ के साहित्यकारों ने क्या किया? कुछ बयान दिये, कुछ कविताएँ लिखीं और बस! दिन-रात भाषा के खेल खेलने वालों ने यह भी नहीं देखा कि उस बर्बर हत्याकांड को ‘भोपाल गैस त्रासदी’ जैसा भ्रामक नाम दे दिया गया है, जिससे लगे कि उस भयानक घटना का संबंध सिर्फ गैस से है। जैसे भोपाल के हजारों लोगों को गैस ने ही मार डाला हो। या जैसे गैस का फैलना भूचाल जैसी कोई प्राकृतिक घटना हो, जिसके लिए किसी को जिम्मेदार न ठहराया जा सकता हो! त्रासदी...माइ फुट!’’
नूर ने हिंदी में और धीरे-धीरे बोलना शुरू किया था, लेकिन दो-चार वाक्यों के बाद ही वे उत्तेजित होकर अंग्रेजी में, तेज-तेज और जोर-जोर से बोलने लगे थे। अंततः उनकी साँस फूल गयी और वे चुप हो गये।
मेरे साथ आये विजय को शायद यह लगा कि नूर ने भोपाल के साहित्यकारों का और व्यक्तिगत रूप से उसका अपमान किया है। नूर के चुप होते ही उसने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘आपका तो यह जिया-भोगा सत्य था, आपने इस पर क्यों कुछ नहीं लिखा?’’
नूर ने जलती-सी आँखों से विजय की ओर देखा, लेकिन तत्काल ही स्वयं को संयत कर लिया। एक सिगरेट सुलगायी और गहरा कश लेकर ढेर-सा धुआँ छोड़ने के बाद शांत स्वर में विजय से कहा, ‘‘आप जानते हैं, मैं शायर हूँ, गद्य नहीं लिखता। मैंने गजल के सिवा और कुछ लिखना सीखा ही नहीं। लेकिन गजल में उस सबको बयान नहीं किया जा सकता, जो मैंने जिया और भोगा है। मैंने सिर्फ जिया और भोगा ही नहीं है, बहुत कुछ जाना और सोचा-समझा भी है। मैंने गजल में उस सबको कहने की कोशिश की और सैकड़ों शेर लिख डाले। मगर मुझे लगा, बेकार है। फिर मैंने गद्य में लिखने की कोशिश की। आत्मकथा के रूप में ढेरों कागज काले किये। लेकिन बात नहीं बनी। कहानी भी लिखने की कोशिश की, लेकिन लगा कि कहानी में वह सब नहीं कहा जा सकता, जो मैं कहना चाहता हूँ। तब लगा कि उपन्यास लिखूँ, तो शायद कुछ बात बने। मगर उपन्यास लिखना मुझे आता नहीं। कहीं वह निबंध जैसा हो जाता है, तो कहीं भाषण जैसा। लिखता हूँ और फाड़कर फेंक देता हूँ। कभी कागज-कलम लेकर बैठता हूँ और बैठा ही रह जाता हूँ। सामने रखा कोरा कागज मुझे चिढ़ाता रहता है, मेरी तरफ चुनौतियाँ फेंकता रहता है, लेकिन मैं उस पर एक शब्द भी लिख नहीं पाता। दिमाग में एक साथ इतनी सारी बातें आती हैं कि मैं समझ नहीं पाता, क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ। फिर मुझे डर लगने लगता है कि मैं कहीं पागल न हो जाऊँ। पागलपन के एक दौर से गुजर चुका हूँ, फिर से गुजरना नहीं चाहता।’’
इतने में आयशा शर्बत ले आयी। नींबू की कुछ बूँदें डालकर बनाया गया रूह-अफजा का लाल शर्बत। बिना कुछ बोले उसने शर्बत मेज पर रखा और चली गयी।
‘‘लीजिए, शर्बत लीजिए।’’ नूर ने कहा और उठकर एक अलमारी में से मोटी-मोटी फाइलों का एक ढेर उठा लाये। उसे मेज पर रखते हुए बोले, ‘‘लोग कहते हैं कि मैंने लिखना-पढ़ना बंद कर दिया है। लेकिन मैं बेकार नहीं बैठा हूँ। मैंने इन पंद्रह सालों में उस हत्याकांड के बारे में ढेरों तथ्य जुटाये हैं। इन फाइलों में वे तमाम तथ्य और प्रमाण हैं, जो बताते हैं कि भोपाल में गैस-कांड अचानक नहीं हो गया था।’’
उन्होंने शर्बत का एक घूँट पीकर गिलास रख दिया और एक फाइल खोलकर दिखाते हुए बोले, ‘‘यह देखिए, ये कागज बताते हैं कि जब यूनियन कार्बाइड ने अपना कारखाना यहाँ लगाने का फैसला किया था, तब कई लोगों ने, हमारी सरकार के कुछ समझदार और जिम्मेदार अधिकारियों ने भी, इसका विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि ऐसी घनी आबादी के पास ऐसा खतरनाक कारखाना नहीं लगाया जाना चाहिए।’’
‘‘क्या उन्हें पहले से ही मालूम था कि यह कारखाना खतरनाक होगा, सर?’’ विजय ने मजाक उड़ाती-सी आवाज में कहा।
नूर ने विजय की तरफ देखा और पूछा, ‘‘क्या आप उस जहरीली गैस के बारे में कुछ जानते हैं, जिसने हजारों लोगों की जान ली और अभी तक ले रही है?’’
‘‘जी, सर, मैंने उसके बारे में पढ़ा तो था, पर उसका नाम याद नहीं रहा।’’ विजय झेंप गया।
नूर व्यंग्यपूर्वक मुस्कराये, लेकिन तत्काल गंभीर होकर बताने लगे, ‘‘उसे मिक कहते हैं। एम आइ सी मिक। पूरा नाम मिथाइल आइसोसाइनेट। यह कोई प्राकृतिक गैस नहीं है। यह पिछली ही सदी में कारखानों से निकलकर पृथ्वी के पर्यावरण में शामिल हुई है। अब इसका व्यापारिक उत्पादन होता है और इसका इस्तेमाल पेस्टीसाइड्स यानी कीटनाशक बनाने में किया जाता है, जो कीड़े-मकोड़े मारने के काम आते हैं। मिक जिंदा चीजों पर, खास तौर से ऐसी चीजों पर, जिनमें पानी का अंश हो, ऐसी प्रतिक्रिया करती है कि वे तत्काल मर जाती हैं। समझे आप? तो जानकार जानते थे कि यूनियन कार्बाइड कीटनाशक बनाने में इस गैस का इस्तेमाल करने वाली है। यह गैस यहाँ बड़े-बड़े टैंकों में भरकर रखी जायेगी और अगर यह किसी भी तरह से टैंकों से निकलकर फैल गयी, तो आसपास की आबादी के लिए बहुत ही खतरनाक साबित होगी।’’
विजय तो नूर की बातों को मुँह बाये सुन ही रहा था, मैं भी चकित था कि एक आदमी, जो शौकिया तौर पर शायर और पेशे से बैंक मैनेजर है, वैज्ञानिक चीजों की इतनी जानकारी रखता है।
नूर कह रहे थे, ‘‘आप जानते हैं कि वह गैस पूरे शहर में नहीं, कारखाने के आसपास के ही इलाके में क्यों फैली? इसलिए कि मिक अगर खुली छोड़ दी जाये, तो फैल तो जाती है, लेकिन वह हवा से ज्यादा घनी होती है, इसलिए ऊपर उठकर हवा में घुल-मिल नहीं पाती। इसीलिए वह उड़कर दूर तक नहीं जा पाती। नजदीक ही नीचे बैठ जाती है और पानीदार चीजों को जला देती है। इंसान के जिस्म के नाजुक हिस्सों पर, जैसे आँखों और फेफड़ों पर, वह बहुत जल्द और घातक असर करती है।’’
कहते-कहते नूर ने फाइल में से एक कागज निकाला और पढ़कर सुनाने लगे, ‘‘बीइंग डेंसर दैन एयर, मिक वेपर डज नॉट डिस्सिपेट बट सैटल्स ऑन व्हाटएवर इज नियरबाइ। इफ एक्स्पोज्ड टु वॉटर-बियरिंग टिश्यूज, इट रिएक्ट्स वायोलेंटली, लीडिंग टु चेंजेज दैट कैन नॉट बी कंटेंड बाइ दि नॉर्मल प्रोटेक्टिव डिवाइसेज ऑफ दि अफेक्टेड ऑर्गैनिज्म। दि एमाउंट ऑफ एनर्जी रिलीज्ड बाइ दि एनसुइंग रिएक्शन स्विफ्टली एक्सीड्स दि हीट-बफरिंग कैपेबिलिटीज ऑफ दि बॉडी। सो दि बॉडी सफर्स सीवियर बर्न्स, इस्पेशली ऑफ एक्सपोज्ड टिश्यूज रिच इन वॉटर, सच एज लंग्स एंड आइज।’’
नूर ने कागज को पढ़ना बंद करके कहा, ‘‘यही वजह थी कि गैस ने कारखाने के आसपास की आबादी में इतनी तबाही मचायी। हजारों लोग मर गये, हजारों अंधे हो गये, हजारों के फेफड़े हमेशा के लिए खराब हो गये।’’
उन्होंने आधी जल चुकी सिगरेट से फिर एक गहरा कश लिया, धुआँ छोड़ा और सिगरेट एश ट्रे में बुझा दी। उनकी बात शायद अभी पूरी नहीं हुई थी, इसलिए मैं चुप रहा। नूर फिर बोलने लगे, ‘‘तो मैं कह रहा था कि जब यूनियन कार्बाइड ने अपना कारखाना लगाने के लिए घनी आबादी के पास वाली जगह चुनी, तो कुछ समझदार और जिम्मेदार अधिकारियों ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि यह कारखाना शहर के बाहर लगाया जाना चाहिए। लेकिन यूनियन कार्बाइड ने यह बात नहीं मानी। कहा कि शहर के बाहर कारखाना लगाना उसके लिए बहुत खर्चीला होगा। समझे आप? कंपनी को अपना खर्च बचाने की चिंता थी, लोगों की सुरक्षा की उसे कोई चिंता नहीं थी। इस तरह, अगर आप चौरासी के दिसंबर की उस रात यहाँ जो कुछ हुआ, उसे एक हादसा कहते हैं, तो उस हादसे की संभावना या आशंका शुरू से ही थी। यानी एक विदेशी कंपनी और देशी सरकार, दोनों को मालूम था कि वह हादसा कभी भी हो सकता है। फिर भी कंपनी ने उसी जगह कारखाना लगाया और सरकार ने लगाने दिया। इसको आप क्या कहेंगे? क्या यह जान-बूझकर हादसों को दावत देना नहीं? या कंपनी का खर्च बचाने के लिए जान-बूझकर लोगों को मौत के मुँह में धकेलना नहीं?’’
विजय ने मानो कंपनी और सरकार दोनों का बचाव करते हुए कहा, ‘‘माफ कीजिए, सर, आपकी बातों से तो ऐसा लगता है कि जैसे यह एक साजिश थी जान-बूझकर लोगों को मार डालने की। लेकिन क्या कोई विदेशी कंपनी किसी दूसरे देश में जाकर ऐसी साजिश कर सकती है? और, क्या उस देश की सरकार जानते-बूझते अपने लोगों के खिलाफ ऐसी साजिश उसे करने दे सकती है? जहाँ तक खर्च बचाने की बात है, तो वह तो हर उद्योग-व्यापार का नियम है। कंपनी का मकसद ही होता है कम से कम लागत में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना। इसमें साजिश जैसी क्या बात है?’’
मैं अब तक चुप था, लेकिन विजय की बात सुनकर मुझे बोलना पड़ा, ‘‘कंपनी के दृष्टिकोण से देखें, तो आपकी बात ठीक है, विजय जी! यूनियन कार्बाइड को अपना खर्च बचाना था, लेकिन सरकार तो सख्ती से कह सकती थी कि कारखाना शहर के बाहर लगाना पड़ेगा। उसे तो अपने लोगों की सुरक्षा की चिंता होनी चाहिए थी। उसने क्यों कंपनी की बात मान ली?’’
उत्तर दिया नूर ने, ‘‘सरकार को लोगों की क्या परवाह! उसे तो यह लगता है कि विदेशी कंपनियाँ आयेंगी, अपनी पूँजी यहाँ लगायेंगी, तभी हमारा विकास होगा। इसलिए वह तो हाथ-पाँव जोड़कर उन्हें बुलाती है--आइए हुजूर, हमारे देश में आकर अपने कारखाने लगाइए। हम आपको बेहद सस्ती जमीनें देंगे, बेहद सस्ते मजदूर और वैज्ञानिक-टेक्नीशियन वगैरह देंगे, कारखाना लगाने के लिए लोहा-लक्कड़, ईंट-सीमेंट, पानी-बिजली भी तकरीबन मुफ्त में मुहैया करायेंगे। सुरक्षा के नियम और श्रम-कानून आपके लिए ढीले कर देंगे। टैक्सों में भारी छूटें और रिआयतें देंगे। और तो और, हम आपको लेबर ट्रबल से भी बचायेंगे। आपकी तरफ कोई आँख भी उठायेगा, तो आँख फुड़वायेगा और अपना सिर तुड़वायेगा। इस काम के लिए हमारी पुलिस है न! आप हमारे जल, जंगल, जमीन और जनों के साथ चाहे जो करें, हमें कोई ऐतराज नहीं होगा। आप आइए तो! हमारे यहाँ आकर अपना कारखाना लगाइए तो!’’
‘‘आप लिखिए, नूर भाई! आप बहुत अच्छा उपन्यास लिखेंगे। आपका व्यंग्य तो कमाल का है!’’ मैंने प्रशंसा और प्रोत्साहन के लहजे में कहा।
लेकिन विजय को शायद यह अच्छा नहीं लगा। उसने नूर से कहा, ‘‘लेकिन, सर, उपन्यास लिखने के लिए तो कारखाने की पूरी वर्किंग आपको मालूम होनी चाहिए। फर्स्ट हैंड नॉलेज। उसके अंदर क्या बनता है, कैसे बनता है, लोग कैसे काम करते हैं, वगैरह...’’
नूर उसकी बात सुनकर मुस्कराये और बोले, ‘‘आप यह बताइए, क्या धरती गोल है?’’
‘‘जी? जी, हाँ...’’
‘‘और वह घूमती भी है?’’
‘‘जी, हाँ...’’
‘‘क्या आपने उसकी गोलाई को देखा है? उसे घूमते हुए देखा है? यह आपकी फर्स्ट हैंड नॉलेज तो नहीं है न? फिर भी यह सत्य तो है न? इस सत्य को आपने पुस्तकों से, शिक्षकों से या कहीं से भी जाना हो, इससे क्या फर्क पड़ता है?’’
एक क्षण रुककर नूर ने अपने सामने रखी फाइलों की तरफ इशारा किया, ‘‘इस जानकारी को जमा करने में मैंने पंद्रह साल लगाये हैं। पंद्रह साल! आपको क्या मालूम कि इसके लिए मैंने कितनी लाइब्रेरियों की खाक छानी है, कितनी पुस्तकें और पत्रिकाएँ खरीदकर पढ़ी हैं, कितनी मेहनत से उनमें से नोट्स लिये हैं और कहाँ-कहाँ जाकर किन-किन लोगों से कितनी पूछताछ की है! मैं उन लोगों में से नहीं हूँ, जो भोपाल गैस त्रासदी पर लेख, कविताएँ और कहानियाँ लिखते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि यूनियन कार्बाइड के कारखाने में क्या बनता था। आपने सेविन का नाम सुना है?’’
‘‘सेविन?’’ विजय सकपका गया, ‘‘आपका मतलब है हिंदी में सात?’’
‘‘जी, नहीं! एस ई वी आइ एन सेविन। यह एक पेस्टीसाइड है। कीटनाशक। इसको बनाने में यूनियन कार्बाइड मिक गैस का इस्तेमाल करती थी। सेविन यूरोप और अमरीका में भी बनाया जाता है, मगर सीधे मिक से नहीं। वहाँ की सरकारें जानती हैं कि मिक कितनी खतरनाक गैस है। इसलिए वहाँ सीधे मिक से सेविन बनाने की इजाजत नहीं है। लेकिन यूनियन कार्बाइड ने भोपाल के अपने कारखाने में सीधे उसी से सेविन बनाना शुरू कर दिया, क्योंकि इस तरह सेविन बनाने में खर्च कम आता था। यह प्रक्रिया यहाँ के लोगों के लिए चाहे जितनी खतरनाक हो, पर कंपनी के लिए कम खर्चीली थी। दूसरी तरह से कहें, तो ज्यादा मुनाफा देने वाली।’’
विजय फँस गया था। उसने कुछ कहने के लिए कहा, ‘‘लेकिन, सर, विदेशी कंपनियों के पास तो इतनी पूँजी होती है कि वे सारी दुनिया में अपना कारोबार फैला सकें। फिर यूनियन कार्बाइड को अपना खर्च कम करने की इतनी चिंता क्यों थी?’’
‘‘यही तो मुख्य बात है!’’ नूर ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘देखिए, कंपनी देशी हो या विदेशी, उसका एकमात्र उद्देश्य होता है ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना। इसके लिए हर कंपनी अपना माल ऊँचे से ऊँचे दाम पर बेचना चाहती है। लेकिन इसमें आड़े आ जाती हैं दूसरी कंपनियाँ, जिनसे उसे बाजार में प्रतिस्पर्द्धा करनी होती है। उनसे मुकाबला करने के लिए जरूरी हो जाता है कि माल के दाम कम रखे जायें। लेकिन दाम कम रखने से कंपनी का मुनाफा कम हो जाता है। तब कंपनी के सामने मुनाफा बढ़ाने का एक ही रास्ता बचता है--खर्च घटाना। यानी लागत कम से कम लगाना। और यही वह चीज है, जो मल्टीनेशनल कंपनियों को जन्म देती है। मान लीजिए, एक अमरीकी कंपनी अमरीका में ही अपना माल बनाकर बेचना चाहे, तो उसे अमरीकी मानकों के मुताबिक अपना कारखाना बनाना पड़ेगा, वहीं के मानकों के मुताबिक सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ेंगे, कर्मचारियों को वहीं के मानकों के मुताबिक तनख्वाहें और दूसरी सुविधाएँ देनी पड़ेंगी और माल की क्वालिटी भी ऐसी रखनी पड़ेगी, जो वहाँ के मानकों पर खरी उतरे। यह सब उसके लिए बहुत खर्चीला होगा और उसका मुनाफा कम हो जायेगा। इसलिए वह कंपनी क्या करती है कि अपना माल अमरीका में न बनाकर किसी गरीब या पिछड़े देश में जाकर बनाती है, जहाँ कारखाना लगाना और चलाना बहुत सस्ता पड़ता है और जहाँ की सरकार पर दबाव डालकर या सरकारी लोगों को घूस देकर वह मनमानी कर सकती है। इस तरह उसका खर्च बहुत कम हो जाता है--यानी मुनाफा बहुत बढ़ जाता है।’’
नूर अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे। विजय क्या महसूस कर रहा था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं अब ऊबने लगा था। मेरे लिए ये कोई नयी बातें नहीं थीं। फिर भी मैं चुपचाप सुन रहा था, तो सिर्फ इसलिए कि ये बातें मुझे उस आदमी के मुँह से सुनने को मिल रही थीं, जो पहले शेरो-शायरी के अलावा कोई बात ही नहीं करता था और गंभीर साहित्यिक चर्चाओं तक से बड़ी जल्दी ऊब जाता था।
अच्छा हुआ कि आयशा चाय ले आयी। चाय की ट्रे मेज पर रखकर और शर्बत के जूठे गिलासों की ट्रे उठाकर ले जाते हुए उसने कहा, ‘‘दादू, गर्मागरम पकौड़े भी ला रही हूँ।’’
‘‘आप पकौड़े बना लेंगी?’’ नूर ने ऐसे कहा, जैसे चाहते हों कि आयशा पकौड़े बना ले, पर डरते भी हों कि यह लड़की बना भी पायेगी या नहीं।
‘‘घर में कोई और नहीं है क्या?’’ मैंने चिंतित होकर पूछा।
‘‘इसके माता-पिता बंबई गये हुए हैं।’’ नूर ने कुछ परेशानी के साथ बताया, ‘‘फिलहाल यही घर की मालकिन और बावर्चिन है। आजकल यही मुझे पाल रही है। बिलकुल एक माँ की तरह।’’
मैं आयशा के माता-पिता के बारे में कुछ और जानना चाहता था, लेकिन विजय ने बातचीत का रुख मोड़ते हुए नूर से कहा, ‘‘सर, उपन्यास लिखने के लिए जरूरी जानकारी तो आपने काफी जुटा ली है, पर उपन्यास की कहानी क्या है?’’
मुझे लगा कि शायद अब नूर अपने परिवार के समाप्त हो जाने की करुण कथा सुनायेंगे, या अपने अकेले रह जाने के दुख का वर्णन करेंगे, लेकिन विजय का प्रश्न सुनकर उन्होंने हल्की-सी झुँझलाहट के साथ कहा, ‘‘कहानी ही तो सुना रहा हूँ!’’
मैंने कहा, ‘‘विजय जी का मतलब शायद यह है कि उपन्यास का कथानक क्या है, उसमें किन पात्रों की कहानी कही जायेगी और कैसे।’’
इतने में आयशा पकौड़ों की प्लेट और चटनी ले आयी। हमारे साथ-साथ नूर ने भी एक पकौड़ा उठा लिया और उसे कुतरते हुए कहा, ‘‘राजन भाई, मैं विकास के नाम पर होने वाले विनाश की कहानी कहना चाहता हूँ। लेकिन कैसे कहूँ, कहाँ से शुरू करूँ, कुछ समझ में नहीं आता। आप तो कथाकार हैं, मुझे कुछ सुझाइए न!’’
विजय ने एक गर्मागरम पकौड़ा पूरा का पूरा अपने मुँह में रख लिया था, जिसे चबाकर निगल जाने में उसे दिक्कत हो रही थी। उसका मुँह जल रहा था, फिर भी वह मेरे कुछ कहने से पहले ही भरे मुँह से बोल पड़ा, ‘‘आपके साथ जो घटा-बीता है, वही लिखिए न! राजन जी ने कहीं लिखा है कि लेखक आपबीती को जगबीती और जगबीती को आपबीती बनाकर कहानी लिखता है।’’ फिर जैसे-तैसे पकौड़ा निगलकर उसने मुझसे पूछा, ‘‘क्यों, सर, मुझे ठीक याद है न? आपने यही कहा है न?’’
मैंने उत्तर नहीं दिया। उसके प्रश्न को अनसुना करके नूर की ओर ही देखता रहा। नूर को विजय का बीच में टपक पड़ना अच्छा नहीं लगा। अपने मनोभाव को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘विजय साहब, आप तो भोपाल में ही हैं। आपकी सलाह तो मैं लेता ही रहूँगा। राजन भाई दिल्ली से आये हैं और ये उन लेखकों में से नहीं हैं, जो दिल्ली से अक्सर भोपाल आते रहते हैं।’’
इसी बीच मुझे एक बात सूझ गयी और मैंने कहा, ‘‘नूर भाई, आपको मालूम होगा, यूनियन कार्बाइड ने भोपाल गैस-कांड के बाद अपनी सफाई में एक बयान दिया था?’’
‘‘हाँ, मुझे मालूम है। इन फाइलों में से किसी में मैंने उसे सँभालकर रखा भी है।’’
‘‘तो मेरा खयाल है, उसी से उपन्यास की शुरूआत करना ठीक रहेगा।’’
‘‘मैं ठीक से उसे याद नहीं कर पा रहा हूँ, जरा याद दिलाइए कि उसमें क्या था।’’
‘‘उसमें यूनियन कार्बाइड ने इस बात से इनकार नहीं किया कि भोपाल में उसका कारखाना था और उस कारखाने में मिक से कीटनाशक बनाये जाते थे। बल्कि उसने गर्व के साथ कहा कि भोपाल वाला उसका कारखाना तो तीसरी दुनिया के देशों में खाद्य उत्पादन बढ़ाने में सफल हरित क्रांति में सहायक था। कंपनी ने अपनी वेबसाइट के जरिये दुनिया भर को बताया कि उसने भोपाल में अपना कारखाना एक महान मानवीय उद्देश्य के लिए लगाया था। वह उद्देश्य था भारतीय कृषि उत्पादन की रक्षा के लिए कीटनाशक उपलब्ध कराना और उसके साथ ही भारतीय उद्योग और व्यापार को नये तौर-तरीकों से विकसित करके आगे बढ़ाना। कंपनी ने कहा था--हमारा खयाल था कि भारत में हमने जो निवेश किया है, उसे भारतीय लोगों ने पसंद किया है और वहाँ हमारी साख अच्छी बनी है। लेकिन भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खलनायक समझा जाता है, सो हमें भी समझा गया। हम पर आरोप है कि हमने वहाँ के अपने कारखाने में मिक से सुरक्षा के उपाय नहीं किये। मगर यह आरोप निराधार है। हम तो हमेशा ही सुरक्षा के मानकों का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध रहे हैं। हम पर भारत की जनता और वहाँ के संसाधनों का शोषण करने का आरोप भी लगाया जाता है। लेकिन यह आरोप भी निराधार है। हम तो चौरासी में हुई उस त्रासद घटना के दिन से ही वहाँ के लोगों के प्रति करुणा और सहानुभूति से विचलित हैं।’’
नूर ने अत्यंत घृणा और क्षोभ के साथ कहा, ‘‘कंपनी के दिल में कितनी करुणा और सहानुभूति थी, यह तो हमने मुआवजे के मामले में देख लिया! उसकी करुणा और सहानुभूति उस रासायनिक कचरे के रूप में भी यहाँ पड़ी हुई है, जिससे यहाँ की मिट्टी, पानी और हवा में आज तक प्रदूषण फैल रहा है और लोगों में तरह-तरह की बीमारियाँ पैदा कर रहा है। वह कचरा तमाम तरह के लोगों, संगठनों और संस्थाओं के लगातार हल्ला मचाते रहने पर भी आज तक साफ नहीं किया गया है। करुणा और सहानुभूति! माइ फुट!’’
क्षुब्ध नूर कुछ देर चुप रहे, फिर सहसा उन्होंने मेरी ओर विस्मय भरी आँखों से देखते हुए कहा, ‘‘कमाल है, आपको तो यूनियन कार्बाइड का वह बयान तकरीबन हू-ब-हू याद है!’’
‘‘दरअसल मैं भी गैस-कांड पर कुछ लिखना चाहता था। एक कहानी लिखी भी थी। पता नहीं, वह आपकी नजरों से गुजरी या नहीं।’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं पढ़ी, लेकिन मैं उसे जरूर पढ़ना चाहूँगा। आप दिल्ली जाकर मुझे उसकी फोटोकॉपी भेज देंगे?’’
‘‘जरूर।’’
‘‘आपने बहुत अच्छा सुझाव दिया है, राजन भाई! मैं अपना उपन्यास कंपनी के उस बयान से ही शुरू करूँगा। लेकिन आपको याद होगा, उसी बयान में कंपनी ने यह भी कहा था कि भोपाल के गैस-कांड के लिए वह जिम्मेदार नहीं है। उसने कहा था कि उस घटना के बाद हमने अपने तौर पर पूरी जाँच की, जिससे पता चला कि यह निश्चित रूप से तोड़-फोड़ की कार्रवाई थी और तोड़-फोड़ हमारे भोपाल कारखाने के किसी कर्मचारी ने ही की थी। उस कर्मचारी ने जान-बूझकर मिथाइल आइसोसाइनेट से भरे हुए टैंक में पानी डाल दिया था। गैस में पानी डाल देने से टैंक फट गया और जहरीली गैस निकल पड़ी। कंपनी ने जोर देकर कहा कि सच यही था, लेकिन यह सच भारत सरकार ने लोगों को अच्छी तरह बताया नहीं। इसलिए भारत सरकार भी दोषी है, जो भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों की दुर्दशा से उदासीन है।’’
मुझे सहसा याद आया कि ‘भोपाल गैस त्रासदी’ पद का इस्तेमाल शायद पहली बार यूनियन कार्बाइड के उसी बयान में किया गया था। मैंने यह बात नूर को बतायी, तो उन्होंने कहा, ‘‘अक्सर यही होता है। वे अपने विरोध की भाषा भी खुद ही हमें सिखा देते हैं और हम सोचे-समझे बिना उसे सीखकर रट्टू तोते की तरह दोहराते रहते हैं।’’
‘‘लेकिन, सर, तोड़-फोड़ की बात तो यहाँ के अखबारों में भी छपी थी। उसमें किसी असंतुष्ट कर्मचारी का हाथ था। हमारे लोगों में यह बड़ी खराबी है कि असंतुष्ट होने पर फौरन तोड़-फोड़ पर उतर आते हैं। यह नहीं सोचते कि इसका नतीजा क्या होगा।’’
मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने कहा, ‘‘विजय जी, तोड़-फोड़ का आरोप कंपनी ने लगाया जरूर, लेकिन तोड़-फोड़ करने वाले कर्मचारी का नाम कंपनी ने कभी नहीं बताया!’’
‘‘बता ही नहीं सकती थी!’’ नूर उत्तेजित हो उठे, ‘‘अगर वाकई ऐसा कोई कर्मचारी होता, तो कंपनी उसे जरूर पकड़ लेती। इतनी बड़ी कंपनी क्या एक गरीब देश के गरीब आदमी को नहीं पकड़ सकती थी? उसे पकड़कर वह ठोस सबूत के साथ अदालत में पेश करती--न्यायिक अदालत में ही नहीं, मीडिया के जरिये दुनिया की अदालत में भी--लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने अनुमानों के आधार पर यह नतीजा निकाला कि ऐसा हो सकता है या ऐसा हुआ होगा। यानी कोरा अंदाजा, कोई ठोस सबूत नहीं।’’
कहते-कहते नूर ने एक मोटी-सी फाइल उठायी और उस पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘ठोस सबूत यहाँ हैं! कंपनी ने एक झूठी कहानी गढ़कर दुनिया को सुनायी थी। सच्ची कहानी यह है कि न तो कारखाना निर्धारित मानकों के मुताबिक बनाया गया था और न ही उसका रख-रखाव ठीक था। कंपनी ने अपना खर्च बचाने के लिए मिक गैस के टैंकों में कार्बन-स्टील के वॉल्व लगवाये थे, जो तेजाब से गल जाते हैं। फिर, उन टैंकों में जरूरत से ज्यादा गैस भरी जा रही थी, क्योंकि गैस का उत्पादन उसकी खपत से ज्यादा हो रहा था। कंपनी के कीटनाशक उतने नहीं बिक रहे थे, जितने बिकने की उसे उम्मीद थी। कंपनी को घाटा हो रहा था। इसलिए चौरासी के दो साल पहले से ही उसने खर्चों में कटौती करना शुरू कर दिया था, जिसका सीधा असर सुरक्षा के उपायों पर पड़ रहा था। मसलन, कारखाने के कर्मचारी अपने अधिकारी से कहते हैं कि सर, यह पाइप लीक कर रहा है, इसे बदलना पड़ेगा। लेकिन अधिकारी कहता है--बदलने की जरूरत नहीं, पैचअप कर दो। खर्च में कटौती कर्मचारियों की संख्या कम करके भी की गयी। मिक गैस के ऑपरेटर पहले बारह थे। चौरासी तक आते-आते छह रह गये। सुपरवाइजर भी आधे कर दिये गये थे। रात पाली में कोई मेंटेनेंस सुपरवाइजर नहीं रहता था। जैसे रात में उसकी जरूरत ही खत्म हो जाती हो। ऐसे हालात में दुर्घटनाओं का होना तो निश्चित ही था और वे हुईं।’’
‘‘दुर्घटनाएँ?’’ विजय, जो अब लगभग अकेला ही पकौड़े खा रहा था, फिर हम दोनों की बातचीत के बीच टपक पड़ा, ‘‘दुर्घटना तो एक ही हुई थी न, सर, चौरासी में?’’
‘‘आप भोपाल में रहते हैं या किसी दूसरी दुनिया में?’’ नूर ने हिकारत के साथ विजय से कहा, ‘‘यूनियन कार्बाइड के कारखाने से गैस चौरासी में ही नहीं, पहले भी निकली थी। और क्यों न निकलती? उत्पादन ज्यादा और खपत कम होने से कारखाने में गैस बहुत ज्यादा इकट्ठी होती जा रही थी। अमरीका या यूरोप में ऐसा होता, तो कंपनी सरकार को यह बताने को बाध्य होती कि उसके कारखाने में यह गैस जरूरत से ज्यादा इकट्ठी हो गयी है। और वहाँ की सरकार तुरंत कोई कार्रवाई करती, ताकि कोई दुर्घटना न घट जाये। लेकिन यूनियन कार्बाइड को मध्यप्रदेश या भारत सरकार की क्या परवाह थी! उसने ऐसी कोई सूचना सरकार को नहीं दी।’’
मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी, इसलिए मैंने कहा, ‘‘अजीब बात है!’’
‘‘अजीब बातें तो बहुत सारी हैं, राजन भाई! सुरक्षा के इंतजामों की कहानी सुनिए। कारखाने के ओवरसियर अपने अधिकारी से कहते हैं कि सर, यहाँ के कर्मचारियों को बेहतर प्रशिक्षण की जरूरत है। मगर अधिकारी कहता है--कम प्रशिक्षण से भी काम चलाया जा सकता है। ओवरसियर कहते हैं--सर, सारे के सारे इंस्ट्रक्शन-मैनुअल अंग्रेजी में हैं और कारखाने के कर्मचारी अंग्रेजी नहीं समझते। लेकिन अधिकारी कहता है--वे अंग्रेजी नहीं समझते, तो तुम उन्हें हिंदी में समझा दो। तुम किस मर्ज की दवा हो? एक समय तो ऐसा भी आया कि कर्मचारियों की नियमानुसार होने वाली तरक्की भी रोक दी गयी। कह दिया गया कि कंपनी घाटे में चल रही है, तो तरक्की कैसे दी जा सकती है? इसकी वजह से कई लोग, जो दूसरी जगह बेहतर नौकरी पा सकते थे, नौकरी छोड़कर चले गये। लेकिन उनकी जगह नयी नियुक्तियाँ नहीं की गयीं। शायद यह सोचकर कि चलो, अच्छा हुआ, कुछ खर्च बचा! मगर इसका नतीजा क्या हुआ? कारखाने में गैस के रख-रखाव की देखभाल करने वाले लोग बहुत कम रह गये। मिसाल के तौर पर, टैंकों में गैस कितनी है, यह बताने के लिए जो इंडीकेटर लगे हुए थे, उनकी रीडिंग कायदे से हर घंटे ली जानी चाहिए थी। पहले ली भी जाती थी, मगर चूँकि कर्मचारी आधे रह गये थे, इसलिए वह रीडिंग हर दो घंटे बाद ली जाने लगी। रात में रीडिंग ली भी जाती थी या नहीं, अल्लाह ही जाने!’’
मैंने कहीं पढ़ा था कि चौरासी के चार-पाँच साल पहले से ही कारखाने के कर्मचारी गैस के रिसाव की शिकायत करने लगे थे। इक्यासी में कारखाने की जाँच करने के लिए कुछ अमरीकी विशेषज्ञ बुलाये गये थे। उन्होंने खुद कहा था कि मिक के एक स्टोरेज टैंक में ‘रनअवे रिएक्शन’ हो सकता है।
मैं उस बात को याद कर रहा था और नूर विजय से कह रहे थे, ‘‘विजय साहब, आपको याद नहीं कि सन् बयासी के अक्टूबर महीने में क्या हुआ था? कारखाने में इतनी गैस लीक हुई थी कि कई कर्मचारियों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था।’’
विजय ने प्लेट में पड़े आखिरी पकौड़े को चटनी में सानते हुए पूछा, ‘‘तो हमारी सरकार क्या कर रही थी?’’
नूर ने कड़वा-सा मुँह बनाते हुए उत्तर दिया, ‘‘हमारी सरकार! उसके पास कारखाने के आसपास होने वाले वायु प्रदूषण को जाँचते रहने की न तो कोई व्यवस्था थी और न उसके लिए जरूरी उपकरण। और जब कर्मचारियों ने संभावित दुर्घटनाओं से बचाव के उपाय न किये जाने का विरोध किया, तो उसे अनसुना कर दिया गया। एक कर्मचारी ने अपना विरोध प्रकट करने के लिए पंद्रह दिनों की भूख हड़ताल की। लेकिन उसे नौकरी से निकाल दिया गया। कर्मचारियों की सुरक्षा पर होने वाले खर्च में लगातार कटौती की जाती रही और गैस रिसने की छोटी-मोटी घटनाएँ कारखाने के अंदर होती रहीं। चौरासी में जो कुछ हुआ, वह इसी खर्च-कटौती और लापरवाही का नतीजा था।’’
विजय फिर कुछ कहने को हुआ, लेकिन नूर ने कहना जारी रखा, ‘‘आपको मालूम है, मिक को रिसने से रोकने के लिए उसका मेंटेनेंस टेंपरेचर चार या पाँच डिग्री सेल्सियस रखना जरूरी होता है? इसके लिए कारखाने में एक रेफ्रिजरेशन सिस्टम मौजूद था, लेकिन पॉवर का खर्च बचाने के लिए उस सिस्टम को बंद कर दिया गया था और गैस बीस डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रखी जा रही थी। फिर, जो टैंक फटा, वह एक सप्ताह से ठीक तरह से काम नहीं कर रहा था। लेकिन उसे ठीक कराने के बजाय अधिकारियों ने उसे उसी हाल में छोड़ दिया और दूसरे टैंकों से काम लेने लगे। इसका ही नतीजा था कि उस टैंक के अंदर प्रेशर कुकर का-सा दबाव बन गया और विस्फोट हो गया।’’
नूर ने आँखें बंद कर लीं, जैसे अभी-अभी उन्होंने उस विस्फोट को सुना हो और उससे होने वाली तबाही अपने भीतर के किसी परदे पर देख रहे हों।
‘‘आपने तो पूरी रिसर्च कर रखी है, सर!’’ विजय ने आखिरी पकौड़ा खाकर रूमाल से हाथ-मुँह पोंछते हुए कहा।
नूर ने अपने प्याले में ठंडी हो चुकी चाय को एक घूँट में खत्म किया और उस भयानक रात के बारे में बताने लगे, जिस रात उनका पूरा परिवार गैस-कांड में मारा गया था, ‘‘उस रात जिस टैंक से गैस निकली थी, उसका कार्बन-स्टील वॉल्व गला हुआ पाया गया था, लेकिन उसे ठीक नहीं कराया गया था। इतना ही नहीं, उस टैंक पर लगा हुआ ऑटोमेटिक अलार्म पिछले चार साल से काम नहीं कर रहा था। उसकी जगह एक मैनुअल अलार्म से काम चलाया जा रहा था। यही कारखाना अमरीका में होता, तो क्या वहाँ ऐसी लापरवाही की जा सकती थी? वहाँ ऐसे टैंकों पर एक नहीं, चार-चार अलार्म सिस्टम होते हैं और गैस रिसने का जरा-सा अंदेशा होते ही खतरे की घंटियाँ बजने लगती हैं। लेकिन यहाँ कोई घंटी नहीं बजी। वहाँ के लोगों की हिफाजत जरूरी है, यहाँ के लोग तो कीड़े-मकोड़े हैं न! मरते हैं तो मर जायें! कंपनी की बला से!’’
अभी तक नूर किसी वैज्ञानिक की-सी तटस्थता के साथ बोलते आ रहे थे, लेकिन ‘कीड़े-मकोड़े’ कहते हुए उनका गला रुँध गया और बात पूरी होते-होते उनकी आँखों से आँसू बह निकले।
मैं उन्हें सांत्वना देने के लिए उठा, लेकिन उन्होंने मुझे हाथ के इशारे से रोक दिया और उठकर अपने कमरे से अटैच्ड बाथरूम में जाकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। मुझे लगा, निश्चय ही वे वहाँ फूट-फूटकर रो रहे होंगे।
‘‘ये कभी कोई उपन्यास नहीं लिख सकते।’’ विजय ने बाथरूम के बंद दरवाजे की ओर देखते हुए हिकारत के साथ कहा।
‘‘क्यों?’’ मैंने कुछ सख्ती से पूछा।
‘‘क्योंकि इनके पास केवल तथ्य और आँकड़े हैं। कहानी कहाँ है?’’ विजय ने ऐसे कहा, जैसे वह कहानी-कला का मर्मज्ञ हो, ‘‘मैं यह उम्मीद कर रहा था कि वे आपको अपने निजी अनुभव सुनायेंगे। लेकिन वे तो अपनी रिसर्च की थीसिस सुनाने बैठ गये। और इनकी थीसिस में है क्या? सिर्फ एक चीज--अमरीका की खाट खड़ी करना! मुसलमान हैं न!’’
‘‘क्या मतलब?’’ मुझे उस पर गुस्सा आने लगा।
‘‘अमरीका मुसलमानों को पसंद नहीं करता न! वह इन्हें आतंकवादी मानता है। जो कि ये लोग होते भी हैं।’’
‘‘आपको ऐसी बातें करते शर्म नहीं आती? आप एक निहायत भले इंसान के घर में बैठे हैं, जिसका पूरा परिवार गैस-कांड में मारा जा चुका है। और आप उसे एक मुसलमान और आतंकवादी के रूप में देख रहे हैं? आप तो भोपाल में रहते हैं, आपको तो पता ही होगा कि उस गैस-कांड में सिर्फ मुसलमान नहीं, सभी तरह के लोग मारे गये थे। यूनियन कार्बाइड के लिए वे सभी समान रूप से कीड़े-मकोड़े थे।’’
‘‘आप तो उनका पक्ष लेंगे ही। आप दोनों जनवादी हैं न!’’ विजय ने व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘‘मैं तो यह सोच रहा था कि मुझे कोई अच्छी कहानी सुनने को मिलेगी।’’
‘‘अच्छी कहानी से आपका क्या मतलब है?’’ मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था।
‘‘मैं सोच रहा था, नूर साहब यह बतायेंगे कि परिवार के न रहने पर इन्हें कैसा लगा। अकेले रह जाने पर इन्हें क्या-क्या अनुभव हुए। फिर से घर बसाने का विचार मन में आया कि नहीं आया। और सबसे खास बात यह कि इन पंद्रह सालों में इनकी सेक्सुअल लाइफ क्या रही। सेक्स तो इंसान की बेसिक नीड है न! और यहाँ आप देख ही रहे हैं, दादा अपनी जवान पोती के साथ घर में अकेला मौज कर रहा है!’’
‘‘शट अप एंड गेट आउट!’’ मैंने विजय को तर्जनी हिलाकर आदेश दिया और जब वह नासमझ-सा उठकर खड़ा हो गया, तो मैंने जोर से कहा, ‘‘अब आप फौरन यहाँ से चले जाइए! मैं अब आपको एक क्षण भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। जाइए, निकल जाइए!’’
‘‘लेकिन मैं तो आपको आपके होटल तक छोड़ने...’’
‘‘मेरी चिंता छोड़िए और जाइए।’’ मैंने शायद कुछ इस तरह कहा कि वह डर गया और अपनी कार की चाभी उठाकर कमरे से निकल गया। थोड़ी देर बाद ही नीचे से मैंने उसकी कार के स्टार्ट होने की आवाज सुनी।
नूर बाथरूम से निकलकर आये, तो उन्होंने पूछा कि विजय कहाँ गया। मैंने उन्हें बता दिया कि वह बकवास कर रहा था, मैंने उसे भगा दिया। नूर इस पर कुछ बोले नहीं, लेकिन मुझे लगा कि उन्होंने राहत की साँस ली है। तभी आयशा पकौड़ों की खाली प्लेट और चाय के खाली प्याले उठाने आयी। उसने मुझसे कहा, ‘‘दादू, आपने बहुत अच्छा किया, जो उस बदमाश को भगा दिया। मैं सब सुन रही थी।’’ वह बहुत गुस्से में थी।
‘‘साहित्यकार बनते हैं, लेकिन समझ और तमीज बिलकुल नहीं।’’ नूर भी गुस्से में थे।
मैंने उस प्रसंग को वहीं समाप्त करने के लिए कहा, ‘‘आयशा बेटी, तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। तुम्हारे माता-पिता भी यहाँ होते, तो और अच्छा रहता। मैं उनसे भी मिल लेता।’’
‘‘वे दोनों बंबई गये हैं।’’ नूर ने उदास आवाज में कहा, ‘‘वहाँ इसकी माँ का इलाज चल रहा है। उसकी आँखें तो बच गयीं, पर फेफड़े अब भी जख्मी हैं।’’
‘‘क्या वह भी...?’’ मैं सिहर-सा गया।
‘‘हाँ, उस रात बदकिस्मती से वह हमारे ही घर पर थी। मैं इंदौर गया हुआ था और मेरी माँ की तबीयत ठीक नहीं थी। आयशा की माँ मेरी बीमार माँ को देखने हमारे घर आयी हुई थी। आयशा उस वक्त बहुत छोटी थी। डेढ़-दो साल की। इसकी माँ इसे दादी के पास छोड़कर अकेली ही चली आयी थी कि शाम तक लौट जायेगी। लेकिन मेरी माँ ने उसे रोक लिया कि सुबह चली जाना। और उसी रात वह कांड हो गया। बेचारी वह भी चपेट में आ गयी। आयशा, इसके अब्बू और दादा-दादी बच गये, क्योंकि ये लोग शहर के उस इलाके में रहते थे, जहाँ गैस नहीं पहुँची थी। अब इसे किस्मत कहिए या चमत्कार, मेरे घर में उस रात बाकी सब मर गये, आयशा की माँ बच गयी। लेकिन बस, जिंदा ही बची। बीमार वह अब भी है। उसका इलाज यहाँ ठीक से नहीं हो पा रहा था। बंबई ले जाना पड़ा। वहाँ के इलाज से कुछ फायदा है, सो वहीं का इलाज चल रहा है। महीने में दो बार ले जाना पड़ता है। इतने साल हो गये...’’
आयशा जूठे बर्तनों की ट्रे उठाये खड़ी सुन रही थी। आखिर उसने नूर को टोक ही दिया, ‘‘दादू, यह क्यों नहीं कहते कि आपने ही मेरी अम्मी को बचा लिया। उनके इलाज पर जितना खर्च हो रहा है, उतना अकेले अब्बू तो कभी न उठा पाते। यों कहिए कि आपने अम्मी को ही नहीं, अब्बू को और मुझे भी बचा लिया।’’
‘‘नहीं, बेटा, बात बिलकुल उलटी है। तुम सबने ही मुझे बचा लिया। अकेला तो मैं टूट गया होता। कभी का कब्रिस्तान पहुँच गया होता।’’
नूर बहुत भावुक हो आये थे। शायद फिर से रो पड़ते। लेकिन आयशा ने समझदारी दिखायी। बोली, ‘‘अच्छा, यह सब छोड़िए, यह बताइए कि खाने के लिए क्या बनाऊँ?’’
‘‘यह तो अपने दिल्ली वाले दादू से पूछो।’’ कहते हुए नूर मुस्कराये।
‘‘नहीं-नहीं, आप तकल्लुफ न करें। मेरे खाने का इंतजाम होटल में है।’’ मैंने कहा और उठकर खड़ा हो गया, ‘‘अब मैं चलूँगा।’’
‘‘खाना खाकर जाइए न, दादू! मैं अच्छा बनाती हूँ।’’
‘‘वह तो मैं तुम्हारे बनाये पकौड़े चखकर ही जान गया हूँ।’’ मैंने कहा।
‘‘तो चलिए, मैं आपको छोड़ आऊँ।’’ नूर भी उठ खड़े हुए, ‘‘आयशा बेटा, गाड़ी की चाभी।’’
‘‘आप क्यों तकलीफ करते हैं, मैं चला जाऊँगा।’’
‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है!’’ नूर ने कहा, ‘‘थोड़ी देर बैठिए, मैं कपड़े बदल लूँ।’’
आयशा अंदर चली गयी। नूर मेरे सामने ही कपड़े बदलते हुए मुझसे बातें करने लगे, ‘‘आप एक जमाने के बाद आये और ऐसे ही चले जा रहे हैं। अभी तो कोई बात ही नहीं हुई। मैंने बेकार की बातों में आपकी शाम बर्बाद कर दी।’’
‘‘नहीं, नूर भाई, बिलकुल नहीं। मैं तो कहूँगा कि आपने मेरा भोपाल आना सार्थक कर दिया। सच कहूँ, तो आपसे मिलने से पहले मैं डर रहा था कि कहीं मैं आपको एक टूटे-बिखरे इंसान के रूप में न देखूँ। लेकिन आप तो बड़े जुझारू इंसान हैं। सचमुच एक रचनाकार को जैसा होना चाहिए। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि एक शायर पंद्रह साल से एक उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहा होगा। और वह भी ऐसा उपन्यास!’’
बात फिर उपन्यास पर आ गयी, तो नूर फिर जोश में आ गये, ‘‘उपन्यास के लिए मसाला तो मैंने बहुत सारा जमा कर लिया है। लेकिन यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि इसे कहानी के रूप में किस तरह ढालूँ। मैं जो कहानी कहना चाहता हूँ, वह किसी एक व्यक्ति की, एक परिवार की, एक शहर की या एक देश की नहीं, बल्कि सारी दुनिया की कहानी होगी। मुझे लगता है, ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में साहित्य को भी ग्लोबल होना पड़ेगा। मगर किस तरह?’’
‘‘मैं भी आजकल इसी समस्या से जूझ रहा हूँ।’’
‘‘तो कुछ बताइए न, मुझे यह उपन्यास कैसे लिखना चाहिए?’’
‘‘नूर भाई, यह मैं कैसे बता सकता हूँ? लिखना चाहे जितना सार्वजनिक या वैश्विक हो जाये, अंततः वह एक नितांत व्यक्तिगत काम है। यह तो वह जंगल है, जिसमें से हर किसी को अपना रास्ता खुद ही निकालना पड़ता है।’’
‘‘अच्छा, आप उपन्यास का कोई अच्छा-सा नाम तो सुझा सकते हैं?’’
‘‘आपने क्या सोचा है?’’
‘‘मैंने तो ‘कीटनाशक’ सोचा है। कैसा रहेगा? मैं इसे देश के किसानों के उन हालात से भी जोड़ना चाहता हूँ, जो अक्सर कीटनाशक ही खाकर आत्महत्याएँ करते हैं। मैं उपन्यास में यह दिखाना चाहता हूँ कि आज का पूँजीवाद हमारे जैसे देशों में कैसा विकास कर रहा है और उससे किसानों का कैसा सर्वनाश हो रहा है।’’
‘‘तब तो ‘कीटनाशक’ बहुत अच्छा नाम है। आपके उपन्यास के लिए अभी से बधाई!’’
‘‘शुक्रिया!’’ नूर ने मुस्कराते हुए कहा और चलने के लिए तैयार होकर बोले, ‘‘आइए।’’
आयशा ने अंदर से आकर उन्हें कार की चाभी दी और मुझे सलाम किया। मैंने आशीर्वाद दिया। उसने फिर आने के लिए कहा, तो मैंने उसे सबके साथ दिल्ली आने का निमंत्रण दिया।
नीचे उतरकर जब मैं नूर की कार में बैठने लगा, तो ऊपर से आयशा की आवाज आयी, ‘‘दिल्ली वाले दादू, खुदा हाफिज!’’
मैंने सिर उठाकर देखा, आयशा बालकनी में खड़ी हाथ हिलाकर मुझे विदा कर रही थी।
हालाँकि रात हो चुकी थी, फिर भी नूर के फ्लैट की बालकनी तक पहुँचे हुए गुलमोहर के लाल फूल सड़क-बत्तियों की रोशनी में चमक रहे थे।
--रमेश उपाध्याय
Friday, November 12, 2010
‘‘साहित्य ग्राम’’ से मेरी एक पाठिका का पत्र
आज की डाक में भोपाल गैस कांड पर लिखी गयी मेरी कहानी ‘त्रासदी...माइ फुट!’ पर एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर मैं इतना खुश हुआ कि इस खुशी में सबको शामिल करना चाहता हूँ। पत्र में लिखा है :
आदरणीय,
श्री रमेश महोदय जी,
एक नादान, नासमझ का प्रणाम स्वीकार करें।
पहले मैं अपना परिचय दे दूँ, तदोपरांत अपनी बात कहना ठीक रहेगा। मैं राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील के गाँव परलीका की निवासी हूँ--संजू बिरट। मेरे गाँव परलीका को ‘‘साहित्य ग्राम’’ के नाम से भी जाना जाता है।
साहित्यिक गाँव है तो स्वाभाविक है, पढ़ने-लिखने में मेरी भी रुचि है। मगर अफसोस कि शायद मैंने आपको पहले नहीं पढ़ा। फिलहाल ‘प्रतिश्रुति’ के ताजा अंक में छपी आपकी कहानी ‘त्रासदी...माइ फुट!’ पढ़ी। इस कहानी ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। चूँकि मैं इस बीभत्स कांड के कई साल बाद इस दुनिया में आयी हूँ, सो मुझे इस बारे में कुछ विशेष न मालूम था। हाँ, अपनी छठी या सातवीं की एक किताब में इस पर एक पैराग्राफ लगता था, वह पढ़ा था, पर उसके अर्थ इतने गहरे हैं, यह अहसास आपकी कहानी पढ़कर हुआ। पिछले दिनों भोपाल गैस कांड पर रिपोर्ट को लेकर भी अखबार में पढ़ा, पर जाना तब भी नहीं कि सच्चाई इतनी कड़वी है। महोदय, मैं और मेरे साथ-साथ ‘त्रासदी...माइ फुट!’ पढ़ने वाला हर मेरे वर्ग का युवा तहे दिल से आपका शुक्रगुजार हैं, जो आपने इतनी गहराई और विश्वसनीयता के साथ हमें एक बहुत बड़े राज से अवगत कराया। हम ‘प्रतिश्रुति’ के भी बेहद आभारी हैं, जो एक सार्थक और सच्चाई से लबरेज अनमोल रत्न हमें इनायत किया।
सर, आपकी कहानी में साहित्य और साहित्यकारों पर जो चर्चा सामने आयी है, मैं उससे पूर्णतः सहमत हूँ। मेरा गाँव साहित्यिक गाँव है, यहाँ दिल्ली तक पहुँचे हुए कई नाम (श्री रामस्वरूप किसान, श्री सत्यनारायण सोनी, श्री विनोद स्वामी) हैं, बहुत-से साहित्यिक आयोजन भी होते हैं, मगर वास्तव में उनका मकसद खुद का नाम फैलाना और इनाम बटोरना ही होता है, यह बात मैंने भी शिद्दत से महसूस की है। चूँकि नींव साहित्य की पड़ी है, पर वास्तव में हम (यहाँ मैं अपने आयु-वर्ग की बात कर रही हूँ) जानते ही नहीं कि साहित्य है क्या? मैंने कई बड़े नाम पढ़े हैं, तस्लीमा नसरीन को पढ़ा है, तो कुछ गोर्की को भी पढ़ा है, मगर आपकी कहानी में जो पुट मुझे मिला है, उसके बाद मुझे यही लगा है कि वास्तव में मैं साहित्य से अनजान हूँ। महोदय, आप सोच रहे होंगे कि मैं तारीफ कर रही हूँ, तो ऐसा नहीं है। सचमुच ‘त्रासदी...माइ फुट!’ बहुत गहरी संवेदना वाली कहानी है, जो किसी भी संवेदनशील इंसान को हिला दे। जिस एक कहानी ने ‘प्रतिश्रुति’ को छापने के लिए मजबूर कर दिया, उसी ने मुझे भी विवश कर दिया कि आपको पत्र लिखूँ। एक बार फिर से हम आपके बेहद आभारी हैं, सर!
महोदय, परिवार सहित दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ। कोई भूल हुई हो, तो नासमझ बच्ची समझकर माफ कर दीजिएगा।--संजू बिरट
--रमेश उपाध्याय
आदरणीय,
श्री रमेश महोदय जी,
एक नादान, नासमझ का प्रणाम स्वीकार करें।
पहले मैं अपना परिचय दे दूँ, तदोपरांत अपनी बात कहना ठीक रहेगा। मैं राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील के गाँव परलीका की निवासी हूँ--संजू बिरट। मेरे गाँव परलीका को ‘‘साहित्य ग्राम’’ के नाम से भी जाना जाता है।
साहित्यिक गाँव है तो स्वाभाविक है, पढ़ने-लिखने में मेरी भी रुचि है। मगर अफसोस कि शायद मैंने आपको पहले नहीं पढ़ा। फिलहाल ‘प्रतिश्रुति’ के ताजा अंक में छपी आपकी कहानी ‘त्रासदी...माइ फुट!’ पढ़ी। इस कहानी ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। चूँकि मैं इस बीभत्स कांड के कई साल बाद इस दुनिया में आयी हूँ, सो मुझे इस बारे में कुछ विशेष न मालूम था। हाँ, अपनी छठी या सातवीं की एक किताब में इस पर एक पैराग्राफ लगता था, वह पढ़ा था, पर उसके अर्थ इतने गहरे हैं, यह अहसास आपकी कहानी पढ़कर हुआ। पिछले दिनों भोपाल गैस कांड पर रिपोर्ट को लेकर भी अखबार में पढ़ा, पर जाना तब भी नहीं कि सच्चाई इतनी कड़वी है। महोदय, मैं और मेरे साथ-साथ ‘त्रासदी...माइ फुट!’ पढ़ने वाला हर मेरे वर्ग का युवा तहे दिल से आपका शुक्रगुजार हैं, जो आपने इतनी गहराई और विश्वसनीयता के साथ हमें एक बहुत बड़े राज से अवगत कराया। हम ‘प्रतिश्रुति’ के भी बेहद आभारी हैं, जो एक सार्थक और सच्चाई से लबरेज अनमोल रत्न हमें इनायत किया।
सर, आपकी कहानी में साहित्य और साहित्यकारों पर जो चर्चा सामने आयी है, मैं उससे पूर्णतः सहमत हूँ। मेरा गाँव साहित्यिक गाँव है, यहाँ दिल्ली तक पहुँचे हुए कई नाम (श्री रामस्वरूप किसान, श्री सत्यनारायण सोनी, श्री विनोद स्वामी) हैं, बहुत-से साहित्यिक आयोजन भी होते हैं, मगर वास्तव में उनका मकसद खुद का नाम फैलाना और इनाम बटोरना ही होता है, यह बात मैंने भी शिद्दत से महसूस की है। चूँकि नींव साहित्य की पड़ी है, पर वास्तव में हम (यहाँ मैं अपने आयु-वर्ग की बात कर रही हूँ) जानते ही नहीं कि साहित्य है क्या? मैंने कई बड़े नाम पढ़े हैं, तस्लीमा नसरीन को पढ़ा है, तो कुछ गोर्की को भी पढ़ा है, मगर आपकी कहानी में जो पुट मुझे मिला है, उसके बाद मुझे यही लगा है कि वास्तव में मैं साहित्य से अनजान हूँ। महोदय, आप सोच रहे होंगे कि मैं तारीफ कर रही हूँ, तो ऐसा नहीं है। सचमुच ‘त्रासदी...माइ फुट!’ बहुत गहरी संवेदना वाली कहानी है, जो किसी भी संवेदनशील इंसान को हिला दे। जिस एक कहानी ने ‘प्रतिश्रुति’ को छापने के लिए मजबूर कर दिया, उसी ने मुझे भी विवश कर दिया कि आपको पत्र लिखूँ। एक बार फिर से हम आपके बेहद आभारी हैं, सर!
महोदय, परिवार सहित दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ। कोई भूल हुई हो, तो नासमझ बच्ची समझकर माफ कर दीजिएगा।--संजू बिरट
--रमेश उपाध्याय
Wednesday, October 20, 2010
नये कहानीकार एक नया कहानी आंदोलन चलायें
‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2010 के अंक में
रमेश उपाध्याय से अशोक कुमार पांडेय की बातचीत के कुछ चुने हुए अंश
अशोक कुमार पांडेय : रमेश जी, यह बताइए कि 1980 के दशक के बाद के कालखंड में हिंदी कविता और हिंदी कहानी, दोनों में किसी आंदोलन का जो अभाव दिखता है, उसके क्या कारण हैं?
रमेश उपाध्याय : अशोक जी, इस प्रश्न पर सही ढंग से विचार करने के लिए साहित्यिक आंदोलन और साहित्यिक फैशन में फर्क करना चाहिए। साहित्यिक आंदोलन--जैसे भक्ति आंदोलन या आधुनिक युग में प्रगतिशील और जनवादी आंदोलन--हमेशा अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से सार्थक और सोद्देश्य रूप में जुड़े होते हैं, जबकि साहित्यिक फैशन ‘कला के लिए कला’ के सिद्धांत पर चलते हैं और अंततः उनका संबंध साहित्य के बाजार और व्यापार से जुड़ता है। आपने 1980 के दशक के बाद के कालखंड की बात की। अर्थात् आप 1991 से 2010 तक के बीस वर्षों में हिंदी साहित्य में किसी आंदोलन को अनुपस्थित पाते हैं। तो आप यह देखें कि आजादी के बाद से 1980 के दशक तक हिंदी साहित्य मुख्य रूप से दो बड़े आंदोलनों से जुड़ा हुआ था। एक राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से और दूसरे प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन से । और यह दोनों ही प्रकार का साहित्य अपने-अपने ढंग से सार्थक और सोद्देश्य साहित्य था। लेकिन आजादी के बाद जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे आंदोलन कम और साहित्य के नये फैशन ज्यादा थे।
अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से आज की कहानी की मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है?
रमेश उपाध्याय : आज के ज्यादातर लेखक वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान में उन्हें सिर्फ बाजार दिखता है--एक भूमंडलीय बाजार--जिसमें अपनी जगह बनाना, अपना बाजार बनाना, उस बाजार में टिके रहना और ऊँची कीमत पर बिकना ही उन्हें अपना और अपने लेखन का एकमात्र उद्देश्य दिखता है। इस प्रवृत्ति को आप बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति कह सकते हैं और आज की मुख्य प्रवृत्ति यही है।
अशोक कुमार पांडेय : मैं जानता हूँ कि आप बाजारवाद के विरोधी हैं, इसलिए आप इस बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति के समर्थक नहीं हो सकते। तो आज की कहानी की वह कौन-सी प्रवृत्ति है, जिसे आप सही मानते हैं?
रमेश उपाध्याय : भविष्योन्मुखी प्रवृत्ति। कहानीकार किसी भी पीढ़ी का हो, आज उसमें भविष्योन्मुखी दृष्टि से भूमंडलीय यथार्थ को समझने की और उसे प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता होनी चाहिए।
अशोक कुमार पांडेय : हिंदी कहानी की आलोचना की अब क्या भूमिका है? क्या वह वास्तव में नये रचनाकारों की परख कर पा रही है?
रमेश उपाध्याय : आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर निहित है। लेकिन यह देखना चाहिए कि इसका कारण क्या है। मुझे लगता है कि हिंदी कहानी और कहानी की आलोचना दोनों को बाजारवाद बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है। बाजारोन्मुख कहानीकार और आलोचक यह मानकर चल रहें हैं कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह दुनिया अब हमेशा ऐसे ही चलेगी। इसे बदलना, सुधरना, सँवारना, बेहतर बनाना संभव नहीं है। साहित्य से और कहानी जैसी विधा से तो बिलकुल नहीं। वे कहानी को बाजार में बिकने वाली वस्तु मानते हैं। कहानीकार आलोचकों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी कहानी को--और उनको भी--बाजार में ऊँचे दामों में बिकने लायक बनायें। अर्थात् उनका विज्ञापन करें, बाजार में उनकी जगह बनायें, उनकी कीमत बढ़ायें। दुर्भाग्य से आलोचक स्वयं भी यही चाहते हैं कि वे लेखकों का बाजार बना और बिगाड़ सकने की भूमिका में बने रहें, ताकि वे स्वयं भी बाजार में टिके रहें और उनकी अपनी कीमत भी बढ़ती रहे। ऐसे लेखक और ऐसे आलोचक दुनिया के भविष्य के बारे में नहीं, केवल अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं।
अशोक कुमार पांडेय : लेकिन ऐसे कहानीकार और ऐसे आलोचक भी तो हैं, जो अपना भविष्य दुनिया के भविष्य के साथ जोड़कर देखते हैं?
रमेश उपाध्याय : निश्चित रूप से हैं। मगर उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई आंदोलन न होने के कारण वे बिखरे हुए हैं, अलग-थलग पड़े हुए हैं। जरूरत है कि वे निकट आयें और मिल-जुलकर एक आंदोलन चलायें। एक नया कहानी आंदोलन। समाज को, समय को ऐसे ही कहानीकारों और आलोचकों की जरूरत है।
अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से उस नये आंदोलन का नाम और रूप?
रमेश उपाध्याय : रूप तो आंदोलन चलाने वाले लेखक ही उसे देंगे, पर मैं एक नाम सुझा सकता हूँ। हमारी इस बातचीत में अभी-अभी दो शब्द आये--बाजारोन्मुखी और भविष्योन्मुखी। तो हम बाजारोन्मुखी कहानी के बरक्स भविष्योन्मुखी कहानी का आंदोलन ही क्यों न चलायें?
रमेश उपाध्याय से अशोक कुमार पांडेय की बातचीत के कुछ चुने हुए अंश
अशोक कुमार पांडेय : रमेश जी, यह बताइए कि 1980 के दशक के बाद के कालखंड में हिंदी कविता और हिंदी कहानी, दोनों में किसी आंदोलन का जो अभाव दिखता है, उसके क्या कारण हैं?
रमेश उपाध्याय : अशोक जी, इस प्रश्न पर सही ढंग से विचार करने के लिए साहित्यिक आंदोलन और साहित्यिक फैशन में फर्क करना चाहिए। साहित्यिक आंदोलन--जैसे भक्ति आंदोलन या आधुनिक युग में प्रगतिशील और जनवादी आंदोलन--हमेशा अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से सार्थक और सोद्देश्य रूप में जुड़े होते हैं, जबकि साहित्यिक फैशन ‘कला के लिए कला’ के सिद्धांत पर चलते हैं और अंततः उनका संबंध साहित्य के बाजार और व्यापार से जुड़ता है। आपने 1980 के दशक के बाद के कालखंड की बात की। अर्थात् आप 1991 से 2010 तक के बीस वर्षों में हिंदी साहित्य में किसी आंदोलन को अनुपस्थित पाते हैं। तो आप यह देखें कि आजादी के बाद से 1980 के दशक तक हिंदी साहित्य मुख्य रूप से दो बड़े आंदोलनों से जुड़ा हुआ था। एक राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से और दूसरे प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन से । और यह दोनों ही प्रकार का साहित्य अपने-अपने ढंग से सार्थक और सोद्देश्य साहित्य था। लेकिन आजादी के बाद जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे आंदोलन कम और साहित्य के नये फैशन ज्यादा थे।
अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से आज की कहानी की मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है?
रमेश उपाध्याय : आज के ज्यादातर लेखक वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान में उन्हें सिर्फ बाजार दिखता है--एक भूमंडलीय बाजार--जिसमें अपनी जगह बनाना, अपना बाजार बनाना, उस बाजार में टिके रहना और ऊँची कीमत पर बिकना ही उन्हें अपना और अपने लेखन का एकमात्र उद्देश्य दिखता है। इस प्रवृत्ति को आप बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति कह सकते हैं और आज की मुख्य प्रवृत्ति यही है।
अशोक कुमार पांडेय : मैं जानता हूँ कि आप बाजारवाद के विरोधी हैं, इसलिए आप इस बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति के समर्थक नहीं हो सकते। तो आज की कहानी की वह कौन-सी प्रवृत्ति है, जिसे आप सही मानते हैं?
रमेश उपाध्याय : भविष्योन्मुखी प्रवृत्ति। कहानीकार किसी भी पीढ़ी का हो, आज उसमें भविष्योन्मुखी दृष्टि से भूमंडलीय यथार्थ को समझने की और उसे प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता होनी चाहिए।
अशोक कुमार पांडेय : हिंदी कहानी की आलोचना की अब क्या भूमिका है? क्या वह वास्तव में नये रचनाकारों की परख कर पा रही है?
रमेश उपाध्याय : आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर निहित है। लेकिन यह देखना चाहिए कि इसका कारण क्या है। मुझे लगता है कि हिंदी कहानी और कहानी की आलोचना दोनों को बाजारवाद बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है। बाजारोन्मुख कहानीकार और आलोचक यह मानकर चल रहें हैं कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह दुनिया अब हमेशा ऐसे ही चलेगी। इसे बदलना, सुधरना, सँवारना, बेहतर बनाना संभव नहीं है। साहित्य से और कहानी जैसी विधा से तो बिलकुल नहीं। वे कहानी को बाजार में बिकने वाली वस्तु मानते हैं। कहानीकार आलोचकों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी कहानी को--और उनको भी--बाजार में ऊँचे दामों में बिकने लायक बनायें। अर्थात् उनका विज्ञापन करें, बाजार में उनकी जगह बनायें, उनकी कीमत बढ़ायें। दुर्भाग्य से आलोचक स्वयं भी यही चाहते हैं कि वे लेखकों का बाजार बना और बिगाड़ सकने की भूमिका में बने रहें, ताकि वे स्वयं भी बाजार में टिके रहें और उनकी अपनी कीमत भी बढ़ती रहे। ऐसे लेखक और ऐसे आलोचक दुनिया के भविष्य के बारे में नहीं, केवल अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं।
अशोक कुमार पांडेय : लेकिन ऐसे कहानीकार और ऐसे आलोचक भी तो हैं, जो अपना भविष्य दुनिया के भविष्य के साथ जोड़कर देखते हैं?
रमेश उपाध्याय : निश्चित रूप से हैं। मगर उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई आंदोलन न होने के कारण वे बिखरे हुए हैं, अलग-थलग पड़े हुए हैं। जरूरत है कि वे निकट आयें और मिल-जुलकर एक आंदोलन चलायें। एक नया कहानी आंदोलन। समाज को, समय को ऐसे ही कहानीकारों और आलोचकों की जरूरत है।
अशोक कुमार पांडेय : आपके विचार से उस नये आंदोलन का नाम और रूप?
रमेश उपाध्याय : रूप तो आंदोलन चलाने वाले लेखक ही उसे देंगे, पर मैं एक नाम सुझा सकता हूँ। हमारी इस बातचीत में अभी-अभी दो शब्द आये--बाजारोन्मुखी और भविष्योन्मुखी। तो हम बाजारोन्मुखी कहानी के बरक्स भविष्योन्मुखी कहानी का आंदोलन ही क्यों न चलायें?
Wednesday, September 29, 2010
कहाँ है वह शानदार अनिश्चितताओं का खेल?
क्रिकेट को ‘ग्लोरियस अनसर्टेन्टीज़’ (शानदार अनिश्चितताओं) का खेल कहा जाता है। पूरी मेहनत, पूरी तैयारी और पूरी कुशलता से खेलने पर भी इसमें कब क्या हो जाये, कोई नहीं जानता। इसमें कोई भी टीम जीतते-जीतते हार सकती है और हारते-हारते जीत सकती है। यह अनिश्चितता ही इस खेल को इतना रोचक, रोमांचक और लोकप्रिय बनाती है।
खेल के मैदान में जाकर या अपने घर में टी।वी. के सामने बैठकर क्रिकेट मैच देखने के शौकीन दर्शकों को इसकी अनिश्चितता में ही आनंद आता है। यदि वन डे में अंत के पहले मैच एकतरफा हो जाने से एक टीम की जीत निश्चित हो जाये, या टैस्ट में हार-जीत के फैसले की जगह मैच ड्रॉ की ओर बढ़ने लगे, तो दर्शकों की उत्सुकता खत्म हो जाती है। मैदान में बैठे दर्शक उठकर चल देते हैं, घर में देख रहे दर्शक टी.वी. बंद कर देते हैं। सबसे दिलचस्प खेल वह होता है, जिसमें दोनों टीमों के बीच काँटे का मुकाबला हो और ज्यों-ज्यों मैच अंत की ओर बढ़े, दर्शकों की उत्सुकता, चिंता और दिल की धड़कन बढ़ती जाये। कितने ही दर्शक अपने वांछित परिणाम के लिए प्रार्थना करने लगते हैं। अवांछित परिणाम निकलने पर किसी-किसी का हार्टफेल भी हो जाता है।
हमारा जीवन भी शानदार अनिश्चितताओं का खेल है। इसमें भी कोई नहीं जानता कि कब क्या हो जायेगा। लेकिन इस अनिश्चितता में ही आशा है और सही दिशा में उचित प्रयास करने की प्रेरणा भी। उतार-चढ़ाव और सफलता-विफलता के अवसर आते रहते हैं, लेकिन जीवन में उत्सुकता, उम्मीद और उमंग बनी रहती है। अनिश्चितता ही जीवन को दिलचस्प और अच्छे ढंग से जीने लायक बनाती है।
लेकिन जब से ‘मैच फिक्सिंग’ का सिलसिला शुरू हुआ है (और अब तो ‘स्पॉट फिक्सिंग' भी होने लगी है, जैसी पिछले दिनों इंग्लैंड और पाकिस्तान के बीच खेले गये एक मैच में पहले से तयशुदा तीन ‘नो बॉल’ फेंके जाने के रूप में सामने आयी), तब से क्रिकेट का खेल देखने का मजा ही जाता रहा। यह भरोसा ही नहीं रहा कि जो हम देख रहे हैं, वह वास्तव में हो रहा है या पहले से कहीं और, किसी और के द्वारा ‘फिक्स्ड’ होकर तयशुदा तरीके से किया जा रहा है!
यही हाल हमारे जीवन का हो गया है। पहले भी धाँधलियाँ होती थीं, फिर भी कहीं न कहीं न्याय और ‘फेयरनेस’ में विश्वास बना रहता था। योग्यता के आधार पर कहीं चुने जा सकने की उम्मीद बनी रहती थी। लेकिन अब तो ऐसा लगता है, जैसे जीवन में भी हर चीज़ पहले से ‘फिक्स्ड’ है--परीक्षा में, इंटरव्यू में, प्रतियोगिता में, हर तरह के चयन और नामांकन में। और तो और, जनतंत्र के नाम पर लड़े जाने वाले चुनावों में, जनहित के नाम पर बनायी जाने वाली नीतियों में, शासन और प्रशासन के कार्यों में, यहाँ तक कि न्यायालयों के निर्णयों में भी! ऐसी स्थिति में आशा कहाँ से पैदा हो? प्रयास की प्रेरणा कैसे मिले? जीवन में रुचि कैसे बनी रहे? आनंद कहाँ से आये?
जब पहले से ही मालूम हो कि ‘वे’ ही जीतेंगे और ‘हम’ ही हारेंगे, तो जीवन में क्या रुचि रहेगी? क्या आशा और क्या प्रेरणा?
--रमेश उपाध्याय
खेल के मैदान में जाकर या अपने घर में टी।वी. के सामने बैठकर क्रिकेट मैच देखने के शौकीन दर्शकों को इसकी अनिश्चितता में ही आनंद आता है। यदि वन डे में अंत के पहले मैच एकतरफा हो जाने से एक टीम की जीत निश्चित हो जाये, या टैस्ट में हार-जीत के फैसले की जगह मैच ड्रॉ की ओर बढ़ने लगे, तो दर्शकों की उत्सुकता खत्म हो जाती है। मैदान में बैठे दर्शक उठकर चल देते हैं, घर में देख रहे दर्शक टी.वी. बंद कर देते हैं। सबसे दिलचस्प खेल वह होता है, जिसमें दोनों टीमों के बीच काँटे का मुकाबला हो और ज्यों-ज्यों मैच अंत की ओर बढ़े, दर्शकों की उत्सुकता, चिंता और दिल की धड़कन बढ़ती जाये। कितने ही दर्शक अपने वांछित परिणाम के लिए प्रार्थना करने लगते हैं। अवांछित परिणाम निकलने पर किसी-किसी का हार्टफेल भी हो जाता है।
हमारा जीवन भी शानदार अनिश्चितताओं का खेल है। इसमें भी कोई नहीं जानता कि कब क्या हो जायेगा। लेकिन इस अनिश्चितता में ही आशा है और सही दिशा में उचित प्रयास करने की प्रेरणा भी। उतार-चढ़ाव और सफलता-विफलता के अवसर आते रहते हैं, लेकिन जीवन में उत्सुकता, उम्मीद और उमंग बनी रहती है। अनिश्चितता ही जीवन को दिलचस्प और अच्छे ढंग से जीने लायक बनाती है।
लेकिन जब से ‘मैच फिक्सिंग’ का सिलसिला शुरू हुआ है (और अब तो ‘स्पॉट फिक्सिंग' भी होने लगी है, जैसी पिछले दिनों इंग्लैंड और पाकिस्तान के बीच खेले गये एक मैच में पहले से तयशुदा तीन ‘नो बॉल’ फेंके जाने के रूप में सामने आयी), तब से क्रिकेट का खेल देखने का मजा ही जाता रहा। यह भरोसा ही नहीं रहा कि जो हम देख रहे हैं, वह वास्तव में हो रहा है या पहले से कहीं और, किसी और के द्वारा ‘फिक्स्ड’ होकर तयशुदा तरीके से किया जा रहा है!
यही हाल हमारे जीवन का हो गया है। पहले भी धाँधलियाँ होती थीं, फिर भी कहीं न कहीं न्याय और ‘फेयरनेस’ में विश्वास बना रहता था। योग्यता के आधार पर कहीं चुने जा सकने की उम्मीद बनी रहती थी। लेकिन अब तो ऐसा लगता है, जैसे जीवन में भी हर चीज़ पहले से ‘फिक्स्ड’ है--परीक्षा में, इंटरव्यू में, प्रतियोगिता में, हर तरह के चयन और नामांकन में। और तो और, जनतंत्र के नाम पर लड़े जाने वाले चुनावों में, जनहित के नाम पर बनायी जाने वाली नीतियों में, शासन और प्रशासन के कार्यों में, यहाँ तक कि न्यायालयों के निर्णयों में भी! ऐसी स्थिति में आशा कहाँ से पैदा हो? प्रयास की प्रेरणा कैसे मिले? जीवन में रुचि कैसे बनी रहे? आनंद कहाँ से आये?
जब पहले से ही मालूम हो कि ‘वे’ ही जीतेंगे और ‘हम’ ही हारेंगे, तो जीवन में क्या रुचि रहेगी? क्या आशा और क्या प्रेरणा?
--रमेश उपाध्याय
Saturday, September 25, 2010
कहाँ है जनता जनार्दन?
कल (24 सितंबर, 2010) के दैनिक ‘जनसत्ता’ में अरुण कुमार पानीबाबा का लेख छपा है, ‘खेल-कूद और नौकरशाह’, जिसमें बताया गया है कि दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में एक लाख करोड़ रुपये का घोटाला हो चुका है। लिखा है--‘‘आम सूचनाओं के मुताबिक 2002 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने खेल समारोह की स्वीकृति दी, तब 617.5 करोड़ रुपये खर्च का अनुमान था। 2004 से अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए महँगाई में दुगनी-तिगुनी वृद्धि की, तो लागत बढ़कर दो हजार करोड़ तक हो जाना लाजमी था। फिर पता चला कि 2008 में संशोधित अनुमान सात हजार करोड़ का हो गया था। अगले बरस 2009 में प्रमुख लेखाकार के हिसाब से तेरह हजार करोड़ रुपये का प्रावधान हो गया था। अब दो शोधकर्ताओं ने विभिन्न सूत्रों से विविध आँकड़े जुटाकर सत्तर हजार छह सौ आठ करोड़ का आँकड़ा नाप-तोलकर प्रस्तुत कर दिया।’’
आगे लिखा है--‘‘हमारे संकुचित विवेक की समस्या यह है कि इन आँकड़ों पर विश्वास कर लें, तो यह कैसे बूझें कि इतनी बड़ी रकम बिना ‘बजट’ आयी कहाँ से? और अगर प्रावधान करके खर्च की गयी है, तो क्या बजट सत्र में पूरी संसद सो रही थी? और किन्हीं अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से ऋण लिया गया, तो यह काम गुपचुप कैसे होता रहा? यह विश्वास भी नहीं होता कि भारत सरकार ने सब कुछ अनधिकृत तौर पर कर लिया होगा।’’
इसके पहले एक जगह लिखा है--‘‘जनता दल (एकीकृत) के अध्यक्ष शरद यादव ने लोकसभा में डंके की चोट पर चुनौती दे दी कि खेल समारोह के नाम पर घोटाला एक लाख करोड़ रुपये का हो चुका है। हम हतप्रभ थे, चकित भाव से सोच रहे थे कि ‘अतिशयोक्ति’ पर नाप और नियंत्रण लागू होगा। मगर किसी सरकारी बाबू ने आज तक चूँ भी नहीं की।’’
लिखा है--‘‘भारत सरकार ने ‘आश्वासन’ दिया है कि पैसे-पैसे का हिसाब होगा और चोरों को कड़ी सजा दी जायेगी। लेकिन सभी जानते हैं, आम नागरिक भी अवगत है कि पिछले पाँच-छह दशक में जो शासन-प्रशासन विकसित हुआ है, उसमें भ्रष्ट नौकरशाह या नेता की धींगाधींगी को नियंत्रित करने का हाल-फिलहाल कोई तरीका नहीं है।’’ अतः ‘‘किसी के मन में कोई डर नहीं है। तमाम दोषी अफसर-नेता आश्वस्त हैं। प्रजातंत्र के फसाद में ऐसा कौन है, जिसके हाथ मल में नहीं सने, और मुख पर कालिख नहीं लगी है?’’
लेख के अंत में लिखा है--‘‘हमारी समझ से, प्रजातंत्र में जनता को स्वयं जनार्दन की भूमिका का निर्वहन करना होता है। क्या इस एक लाख करोड़ रुपये के घोटाले के बाद भी देश सोता रहेगा?’’
मेरा प्रश्न है: कहाँ है जनता जनार्दन?
--रमेश उपाध्याय
आगे लिखा है--‘‘हमारे संकुचित विवेक की समस्या यह है कि इन आँकड़ों पर विश्वास कर लें, तो यह कैसे बूझें कि इतनी बड़ी रकम बिना ‘बजट’ आयी कहाँ से? और अगर प्रावधान करके खर्च की गयी है, तो क्या बजट सत्र में पूरी संसद सो रही थी? और किन्हीं अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से ऋण लिया गया, तो यह काम गुपचुप कैसे होता रहा? यह विश्वास भी नहीं होता कि भारत सरकार ने सब कुछ अनधिकृत तौर पर कर लिया होगा।’’
इसके पहले एक जगह लिखा है--‘‘जनता दल (एकीकृत) के अध्यक्ष शरद यादव ने लोकसभा में डंके की चोट पर चुनौती दे दी कि खेल समारोह के नाम पर घोटाला एक लाख करोड़ रुपये का हो चुका है। हम हतप्रभ थे, चकित भाव से सोच रहे थे कि ‘अतिशयोक्ति’ पर नाप और नियंत्रण लागू होगा। मगर किसी सरकारी बाबू ने आज तक चूँ भी नहीं की।’’
लिखा है--‘‘भारत सरकार ने ‘आश्वासन’ दिया है कि पैसे-पैसे का हिसाब होगा और चोरों को कड़ी सजा दी जायेगी। लेकिन सभी जानते हैं, आम नागरिक भी अवगत है कि पिछले पाँच-छह दशक में जो शासन-प्रशासन विकसित हुआ है, उसमें भ्रष्ट नौकरशाह या नेता की धींगाधींगी को नियंत्रित करने का हाल-फिलहाल कोई तरीका नहीं है।’’ अतः ‘‘किसी के मन में कोई डर नहीं है। तमाम दोषी अफसर-नेता आश्वस्त हैं। प्रजातंत्र के फसाद में ऐसा कौन है, जिसके हाथ मल में नहीं सने, और मुख पर कालिख नहीं लगी है?’’
लेख के अंत में लिखा है--‘‘हमारी समझ से, प्रजातंत्र में जनता को स्वयं जनार्दन की भूमिका का निर्वहन करना होता है। क्या इस एक लाख करोड़ रुपये के घोटाले के बाद भी देश सोता रहेगा?’’
मेरा प्रश्न है: कहाँ है जनता जनार्दन?
--रमेश उपाध्याय
Friday, September 3, 2010
रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए एक पहल
‘‘आज के समय में यह भी एक बड़ा भारी काम है कि अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने का प्रयास किया जाये। उसे आज के रचना-विरोधी माहौल में असंभव न होने दिया जाये। क्या इसके लिए कोई सकारात्मक पहल की जा सकती है? यदि हाँ, तो कैसे? इस पर रचनाकारों को मिल-बैठकर, आपस में, छोटी-बड़ी गोष्ठियों और सम्मेलनों में विचार करना चाहिए। लेकिन इंटरनेट भी एक मंच है, इस पर भी इस सवाल पर बात होनी चाहिए। नहीं?’’
फेसबुक पर मेरे इस विचार का जो व्यापक स्वागत हुआ है, उससे मैं बहुत प्रसन्न और उत्साहित हूँ। लगता है कि हिंदी के अनेक लेखक, पाठक, पत्रकार, प्राध्यापक आदि ऐसी पहल के विचार से सहमत ही नहीं, बल्कि उसे तुरंत शुरू करने के लिए तैयार भी हैं। उनमें से कुछ मित्रों ने सुझाव दिया है कि मैं इस पहल की एक रूपरेखा प्रस्तावित करूँ, जिस पर विचार-विमर्श के बाद एक न्यूनतम सहमति बने और काम शुरू हो।
तो, मित्रो, ऐसी कोई रूपरेखा प्रस्तुत करने के बजाय मैं उससे पहले की कुछ बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मैं कोई नया मंच या संगठन बनाने की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि इंटरनेट के रूप में जो एक बहुत बड़ा, व्यापक और प्रभावशाली मंच पहले से ही मौजूद है, उसी पर एक नयी पहल की जरूरत की बात कर रहा हूँ। हम लोग, जो इस मंच पर उपस्थित हैं, कुछ काम पहले से ही कर रहे हैं। मसलन, हम एक-दूसरे को अपनी तथा दूसरों की रचनाओं की जानकारी दे रहे हैं, अपनी तथा दूसरों की रचनाशीलता से संबंधित समस्याओं को सामने ला रहे हैं, अपने साहित्यिक अनुभवों और सामाजिक तथा सांस्कृतिक सरोकारों को साझा कर रहे हैं और इस प्रकार दूर-दूर बैठे होने पर भी एक-दूसरे के निकट आकर एक साहित्यिक वातावरण बना रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि इस माध्यम की अपार संभावनाओं के शतांश, बल्कि सहस्रांश का भी उपयोग अभी हम नहीं कर पा रहे हैं।
मैं केवल ब्लॉग और फेसबुक की बात नहीं, पूरे इंटरनेट की बात कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि यह हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए एक अत्यंत उपयोगी और प्रभावशाली माध्यम है, जो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक, स्थानीय और भूमंडलीय सभी स्तरों पर एक साथ सोचने और सक्रिय होने में समर्थ बना सकता है। लेकिन फिलहाल मैं इतने विस्तार में न जाकर केवल लेखकों से अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के माध्यम के रूप में इसके उपयोग की बात करना चाहता हूँ।
शायद आपको याद हो, मैंने 12 जुलाई, 2010 की अपनी पोस्ट में ‘सोशल नेटवर्किंग’ के बारे में लिखते हुए यह सवाल उठया था कि हम इंटरनेट की आभासी दुनिया का रिश्ता वास्तविक दुनिया से कैसे जोड़ें। मैंने लिखा था--‘‘क्या हम इस माध्यम का उपयोग वास्तविक दुनिया के उन जीते-जागते लोगों तक पहुँचने के लिए कर सकते हैं, जिनके पास जाकर हम उनसे हाथ मिला सकें, गले मिल सकें, आमने-सामने बैठकर चाय-कॉफी पीते हुए बात कर सकें, हँसी-मजाक और धौल-धप्पा कर सकें, लड़-झगड़ सकें और मिल-जुलकर कोई सार्थक काम करने की सोच सकें?’’
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं कहना चाहता हूँ: क्या हम लेखकों के रूप में अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए इस माध्यम का उपयोग कर सकते हैं? ‘दूसरों’ से मेरा अभिप्राय दूसरे लेखकों से नहीं, बल्कि पाठकों से है; क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि पाठक भी रचनाशील होते हैं और इस नाते वे लेखक के साथी-सहयोगी रचनाकार होते हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि पाठकों की रचनाशीलता को बचाये-बढ़ाये बिना हम अपनी रचनाशीलता को भी नहीं बचा-बढ़ा सकते। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है--और दुर्भाग्य का कारण भी--कि हम अपने पाठकों की परवाह नहीं करते। हम न तो उन्हें जानते हैं, न उनके लिए लिखते हैं। हम लिखते हैं संपादकों, प्रकाशकों, आलोचकों, पुरस्कारदाताओं या किसी अन्य प्रकार से बाजार में हमारी जगह बना सकने वालों के लिए; जबकि हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने वाले होते हैं हमारे पाठक। पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से पाठकों तक हमारी सीधी पहुँच नहीं होती, लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हम उन तक सीधे पहुँच सकते हैं।
कारण यह कि हमारे लिए इंटरनेट एक ऐसा मंच है, जो सार्वजनिक और सार्वदेशिक होते हुए भी हमें अपनी बात अपने ढंग से कहने की पूरी आज़ादी देता है। यहाँ हम किसी और संस्था या संगठन के सदस्य नहीं, बल्कि स्वयं ही एक संस्था या संगठन हैं। किसी और नेता के अनुयायी नहीं, स्वयं ही अपने नेता और मार्गदर्शक हैं। किसी और संपादक या प्रकाशक के मोहताज नहीं, स्वयं ही अपने संपादक और प्रकाशक हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उपयोग हम अपनी और अपने पाठकों की रचनाशीलता को बचाने-बढ़ाने के लिए बहुत ही कम कर पा रहे हैं।
मेरी मूल चिंता यह है कि यह काम कैसे किया जाये। मगर, मित्रो, मैं अकेला इस समस्या का समाधान खोज पाने में असमर्थ हूँ और मुझे लगता है कि यह काम हम सब रचनाकारों को मिल-जुलकर ही करना पड़ेगा। मगर कैसे? इस पर आप सोचें और मुझे बतायें। मिलकर न बताना चाहें, तो इंटरनेट के जरिये ही बतायें, पर बतायें जरूर; क्योंकि यह काम अत्यंत आवश्यक होने के साथ-साथ आपका भी उतना ही है, जितना कि मेरा।
--रमेश उपाध्याय
फेसबुक पर मेरे इस विचार का जो व्यापक स्वागत हुआ है, उससे मैं बहुत प्रसन्न और उत्साहित हूँ। लगता है कि हिंदी के अनेक लेखक, पाठक, पत्रकार, प्राध्यापक आदि ऐसी पहल के विचार से सहमत ही नहीं, बल्कि उसे तुरंत शुरू करने के लिए तैयार भी हैं। उनमें से कुछ मित्रों ने सुझाव दिया है कि मैं इस पहल की एक रूपरेखा प्रस्तावित करूँ, जिस पर विचार-विमर्श के बाद एक न्यूनतम सहमति बने और काम शुरू हो।
तो, मित्रो, ऐसी कोई रूपरेखा प्रस्तुत करने के बजाय मैं उससे पहले की कुछ बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मैं कोई नया मंच या संगठन बनाने की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि इंटरनेट के रूप में जो एक बहुत बड़ा, व्यापक और प्रभावशाली मंच पहले से ही मौजूद है, उसी पर एक नयी पहल की जरूरत की बात कर रहा हूँ। हम लोग, जो इस मंच पर उपस्थित हैं, कुछ काम पहले से ही कर रहे हैं। मसलन, हम एक-दूसरे को अपनी तथा दूसरों की रचनाओं की जानकारी दे रहे हैं, अपनी तथा दूसरों की रचनाशीलता से संबंधित समस्याओं को सामने ला रहे हैं, अपने साहित्यिक अनुभवों और सामाजिक तथा सांस्कृतिक सरोकारों को साझा कर रहे हैं और इस प्रकार दूर-दूर बैठे होने पर भी एक-दूसरे के निकट आकर एक साहित्यिक वातावरण बना रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि इस माध्यम की अपार संभावनाओं के शतांश, बल्कि सहस्रांश का भी उपयोग अभी हम नहीं कर पा रहे हैं।
मैं केवल ब्लॉग और फेसबुक की बात नहीं, पूरे इंटरनेट की बात कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि यह हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए एक अत्यंत उपयोगी और प्रभावशाली माध्यम है, जो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक, स्थानीय और भूमंडलीय सभी स्तरों पर एक साथ सोचने और सक्रिय होने में समर्थ बना सकता है। लेकिन फिलहाल मैं इतने विस्तार में न जाकर केवल लेखकों से अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के माध्यम के रूप में इसके उपयोग की बात करना चाहता हूँ।
शायद आपको याद हो, मैंने 12 जुलाई, 2010 की अपनी पोस्ट में ‘सोशल नेटवर्किंग’ के बारे में लिखते हुए यह सवाल उठया था कि हम इंटरनेट की आभासी दुनिया का रिश्ता वास्तविक दुनिया से कैसे जोड़ें। मैंने लिखा था--‘‘क्या हम इस माध्यम का उपयोग वास्तविक दुनिया के उन जीते-जागते लोगों तक पहुँचने के लिए कर सकते हैं, जिनके पास जाकर हम उनसे हाथ मिला सकें, गले मिल सकें, आमने-सामने बैठकर चाय-कॉफी पीते हुए बात कर सकें, हँसी-मजाक और धौल-धप्पा कर सकें, लड़-झगड़ सकें और मिल-जुलकर कोई सार्थक काम करने की सोच सकें?’’
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं कहना चाहता हूँ: क्या हम लेखकों के रूप में अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने के लिए इस माध्यम का उपयोग कर सकते हैं? ‘दूसरों’ से मेरा अभिप्राय दूसरे लेखकों से नहीं, बल्कि पाठकों से है; क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि पाठक भी रचनाशील होते हैं और इस नाते वे लेखक के साथी-सहयोगी रचनाकार होते हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि पाठकों की रचनाशीलता को बचाये-बढ़ाये बिना हम अपनी रचनाशीलता को भी नहीं बचा-बढ़ा सकते। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है--और दुर्भाग्य का कारण भी--कि हम अपने पाठकों की परवाह नहीं करते। हम न तो उन्हें जानते हैं, न उनके लिए लिखते हैं। हम लिखते हैं संपादकों, प्रकाशकों, आलोचकों, पुरस्कारदाताओं या किसी अन्य प्रकार से बाजार में हमारी जगह बना सकने वालों के लिए; जबकि हमारी रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने वाले होते हैं हमारे पाठक। पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से पाठकों तक हमारी सीधी पहुँच नहीं होती, लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हम उन तक सीधे पहुँच सकते हैं।
कारण यह कि हमारे लिए इंटरनेट एक ऐसा मंच है, जो सार्वजनिक और सार्वदेशिक होते हुए भी हमें अपनी बात अपने ढंग से कहने की पूरी आज़ादी देता है। यहाँ हम किसी और संस्था या संगठन के सदस्य नहीं, बल्कि स्वयं ही एक संस्था या संगठन हैं। किसी और नेता के अनुयायी नहीं, स्वयं ही अपने नेता और मार्गदर्शक हैं। किसी और संपादक या प्रकाशक के मोहताज नहीं, स्वयं ही अपने संपादक और प्रकाशक हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उपयोग हम अपनी और अपने पाठकों की रचनाशीलता को बचाने-बढ़ाने के लिए बहुत ही कम कर पा रहे हैं।
मेरी मूल चिंता यह है कि यह काम कैसे किया जाये। मगर, मित्रो, मैं अकेला इस समस्या का समाधान खोज पाने में असमर्थ हूँ और मुझे लगता है कि यह काम हम सब रचनाकारों को मिल-जुलकर ही करना पड़ेगा। मगर कैसे? इस पर आप सोचें और मुझे बतायें। मिलकर न बताना चाहें, तो इंटरनेट के जरिये ही बतायें, पर बतायें जरूर; क्योंकि यह काम अत्यंत आवश्यक होने के साथ-साथ आपका भी उतना ही है, जितना कि मेरा।
--रमेश उपाध्याय
Sunday, August 22, 2010
यह केवल लेखिकाओं की लड़ाई नहीं है
कभी-कभी ‘बाँटो और राज करो’ के सिद्धांत पर चलने वाली व्यवस्था के विरुद्ध जनतांत्रिक शक्तियों को एकजुट होने के अवसर अनायास मिल जाते हैं। लेकिन अपने ही भीतर की नासमझी के चलते वे उन अवसरों को गँवा देती हैं। राय-कालिया प्रसंग में कुछ ऐसी ही दुर्घटना घटित होती दिखायी पड़ रही है।
‘नया ज्ञानोदय’ में छपे विभूति नारायण राय के साक्षात्कार में लेखिकाओं के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किये जाने से लेखिकाओं ने ही नहीं, बहुत-से लेखकों ने भी स्वयं को आहत-अपमानित अनुभव किया और राय के साथ-साथ संपादक रवींद्र कालिया के विरुद्ध भी आवाज उठायी। जबसे हिंदी में ‘स्त्री विमर्श’ चला है, कई लेखिकाएँ पुरुष मात्र को स्त्री-विरोधी या शत्रु मानने वाला स्त्रीवाद चलाती आ रही हैं, जिससे उन्हें साहित्य में एक पहचान मिली है, लेकिन स्त्रीवादी और आम जनवादी साहित्य कमजोर हुआ है। राय-कालिया प्रसंग में यह बात उभरकर सामने आयी कि पुरुष भी स्त्रीवादी हो सकते हैं और स्त्रियों के अपमान के विरोध में उनके साथ खड़े होकर न केवल स्त्री आंदोलन को, बल्कि जनवादी आंदोलन को भी मजबूत बनाने वाली एकजुटता कायम कर सकते हैं।
हम सभी को इस एकजुटता को बनाये रखने तथा बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ लेखिकाओं ने इस महत्त्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया है। ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने या तो इसका महत्त्व ही न समझा हो, या इससे अपने ‘स्त्री विमर्श’ और उसके कारण साहित्य में बनी अपनी विशिष्ट स्थिति को खतरे में पड़ते समझकर इसकी उपेक्षा करते हुए अपना पुरुष मात्र का विरोधी ‘‘एकला चलो रे’’ वाला राग अलापना शुरू कर दिया हो। 19 अगस्त के ‘दि हिंदू’ नामक अंग्रेजी दैनिक में मृणाल पांडे ने और 20 अगस्त के हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में अनामिका ने जो लिखा है, उससे ऐसा ही लगता है। दोनों के लेख पढ़कर लगता है कि जैसे उन्हें इस पूरे प्रकरण में पुरुष लेखकों की भूमिका का या तो पता ही नहीं है, या फिर वे उसे एकदम नगण्य और उपेक्षणीय मानकर चल रही हैं।
निंदनीय राय-कालिया प्रसंग में, मेरे विचार से, सबसे अच्छी बात यह हुई है कि लेखिकाओं के अपमान के विरुद्ध बहुत-से लेखकों ने भी आवाज उठायी। यह उस ‘स्त्री विमर्श’ से आगे की चीज है, जिसमें पुरुष मात्र को स्त्रियों का शत्रु माना जाता है। यह पितृसत्ता, राज्यसत्ता और पूंजी की सत्ता के विरुद्ध स्त्री-पुरुष एकजुटता की दिशा में उठा एक स्वागतयोग्य कदम है। अब हमारा प्रयास होना चाहिए कि यह एकजुटता बनी रहे और बढ़ती रहे।
--रमेश उपाध्याय
‘नया ज्ञानोदय’ में छपे विभूति नारायण राय के साक्षात्कार में लेखिकाओं के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किये जाने से लेखिकाओं ने ही नहीं, बहुत-से लेखकों ने भी स्वयं को आहत-अपमानित अनुभव किया और राय के साथ-साथ संपादक रवींद्र कालिया के विरुद्ध भी आवाज उठायी। जबसे हिंदी में ‘स्त्री विमर्श’ चला है, कई लेखिकाएँ पुरुष मात्र को स्त्री-विरोधी या शत्रु मानने वाला स्त्रीवाद चलाती आ रही हैं, जिससे उन्हें साहित्य में एक पहचान मिली है, लेकिन स्त्रीवादी और आम जनवादी साहित्य कमजोर हुआ है। राय-कालिया प्रसंग में यह बात उभरकर सामने आयी कि पुरुष भी स्त्रीवादी हो सकते हैं और स्त्रियों के अपमान के विरोध में उनके साथ खड़े होकर न केवल स्त्री आंदोलन को, बल्कि जनवादी आंदोलन को भी मजबूत बनाने वाली एकजुटता कायम कर सकते हैं।
हम सभी को इस एकजुटता को बनाये रखने तथा बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ लेखिकाओं ने इस महत्त्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया है। ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने या तो इसका महत्त्व ही न समझा हो, या इससे अपने ‘स्त्री विमर्श’ और उसके कारण साहित्य में बनी अपनी विशिष्ट स्थिति को खतरे में पड़ते समझकर इसकी उपेक्षा करते हुए अपना पुरुष मात्र का विरोधी ‘‘एकला चलो रे’’ वाला राग अलापना शुरू कर दिया हो। 19 अगस्त के ‘दि हिंदू’ नामक अंग्रेजी दैनिक में मृणाल पांडे ने और 20 अगस्त के हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में अनामिका ने जो लिखा है, उससे ऐसा ही लगता है। दोनों के लेख पढ़कर लगता है कि जैसे उन्हें इस पूरे प्रकरण में पुरुष लेखकों की भूमिका का या तो पता ही नहीं है, या फिर वे उसे एकदम नगण्य और उपेक्षणीय मानकर चल रही हैं।
निंदनीय राय-कालिया प्रसंग में, मेरे विचार से, सबसे अच्छी बात यह हुई है कि लेखिकाओं के अपमान के विरुद्ध बहुत-से लेखकों ने भी आवाज उठायी। यह उस ‘स्त्री विमर्श’ से आगे की चीज है, जिसमें पुरुष मात्र को स्त्रियों का शत्रु माना जाता है। यह पितृसत्ता, राज्यसत्ता और पूंजी की सत्ता के विरुद्ध स्त्री-पुरुष एकजुटता की दिशा में उठा एक स्वागतयोग्य कदम है। अब हमारा प्रयास होना चाहिए कि यह एकजुटता बनी रहे और बढ़ती रहे।
--रमेश उपाध्याय
Wednesday, August 4, 2010
एक कविता
इतिहास-बाहर
यह तब की बात है
जब समय बे-लाइसेंसी हथियार या जाली पासपोर्ट की तरह
गैर-कानूनी था और जिनके पास वह पाया जाता,
वे अपराधी माने जाते थे
सारी घड़ियाँ जब्त कर ली गयी थीं
कैलेंडर और तारीखों वाली डायरी रखने पर पाबंदी थी
पत्र-पत्रिकाओं पर दिन-तारीख छापना
दंडनीय अपराध घोषित किया जा चुका था
मोबाइलों और कंप्यूटरों में से समय बताने वाले
सारे प्रोग्राम निकाले जा चुके थे
दिन-तारीख और सन्-संवत् बोलना कानून का उल्लंघन करना था
आज, कल, परसों जैसे शब्दों को देशनिकाला दिया जा चुका था
जैसे मद्य-निषेध हो जाने पर नशे के आदी
विकल्प के रूप में भाँग वगैरह पीते हैं
समय के आदी कुछ लोग चोरी-छिपे
धूप-घड़ी, रेत-घड़ी आदि बनाया करते थे
लेकिन वे देर-सवेर पकड़े जाते थे और मार डाले जाते थे
दुनिया को एक अदृश्य मशीन चलाती थी
जिसे बार-बार बिगड़ जाने की आदत थी
फिर भी वह चलती रहती थी, कभी बंद नहीं होती थी और कहते हैं--
बिगड़ जाने पर वह खुद ही खुद को सुधार लेती थी
अतः दुनिया समय की पाबंदी होने के बावजूद चल रही थी
अलबत्ता यह कोई नहीं जानता था
कि वह जा कहाँ रही थी और कर क्या रही थी
अखिल भूमंडल को नियंत्रित करती
वह अदृश्य मशीन मनुष्यों को ऐसे चलाती थी
जैसे वे स्वचालित यंत्र नहीं, मनुष्य ही हों
स्वायत्त, स्वाधीन, स्वतंत्र
वे उस मशीन का ऐसे गुणगान करते
जैसे कभी किया जाता होगा ईश्वर का
कि वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है और निर्विकल्प
उसका कोई विकल्प न तो कभी था, न है, न होगा
यही था समय को गायब कर देने का मूलमंत्र
जिसे वह अदृश्य मशीन अहर्निश उच्चारती थी
यह बताने को कि लोग रहें निश्चिन्त
उनकी चिंता कर रही है वह अदृश्य मशीन!
--रमेश उपाध्याय
यह तब की बात है
जब समय बे-लाइसेंसी हथियार या जाली पासपोर्ट की तरह
गैर-कानूनी था और जिनके पास वह पाया जाता,
वे अपराधी माने जाते थे
सारी घड़ियाँ जब्त कर ली गयी थीं
कैलेंडर और तारीखों वाली डायरी रखने पर पाबंदी थी
पत्र-पत्रिकाओं पर दिन-तारीख छापना
दंडनीय अपराध घोषित किया जा चुका था
मोबाइलों और कंप्यूटरों में से समय बताने वाले
सारे प्रोग्राम निकाले जा चुके थे
दिन-तारीख और सन्-संवत् बोलना कानून का उल्लंघन करना था
आज, कल, परसों जैसे शब्दों को देशनिकाला दिया जा चुका था
जैसे मद्य-निषेध हो जाने पर नशे के आदी
विकल्प के रूप में भाँग वगैरह पीते हैं
समय के आदी कुछ लोग चोरी-छिपे
धूप-घड़ी, रेत-घड़ी आदि बनाया करते थे
लेकिन वे देर-सवेर पकड़े जाते थे और मार डाले जाते थे
दुनिया को एक अदृश्य मशीन चलाती थी
जिसे बार-बार बिगड़ जाने की आदत थी
फिर भी वह चलती रहती थी, कभी बंद नहीं होती थी और कहते हैं--
बिगड़ जाने पर वह खुद ही खुद को सुधार लेती थी
अतः दुनिया समय की पाबंदी होने के बावजूद चल रही थी
अलबत्ता यह कोई नहीं जानता था
कि वह जा कहाँ रही थी और कर क्या रही थी
अखिल भूमंडल को नियंत्रित करती
वह अदृश्य मशीन मनुष्यों को ऐसे चलाती थी
जैसे वे स्वचालित यंत्र नहीं, मनुष्य ही हों
स्वायत्त, स्वाधीन, स्वतंत्र
वे उस मशीन का ऐसे गुणगान करते
जैसे कभी किया जाता होगा ईश्वर का
कि वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है और निर्विकल्प
उसका कोई विकल्प न तो कभी था, न है, न होगा
यही था समय को गायब कर देने का मूलमंत्र
जिसे वह अदृश्य मशीन अहर्निश उच्चारती थी
यह बताने को कि लोग रहें निश्चिन्त
उनकी चिंता कर रही है वह अदृश्य मशीन!
--रमेश उपाध्याय
Friday, July 23, 2010
यथास्थितिवाद का आधार
सफल लोगों के लिए यथास्थिति ही ठीक है!
जब आसपास के ज़्यादातर लोग खुद को दुनिया के मुताबिक ढालने में लगे हों, तब आपका यह कहना कि इस दुनिया को बदलकर बेहतर बनाना चाहिए, किसे और क्यों अच्छा लगेगा? ऐसा कहकर आप उनको कटघरे में खड़ा कर रहे होते हैं। और यह कोई पसंद नहीं करता।
आज के समय में किसी से यह कहना कि दुनिया बद से बदतर होती जा रही है, आइए, इसे बेहतर बनायें, उसे नाराज़ कर देने के लिए काफी है। वह ‘गरीब’ कितनी मुश्किल से इस मुकाम पर पहुँचा है कि उसे दुनिया को बेहतर बनाने के काबिल समझा जाये! यहाँ तक पहुँचने के लिए उसने कितनी जद्दोजहद की है! दुनिया में अपनी एक जगह बनायी है! यहाँ तक पहुँचने पर स्वभावतः उसे गर्व है। आखिर वह लाखों लोगों को पीछे छोड़कर इस मुकाम तक पहुँचा है। उसके हिसाब से तो यह दुनिया बहुत अच्छी है कि वह इसमें सफल हो सका! वह क्यों चाहेगा कि यह दुनिया बदले? वह तो यही चाहेगा कि दुनिया ऐसी ही बनी रहे और उसे दूसरों से आगे निकलने, सफल होने और स्वयं से संतुष्ट रहने के अवसर देती रहे!
लेकिन आप उससे कहते हैं कि यह दुनिया बुरी है, इसे बदलना चाहिए। सोचिए, उसे यह सुनकर कैसा लगता होगा! उसे लगता होगा कि आप उसके दुश्मन हैं। उसकी सफलता से जलते हैं, क्योंकि आप उसकी तरह सफल नहीं हो सके। अन्यथा दुनिया को क्या हुआ है? अच्छी-भली तो चल रही है!
इस तरह वह ‘गरीब’ फनफनाकर आपके विरुद्ध और दुनिया की यथास्थिति के पक्ष में खड़ा हो जाता है। कहने लगता है कि आप दुनिया को बदलने की बात कहकर राजनीति कर रहे हैं। इसमें आपका कोई निजी स्वार्थ है। दरअसल दुनिया बुरी नहीं है, उसे देखने की आपकी दृष्टि ही गलत है। इसलिए दुनिया को बदलने की बात करना छोड़ आप अपने-आप को बदलिए। अपने-आप को बेहतर बनाइए।...नहीं तो जहन्नुम में जाइए। जाइए, हमें आपकी कोई बात नहीं सुननी!
--रमेश उपाध्याय
जब आसपास के ज़्यादातर लोग खुद को दुनिया के मुताबिक ढालने में लगे हों, तब आपका यह कहना कि इस दुनिया को बदलकर बेहतर बनाना चाहिए, किसे और क्यों अच्छा लगेगा? ऐसा कहकर आप उनको कटघरे में खड़ा कर रहे होते हैं। और यह कोई पसंद नहीं करता।
आज के समय में किसी से यह कहना कि दुनिया बद से बदतर होती जा रही है, आइए, इसे बेहतर बनायें, उसे नाराज़ कर देने के लिए काफी है। वह ‘गरीब’ कितनी मुश्किल से इस मुकाम पर पहुँचा है कि उसे दुनिया को बेहतर बनाने के काबिल समझा जाये! यहाँ तक पहुँचने के लिए उसने कितनी जद्दोजहद की है! दुनिया में अपनी एक जगह बनायी है! यहाँ तक पहुँचने पर स्वभावतः उसे गर्व है। आखिर वह लाखों लोगों को पीछे छोड़कर इस मुकाम तक पहुँचा है। उसके हिसाब से तो यह दुनिया बहुत अच्छी है कि वह इसमें सफल हो सका! वह क्यों चाहेगा कि यह दुनिया बदले? वह तो यही चाहेगा कि दुनिया ऐसी ही बनी रहे और उसे दूसरों से आगे निकलने, सफल होने और स्वयं से संतुष्ट रहने के अवसर देती रहे!
लेकिन आप उससे कहते हैं कि यह दुनिया बुरी है, इसे बदलना चाहिए। सोचिए, उसे यह सुनकर कैसा लगता होगा! उसे लगता होगा कि आप उसके दुश्मन हैं। उसकी सफलता से जलते हैं, क्योंकि आप उसकी तरह सफल नहीं हो सके। अन्यथा दुनिया को क्या हुआ है? अच्छी-भली तो चल रही है!
इस तरह वह ‘गरीब’ फनफनाकर आपके विरुद्ध और दुनिया की यथास्थिति के पक्ष में खड़ा हो जाता है। कहने लगता है कि आप दुनिया को बदलने की बात कहकर राजनीति कर रहे हैं। इसमें आपका कोई निजी स्वार्थ है। दरअसल दुनिया बुरी नहीं है, उसे देखने की आपकी दृष्टि ही गलत है। इसलिए दुनिया को बदलने की बात करना छोड़ आप अपने-आप को बदलिए। अपने-आप को बेहतर बनाइए।...नहीं तो जहन्नुम में जाइए। जाइए, हमें आपकी कोई बात नहीं सुननी!
--रमेश उपाध्याय
Monday, July 12, 2010
सोशल नेटवर्किंग
आभासी दुनिया का रिश्ता वास्तविक दुनिया से कैसे जोड़ें?
चंद रोज़ ही हुए हैं मुझे फेसबुक पर आये हुए, मगर लगता है कि हम जो यह सोशल नेटवर्किंग कर रहे हैं, शायद इस मुगालते में कर रहे हैं कि इससे हमारी दुनिया बड़ी हो रही है; जबकि वास्तव में वह सिकुड़ रही है या सिकुड़ चुकी है। हम वास्तविक दुनिया से, जीते-जागते लोगों से और प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त जीवन की धड़कनों से दूर एक आभासी दुनिया में कैद हो गये हैं। और हम कर क्या रहे हैं? अभी हाल ही में मैंने कहीं पढ़ा कि social networking is "the intersection of narcissism, attention deficit disorder and stalking"
क्या हम इस माध्यम का उपयोग वास्तविक दुनिया के उन जीते-जागते लोगों तक पहुँचने के लिए कर सकते हैं, जिनके पास जाकर हम उनसे हाथ मिला सकें, गले मिल सकें, आमने-सामने बैठकर चाय-कॉफी पीते हुए बातचीत कर सकें, हँसी-मज़ाक और धौल-धप्पा कर सकें, लड़-झगड़ सकें और मिल-जुलकर कोई सार्थक काम करने की सोच सकें?
--रमेश उपाध्याय
चंद रोज़ ही हुए हैं मुझे फेसबुक पर आये हुए, मगर लगता है कि हम जो यह सोशल नेटवर्किंग कर रहे हैं, शायद इस मुगालते में कर रहे हैं कि इससे हमारी दुनिया बड़ी हो रही है; जबकि वास्तव में वह सिकुड़ रही है या सिकुड़ चुकी है। हम वास्तविक दुनिया से, जीते-जागते लोगों से और प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त जीवन की धड़कनों से दूर एक आभासी दुनिया में कैद हो गये हैं। और हम कर क्या रहे हैं? अभी हाल ही में मैंने कहीं पढ़ा कि social networking is "the intersection of narcissism, attention deficit disorder and stalking"
क्या हम इस माध्यम का उपयोग वास्तविक दुनिया के उन जीते-जागते लोगों तक पहुँचने के लिए कर सकते हैं, जिनके पास जाकर हम उनसे हाथ मिला सकें, गले मिल सकें, आमने-सामने बैठकर चाय-कॉफी पीते हुए बातचीत कर सकें, हँसी-मज़ाक और धौल-धप्पा कर सकें, लड़-झगड़ सकें और मिल-जुलकर कोई सार्थक काम करने की सोच सकें?
--रमेश उपाध्याय
Wednesday, July 7, 2010
पीढ़ी-विवाद पर
‘युवा पीढ़ी’ के लेखकों से
वर्षों पहले, जब मेरी गिनती नयी पीढ़ी के लेखकों में होती थी, मैंने ‘पहल’ में एक लेख लिखा था ‘हिंदी की कहानी समीक्षा: घपलों का इतिहास’। उसमें मैंने हिंदी कहानी को नयी, पुरानी, युवा आदि विशेषणों वाली पीढ़ियों में बाँटकर देखने की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया था। इस प्रवृत्ति से दो भ्रांत धारणाएँ पैदा हुईं, जो कमोबेश आज तक भी चली आ रही हैं।
एक: हिंदी कहानी बीसवीं सदी के प्रत्येक दशक में उत्तरोत्तर अपना विकास करती गयी है, अतः उसके विकास-क्रम को दशकों में देखा जाना चाहिए।
दो: कहानीकारों की प्रत्येक नयी पीढ़ी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से बेहतर कहानी लिखती है, अतः नयी पीढ़ी की कहानी को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए।
आज वही पीढ़ीवादी प्रवृत्ति पुनः प्रबल होती दिखायी पड़ रही है, इसलिए मुझे अपने उस लेख की कुछ बातें आज की नयी पीढ़ी के लेखकों के विचारार्थ प्रस्तुत करना प्रासंगिक लग रहा है। मैंने लिखा था:
‘‘नयी पीढ़ी के नाम पर किये गये घपले में निहित आत्मप्रचारात्मक व्यावसायिकता की गंध आगे आने वाले लेखकों को भी मिल गयी। उनमें से भी कुछ लोगों ने खुद को जमाने के लिए अपने से पहले वालों को उखाड़ने का वही तरीका अपनाया, जिसे ‘नयी कहानी’ वाले कुछ लोग आजमा चुके थे। पीढ़ीवाद का यह घटिया खेल आज भी जारी है और इसे कुछ नयी उम्र के लोग ही नहीं, बल्कि कुछ साठे-पाठे भी खेलते दिखायी दे सकते हैं। बदनाम भी होंगे, तो क्या नाम न होगा!
‘‘लेकिन यह खेल कितना वाहियात और मूर्खतापूर्ण है, इसका अंदाजा आपको ‘युवा पीढ़ी’ पद से लग सकता है। इसे ‘नयी पीढ़ी’ की तर्ज पर चलाया गया और इसकी कहानी को ‘नयी कहानी’ की तर्ज पर ‘युवा कहानी’ कहा गया। कई पत्रिकाओं के ‘युवा कहानी विशेषांक’ निकले। ‘युवा कहानी’ (नरेंद्र मोहन) जैसे लेख लिखे गये। ‘युवा कथाकार’ (सं। कुलदीप बग्गा और तारकेश्वरनाथ) जैसे कहानी संकलन निकाले गये। मेरी आदत है कि पत्रिका या संकलन के लिए कोई मेरी कहानी माँगता है, तो मैं आम तौर पर मना नहीं करता। इसलिए आप देखेंगे कि मेरी कहानियाँ साठोत्तरी कहानी, पैंसठोत्तरी कहानी, सातवें दशक की कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी, समांतर कहानी, स्वातंत्र्योत्तर कहानी, अमुक-तमुक वर्ष की श्रेष्ठ कहानी, प्रगतिशील कहानी, जनवादी कहानी आदि से संबंधित पत्रिकाओं और संकलनों में छपी हुई हैं। ‘युवा कथाकार’ नामक संकलन में भी मेरी कहानी छपी है। लेकिन मैं कभी नहीं समझ पाया कि ‘युवा कहानी’ क्या होती है। किसी को युवा कहने से उसकी उम्र के अलावा क्या पता चलता है? ‘युवा वर्ग’ कहने से किस वर्ग का बोध होता है? युवक तो शोषक और शोषित दोनों वर्गों में होते हैं। इसी तरह युवकों में सच्चे और झूठे, शरीफ और बदमाश, बुद्धिमान और मूर्ख, शक्तिशाली और दुर्बल, प्रगतिशील और दकियानूस--सभी तरह के लोग हो सकते हैं। तब ‘युवा कहानी’ का क्या मतलब? यह किस काल से किस काल तक की कहानी है? यह किस उम्र से किस उम्र तक के लेखकों की कहानी है?
‘‘मुझे ऐसा लगता है कि आंदोलनधर्मी लोग अपने-आप को आगे बढ़ाने के लिए कुछ लोगों की भीड़ जुटाने भर के लिए नये लेखकों को पकड़ते हैं। इन नये लेखकों की कहानियों की प्रकृति क्या है, गुणवत्ता और मूल्यवत्ता क्या है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। उन्हें मतलब है लेखक की उम्र से। तुम आजादी के बाद पैदा हुए? आओ, स्वातंत्र्योत्तर कहानी की छतरी के नीचे आ जाओ। तुम साठ के बाद पैदा हुए? आओ, साठोत्तरी कहानी की छतरी के नीचे आओ। तुम सत्तर के बाद? चलो, आठवें दशक की कहानी की छतरी के नीचे। तुम उम्र नहीं बताना चाहते? कोई बात नहीं, तुम युवा हो, क्योंकि हिंदुस्तान में तो साठा भी पाठा होता है!
‘‘इस तरह कुछ लोगों को जुटाकर अपनी छतरी को कोई ऐसा नाम दे दिया जाता है, जिसके नीचे विभिन्न प्रकार की और परस्पर-विरोधी प्रवृत्तियों को भी खड़ा किया जा सके। नयी, पुरानी, अगली, पिछली, युवा, युवतर, वयस्क, अग्रज, सशक्त, जीवंत, थकी हुई, चुकी हुई आदि-आदि न जाने कितने विशेषण कहानीकारों की पीढ़ियों के साथ जोड़े जा चुके हैं। और हमारी कहानी-समीक्षा है कि इन विशेषणों की निरर्थकता को समझने के बजाय धड़ल्ले से इनका प्रयोग करती है।
‘‘कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और कालक्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में यह अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं।’’
मुझे आशा है, आज की ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकार वर्षों पहले लिखी गयी मेरी इन पंक्तियों को प्रासंगिक पायेंगे और पीढ़ीवाद की निरर्थकता से बचकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों तथा रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों पर सार्थक बहस चलायेंगे।
--रमेश उपाध्याय
वर्षों पहले, जब मेरी गिनती नयी पीढ़ी के लेखकों में होती थी, मैंने ‘पहल’ में एक लेख लिखा था ‘हिंदी की कहानी समीक्षा: घपलों का इतिहास’। उसमें मैंने हिंदी कहानी को नयी, पुरानी, युवा आदि विशेषणों वाली पीढ़ियों में बाँटकर देखने की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया था। इस प्रवृत्ति से दो भ्रांत धारणाएँ पैदा हुईं, जो कमोबेश आज तक भी चली आ रही हैं।
एक: हिंदी कहानी बीसवीं सदी के प्रत्येक दशक में उत्तरोत्तर अपना विकास करती गयी है, अतः उसके विकास-क्रम को दशकों में देखा जाना चाहिए।
दो: कहानीकारों की प्रत्येक नयी पीढ़ी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से बेहतर कहानी लिखती है, अतः नयी पीढ़ी की कहानी को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए।
आज वही पीढ़ीवादी प्रवृत्ति पुनः प्रबल होती दिखायी पड़ रही है, इसलिए मुझे अपने उस लेख की कुछ बातें आज की नयी पीढ़ी के लेखकों के विचारार्थ प्रस्तुत करना प्रासंगिक लग रहा है। मैंने लिखा था:
‘‘नयी पीढ़ी के नाम पर किये गये घपले में निहित आत्मप्रचारात्मक व्यावसायिकता की गंध आगे आने वाले लेखकों को भी मिल गयी। उनमें से भी कुछ लोगों ने खुद को जमाने के लिए अपने से पहले वालों को उखाड़ने का वही तरीका अपनाया, जिसे ‘नयी कहानी’ वाले कुछ लोग आजमा चुके थे। पीढ़ीवाद का यह घटिया खेल आज भी जारी है और इसे कुछ नयी उम्र के लोग ही नहीं, बल्कि कुछ साठे-पाठे भी खेलते दिखायी दे सकते हैं। बदनाम भी होंगे, तो क्या नाम न होगा!
‘‘लेकिन यह खेल कितना वाहियात और मूर्खतापूर्ण है, इसका अंदाजा आपको ‘युवा पीढ़ी’ पद से लग सकता है। इसे ‘नयी पीढ़ी’ की तर्ज पर चलाया गया और इसकी कहानी को ‘नयी कहानी’ की तर्ज पर ‘युवा कहानी’ कहा गया। कई पत्रिकाओं के ‘युवा कहानी विशेषांक’ निकले। ‘युवा कहानी’ (नरेंद्र मोहन) जैसे लेख लिखे गये। ‘युवा कथाकार’ (सं। कुलदीप बग्गा और तारकेश्वरनाथ) जैसे कहानी संकलन निकाले गये। मेरी आदत है कि पत्रिका या संकलन के लिए कोई मेरी कहानी माँगता है, तो मैं आम तौर पर मना नहीं करता। इसलिए आप देखेंगे कि मेरी कहानियाँ साठोत्तरी कहानी, पैंसठोत्तरी कहानी, सातवें दशक की कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी, समांतर कहानी, स्वातंत्र्योत्तर कहानी, अमुक-तमुक वर्ष की श्रेष्ठ कहानी, प्रगतिशील कहानी, जनवादी कहानी आदि से संबंधित पत्रिकाओं और संकलनों में छपी हुई हैं। ‘युवा कथाकार’ नामक संकलन में भी मेरी कहानी छपी है। लेकिन मैं कभी नहीं समझ पाया कि ‘युवा कहानी’ क्या होती है। किसी को युवा कहने से उसकी उम्र के अलावा क्या पता चलता है? ‘युवा वर्ग’ कहने से किस वर्ग का बोध होता है? युवक तो शोषक और शोषित दोनों वर्गों में होते हैं। इसी तरह युवकों में सच्चे और झूठे, शरीफ और बदमाश, बुद्धिमान और मूर्ख, शक्तिशाली और दुर्बल, प्रगतिशील और दकियानूस--सभी तरह के लोग हो सकते हैं। तब ‘युवा कहानी’ का क्या मतलब? यह किस काल से किस काल तक की कहानी है? यह किस उम्र से किस उम्र तक के लेखकों की कहानी है?
‘‘मुझे ऐसा लगता है कि आंदोलनधर्मी लोग अपने-आप को आगे बढ़ाने के लिए कुछ लोगों की भीड़ जुटाने भर के लिए नये लेखकों को पकड़ते हैं। इन नये लेखकों की कहानियों की प्रकृति क्या है, गुणवत्ता और मूल्यवत्ता क्या है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। उन्हें मतलब है लेखक की उम्र से। तुम आजादी के बाद पैदा हुए? आओ, स्वातंत्र्योत्तर कहानी की छतरी के नीचे आ जाओ। तुम साठ के बाद पैदा हुए? आओ, साठोत्तरी कहानी की छतरी के नीचे आओ। तुम सत्तर के बाद? चलो, आठवें दशक की कहानी की छतरी के नीचे। तुम उम्र नहीं बताना चाहते? कोई बात नहीं, तुम युवा हो, क्योंकि हिंदुस्तान में तो साठा भी पाठा होता है!
‘‘इस तरह कुछ लोगों को जुटाकर अपनी छतरी को कोई ऐसा नाम दे दिया जाता है, जिसके नीचे विभिन्न प्रकार की और परस्पर-विरोधी प्रवृत्तियों को भी खड़ा किया जा सके। नयी, पुरानी, अगली, पिछली, युवा, युवतर, वयस्क, अग्रज, सशक्त, जीवंत, थकी हुई, चुकी हुई आदि-आदि न जाने कितने विशेषण कहानीकारों की पीढ़ियों के साथ जोड़े जा चुके हैं। और हमारी कहानी-समीक्षा है कि इन विशेषणों की निरर्थकता को समझने के बजाय धड़ल्ले से इनका प्रयोग करती है।
‘‘कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और कालक्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में यह अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं।’’
मुझे आशा है, आज की ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकार वर्षों पहले लिखी गयी मेरी इन पंक्तियों को प्रासंगिक पायेंगे और पीढ़ीवाद की निरर्थकता से बचकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों तथा रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों पर सार्थक बहस चलायेंगे।
--रमेश उपाध्याय
Tuesday, July 6, 2010
नए-पुराने की निरर्थक बहस पर
लेखकों के मुंह में चांदी की चम्मच!?
हिंदी साहित्य में एक नयी पीढ़ी को ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर श्री रवींद्र कालिया ने ‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2010 के संपादकीय में लिखा है कि ‘‘आज की युवा पीढ़ी उन खुशकिस्मत पीढ़ियों में है, जिन्हें मुँह में चाँदी का चम्मच थामे पैदा होने का अवसर मिलता है।’’
यह वाक्य एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी अनुवाद करके बनाया गया है--‘‘born with a silver spoon in one's mouth", जिसका अर्थ होता है "born to affluence", यानी वह, जो किसी धनाढ्य के यहाँ पैदा हुआ हो।
इस पर अंग्रेजी के ही एक और मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि कालिया जी के इन शब्दों से ‘‘बिल्ली बस्ते से बाहर आ गयी है’’! भावार्थ यह कि कालिया जी ने अपने द्वारा हिंदी साहित्य में लायी गयी नयी पीढ़ी का वर्ग-चरित्र स्वयं ही बता दिया है!
वैसे यह कोई रहस्य नहीं था कि सेठों के संस्थानों से निकलने वाली पत्रिकाओं से (पहले भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका ‘वागर्थ’ से और फिर भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ से) पैदा हुई नयी पीढ़ी ही नयी पीढ़ी के रूप में क्यों और कैसे प्रतिष्ठित हुई! अन्यथा उसी समय में ‘परिकथा’ जैसी कई और पत्रिकाएँ ‘नवलेखन’ पर अंक निकालकर जिस नयी पीढ़ी को सामने लायीं, उसके लेखक इतने खुशकिस्मत क्यों न निकले? जाहिर है, वे ‘लघु’ पत्रिकाएँ थीं और ‘वागर्थ’ तथा ‘नया ज्ञानोदय’ तथाकथित ‘बड़ी’ पत्रिकाएँ! और ‘नया ज्ञानोदय’ तो भारतीय ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान की ही पत्रिका थी, जिसका संपादक उस प्रकाशन संस्थान का निदेशक होने के नाते अपने द्वारा सामने लायी गयी पीढ़ी के मुँह में चाँदी का चम्मच दे सकता था!
अतः बहस नयी-पुरानी पीढ़ी के बजाय लेखकों और संपादकों के वर्ग-चरित्र पर होनी चाहिए।
--रमेश उपाध्याय
हिंदी साहित्य में एक नयी पीढ़ी को ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर श्री रवींद्र कालिया ने ‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2010 के संपादकीय में लिखा है कि ‘‘आज की युवा पीढ़ी उन खुशकिस्मत पीढ़ियों में है, जिन्हें मुँह में चाँदी का चम्मच थामे पैदा होने का अवसर मिलता है।’’
यह वाक्य एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी अनुवाद करके बनाया गया है--‘‘born with a silver spoon in one's mouth", जिसका अर्थ होता है "born to affluence", यानी वह, जो किसी धनाढ्य के यहाँ पैदा हुआ हो।
इस पर अंग्रेजी के ही एक और मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि कालिया जी के इन शब्दों से ‘‘बिल्ली बस्ते से बाहर आ गयी है’’! भावार्थ यह कि कालिया जी ने अपने द्वारा हिंदी साहित्य में लायी गयी नयी पीढ़ी का वर्ग-चरित्र स्वयं ही बता दिया है!
वैसे यह कोई रहस्य नहीं था कि सेठों के संस्थानों से निकलने वाली पत्रिकाओं से (पहले भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका ‘वागर्थ’ से और फिर भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ से) पैदा हुई नयी पीढ़ी ही नयी पीढ़ी के रूप में क्यों और कैसे प्रतिष्ठित हुई! अन्यथा उसी समय में ‘परिकथा’ जैसी कई और पत्रिकाएँ ‘नवलेखन’ पर अंक निकालकर जिस नयी पीढ़ी को सामने लायीं, उसके लेखक इतने खुशकिस्मत क्यों न निकले? जाहिर है, वे ‘लघु’ पत्रिकाएँ थीं और ‘वागर्थ’ तथा ‘नया ज्ञानोदय’ तथाकथित ‘बड़ी’ पत्रिकाएँ! और ‘नया ज्ञानोदय’ तो भारतीय ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान की ही पत्रिका थी, जिसका संपादक उस प्रकाशन संस्थान का निदेशक होने के नाते अपने द्वारा सामने लायी गयी पीढ़ी के मुँह में चाँदी का चम्मच दे सकता था!
अतः बहस नयी-पुरानी पीढ़ी के बजाय लेखकों और संपादकों के वर्ग-चरित्र पर होनी चाहिए।
--रमेश उपाध्याय
Tuesday, June 1, 2010
डायरी का एक पन्ना (24 मई, 2010)
‘आलोचना’ में अरुण कमल का संपादकीय
सब कुछ न तो पूरी तरह नष्ट होता है, न पूरी तरह बदलता है। बहुत-सी अच्छी चीजें नष्ट या विकृत हो रही हैं, फिर भी उनमें से कुछ बच रही हैं और पहले से बेहतर नयी चीजों को जन्म दे रही हैं। उन्हीं में जीवन है, उन्हीं में आशा।
आज 'आलोचना' का अप्रैल-जून, 2010 का अंक मिला। इस अंक का संपादकीय बहुत ही अच्छा लगा। अरुण कमल ने अपने संपादकीय में लिखा है:
‘‘प्रचलित पत्र-पत्रिकाओं को देखने से लगता है कि हिंदी का साहित्यकार केवल पुरस्कारों-सम्मानों को लेकर चिंतित है। ...भंगुर प्रसिद्धि या पद या पैसा किसी भी साहित्य या साहित्यकार का इष्ट नहीं होता। फिर भी इसी को लेकर उद्वेग दिखलाता है कि हमारी आलोचना अपना काम ठीक से नहीं कर रही है। यह भी कि बतौर लेखक शायद हमारी चिंताएँ कुछ बदल गयी हैं। दिलचस्प यह है कि सत्ता से सारे लाभ प्राप्त करने वाले, स्वयं सत्ता केंद्रों पर काबिज लोग और साहित्य को दुहकर अपनी बाल्टी भरने वाले सबसे ज्यादा उद्विग्न दिखते हैं। क्या हम सत्ता-विमुख, सत्ता-निरपेक्ष नहीं रह सकते, यदि सत्ता-विरोधी न हो सकें तो? यहाँ सत्ता का अर्थ केवल सरकार नहीं, बल्कि धन या बाजार भी है। ऐसे समय में जब देश की आधी आबादी भूखे सोती हो, जहाँ लगातार बढ़ती छँटनी और बेरोजगारी हो, सत्ता-पोषित-संचालित बेदखली हो और हर तरह के लोकतांत्रिक प्रतिरोध का हिंस्र दमन हो--उस समय बतौर लेखक हमारी मुख्य चिंता क्या हो? हाल के दिनों में मेरे जानते इन मुद्दों पर न तो लेखकों ने कोई सामूहिक विचार-विमर्श किया, न प्रदर्शन, न विरोध। वामपंथी लेखक संगठनों ने भी कोई तत्परता न दिखायी।...हमारा औसत हिंदी लेखक आज पहले से कहीं ज्यादा सुखी-संपन्न है। लेकिन उसकी आत्मा में घुन लग गया है। कभी-कभी तो इच्छा होती है, पूछा जाये, पार्टनर तुम्हारी संपत्ति कितनी है, तुम भी घोषणा करो। यह ठीक है कि इसके आधार पर मूल्य-निर्णय न हुए हैं न होंगे न होने चाहिए, लेकिन इससे पाखंड और फरेब का तो पता चलेगा। जो साहित्य को भी जन और जीवन के पक्ष में मोड़ना चाहते हैं, उनका पक्ष तो मजबूत होगा। और इस तरह हम वापिस साहित्य के वास्तविक प्रश्नों की ओर लौट सकेंगे।’’
इस संपादकीय में लेखकों के मूल्यांकन के बारे में भी बहुत अच्छी बात कही गयी है:
‘‘कोई लेखक अच्छा है या बुरा, महत्त्वपूर्ण है या महत्त्वहीन, इसका निर्णय न तो हाथ उठाकर होगा न प्रस्ताव पारित करके। इसका निर्णय कभी अंतिम भी नहीं होगा। यह हमेशा एक तदर्थ, औपबंधिक निर्णय होगा। लगातार पिटते, मार खाते, बहिष्कृत होते और लहूलुहान होकर ही कोई यहाँ टिकता है। वे सारी लड़ाइयाँ, जो जीवन और समाज में लड़ी जाती हैं, वे एक बार फिर हर श्रेष्ठ रचना में और हर श्रेष्ठ आलोचना में भी लड़ी जाती हैं। और यह लड़ाई हजारों साल तक चलती रहती है। ऐसी स्थिति में सार्वजनिक प्रतिष्ठा यानी पुरस्कार या सम्मान संध्या के युद्ध-विराम से अधिक नहीं। बेहतर हो कि हम ‘हिंस्र पशुओं भरी’ शर्वरी से जूझें और कल के संग्राम की रणनीति तय करें। साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध यह संग्राम हमारी महान साहित्य-परंपरा का ही प्रसाद है। हम शहीद हों तो इसी मोर्चे पर।’’
साधुवाद, भाई अरुण कमल, इतने अच्छे संपादकीय के लिए!
--रमेश उपाध्याय
Saturday, May 1, 2010
पढ़ना-लिखना
बहुत शोर सुनते थे...
मैंने जे डी सेलिंगर को पहले कभी नहीं पढ़ा था, लेकिन उनके उपन्यास 'The Catcher in the Rye' का नाम सुना था। जब मैंने लिखना शुरू किया था, 1960 के दशक में, तब इसकी काफी चर्चा थी। पिछले दिनों सेलिंगर की मृत्यु के समय उनके बारे में लिखे गये लेखों में पुनः इस उपन्यास के बारे में पढ़ा, तो इच्छा हुई कि इसे पढ़ा जाये। खोजकर पढ़ा। यह ज्यादा बड़ा नहीं, केवल 218 पृष्ठों का उपन्यास है और बोलचाल वाली अंग्रेजी में रोचक ढंग से लिखा गया है, इसलिए पढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा। इसमें होल्डेन कॉलफील्ड नामक एक अमरीकी किशोर की कहानी है, जिसे फेल हो जाने पर स्कूल से निकाल दिया जाता है। स्कूल से अपने घर पहुँचने के बीच के तीन दिनों में वह क्या-क्या करता है और उसके साथ क्या-क्या होता है, इसका बयान वह स्वयं करता है। इस क्षीण-से कथा-सूत्र पर टँगी छोटी-छोटी असंबद्ध-सी घटनाओं के वर्णन के ज़रिये लेखक ने अमरीकी जीवन का एक चित्र प्रस्तुत किया है।
यह उपन्यास पहली बार 1951 में हैमिश हैमिल्टन से ग्रेट ब्रिटेन में प्रकाशित हुआ था। पेंगुइन बुक्स में यह पहली बार 1958 में आया और तब से यह लगातार पुनर्मुद्रित होता रहा है। कई बार तो एक वर्ष में दो-दो बार भी। लेकिन इस अतिप्रसिद्ध उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे ऐसा क्यों लगा कि यह एक साधारण-सा उपन्यास है, जिसे विश्व की महान कृतियों के समकक्ष तो क्या, उनके पासंग में भी नहीं रखा जा सकता? आखिर इसमें ऐसी क्या बात थी कि यह इतना चर्चित और प्रसिद्ध हुआ?
मन में उठे इन सवालों के जवाब पाने के लिए मैंने इस उपन्यास के बारे में आलोचकों के विचार पढ़े, तो पता चला कि यह उपन्यास अपने कथ्य के कारण उतना नहीं, जितना अपने शिल्प के नयेपन के कारण सराहा गया था। लेकिन कोई साहित्यिक रचना केवल शिल्प के बल पर इतनी चर्चित और प्रसिद्ध नहीं हो सकती। इसमें कथ्य का भी कुछ नयापन था।
उस समय पश्चिमी देशों के साहित्य में, शीतयुद्ध के संदर्भ में, यथार्थवाद के विरुद्ध एक अभियान-सा चलाया जा रहा था, जो आधुनिकतावाद, अस्तित्ववाद और नकारवाद की विचारधाराओं के साथ किये जाने वाले ‘नवलेखन’ (नयी कविता, नयी कहानी, नयी आलोचना) के रूप में तथा ‘एंटी’ और ‘एब्सर्ड’ जैसे उपसर्गों वाली विधाओं (एंटी-स्टोरी, एंटी-नॉवेल, एब्सर्ड ड्रामा आदि) के रूप में सामने आ रहा था। हिंदी साहित्य में यह ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ का और कुछ आगे चलकर ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ का समय था। निस्संदेह इस ‘नवलेखन’ में शिल्प के स्तर पर ही नहीं, कथ्य के स्तर पर भी कुछ नया था। इसमें पुरानी आदर्शवादी भावुकता और परंपरागत नैतिकता का निषेध था, लेकिन साथ-साथ उस यथार्थवाद का भी निषेध था, जो आधुनिक साहित्य की एक मुख्य विशेषता बनकर विश्व साहित्य में अपनी एक प्रभुत्वशाली जगह बना चुका था।
यथार्थवाद किसी कला-रूप, कला-सिद्धांत या रचना-पद्धति के रूप में नहीं, बल्कि पूँजीवाद के उदय के साथ उसकी विश्वदृष्टि के रूप में सामने आया था। साहित्य और कलाओं में वह यथार्थ को सार्थक और सोद्देश्य रूप में चित्रित करने की कला के रूप में विकसित हुआ था। शुरू से ही उसकी विशेषता यह रही है कि यथार्थ के बदलने के साथ वह स्वयं को भी बदलता है। उसके इस प्रकार बदलते रहने के कारण ही उसके विकासमान स्वरूप का संकेत करने वाले उसके विभिन्न नामकरण होते रहते हैं, जैसे--प्रकृतवाद, आलोचनात्मक यथार्थवाद, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, समाजवादी यथार्थवाद और अब भूमंडलीय यथार्थवाद। उन्नीसवीं शताब्दी तक यथार्थवाद काफी प्रौढ़ और परिपक्व हो चुका था, जिसे हम मुख्यतः फ्रांस, रूस और इंग्लैंड के तत्कालीन कथासाहित्य में देख सकते हैं।
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में उपनिवेशवाद-विरोधी स्वाधीनता आंदोलनों तथा समाजवादी क्रांतियों के साथ-साथ एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका के विभिन्न देशों के साहित्य में यथार्थवाद का विकास अपने-अपने ढंग से हुआ। लेकिन इस नयी परिस्थिति में पूँजीवाद को यथार्थवाद खटकने लगा था, क्योंकि वह साहित्य और कलाओं में उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों तथा समाजवादी क्रांतियों के पक्ष से पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की आलोचना का औजार बन गया था। इसी कारण उसका नामकरण हुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद। उसके बाद जब से समाजवादी देशों में उसके नये रूप समाजवादी यथार्थवाद की चर्चा होने लगी, तब से तो पूँजीवादी देशों में यथार्थवाद को शत्रुवत ही माना जाने लगा। शीतयुद्ध के दौरान साहित्य और कलाओं में यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्तियों को खूब उभारा गया तथा व्यापक प्रचार के बल पर उन्हें एक तरफ ‘लोकप्रिय’ बनाया गया, तो दूसरी तरफ प्रतिष्ठित और पुरस्कृत भी किया गया।
'The Catcher in the Rye' उसी दौर की रचना है और इसके वास्तविक मूल्य और महत्त्व को यथार्थवाद-विरोधी अभियान के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। लेकिन यह काम मेरे बस का नहीं, क्योंकि मैं कोई आलोचक नहीं हूँ। मैंने यह उपन्यास एक पाठक के रूप में पढ़ा है और यहाँ जो मैं लिख रहा हूँ, वह इस उपन्यास की आलोचना नहीं, केवल मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया है। लेकिन इस प्रश्न का उत्तर तो मुझे खोजना ही होगा कि मुझे यह अतिप्रसिद्ध उपन्यास क्यों एक साधारण-सा उपन्यास लगा? क्यों यह मुझे ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया?
मुझे लगता है कि यह उपन्यास यथार्थवाद-विरोधी रचना है। जिस समय यह लिखा गया था, सारी दुनिया का यथार्थ कई बुनियादी रूपों में बदल रहा था। मसलन, उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की विश्व-व्यवस्था एक नया रूप ले रही थी। पूँजीवाद एक नये चरण में प्रवेश कर चुका था। समाजवाद--चाहे वह जैसा भी था--अस्तित्व में आ चुका था और पूँजीवाद को चुनौती भी दे रहा था। उपनिवेशवाद का अंत हो रहा था, लेकिन साम्राज्यवाद--खास तौर से अमरीकी साम्राज्यवाद--पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया के रूप में तीसरी दुनिया में फैलकर एक नया रूप धारण कर रहा था। अमरीका उस समय एक समृद्ध और शक्तिशाली देश के रूप में अपने प्रभुत्व का विस्तार कर रहा था, पर शेष विश्व के साथ के अंतर्विरोधों के साथ-साथ उसे अपने आंतरिक अंतर्विरोधों का भी सामना करना पड़ रहा था। लेकिन इस उपन्यास में उस समय के इस यथार्थ को सामने लाने के बजाय दबाने, छिपाने, उसकी उपेक्षा करने या उसकी तरफ से पाठकों का ध्यान हटाने का काम किया गया है।
साहित्य में सामाजिक अंतर्विरोधों को दबाने और उनकी तरफ से लोगों का ध्यान हटाने का एक तरीका है नैतिक किस्म के मानसिक द्वंद्वों को प्रमुखता प्रदान करना और उन्हीं को सबसे अहम समस्याओं के रूप में प्रस्तुत करना। जिस समय 'The Catcher in the Rye' लिखा गया था, साहित्य में यथार्थवाद-विरोधी लोग ‘प्रामाणिकता’ पर बड़ा जोर दिया करते थे। पश्चिम की देखादेखी यह प्रवृत्ति हमारे साहित्य में भी आयी। उसी के चलते यहाँ ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ और ‘जिये-भोगे यथार्थ के चित्रण’ पर जोर देते हुए यथार्थवाद के विरुद्ध अनुभववाद को खड़ा किया गया।
'The Catcher in the Rye' में भी नैतिक किस्म का एक मानसिक द्वंद्व खड़ा किया गया है, जो इसके किशोर नायक की मनोदशा का चित्रण करते हुए 'phoney' और 'genuine' के द्वंद्व के रूप में उभारा गया है। उपन्यास के नायक को सारी दुनिया 'phoney' लगती है, जबकि वह एक 'genuine' जिंदगी जीना चाहता है। उपन्यास में 'phoney' शब्द इतनी बार आया है कि मानो यह उपन्यास की थीम बताने वाला key-word हो। लेकिन अपने लिखे जाने के समय यह उपन्यास और इसका नायक पाठकों और आलोचकों को चाहे जितने 'genuine' लगते हों, आज दोनों ही 'phoney' लगते हैं!
उदाहरण के लिए, उपन्यास का नायक अपनी छोटी बहन के द्वारा यह पूछे जाने पर कि वह क्या बनना चाहता है, कहता है:
"I keep picturing all these little kids playing some game in this big field of rye and all. Thousands of little kids, and nobody's around--nobody big, I mean--except me. And I'm standing on the edge of some crazy cliff. What I have to do, I have to catch everybody if they start to go over the cliff--I mean if they're running and they don't look where they're going I have to come out from somewhere and catch them. That's all I'd do all day. I'd just be the catcher in the rye and all. I know it's crazy, but that's the only thing I'd really like to be."
यही है इस उपन्यास की थीम। लेकिन यह जिस भावुकतापूर्ण आदर्शवाद को सामने लाती है, वह 1950 और 1960 के दशकों में साहित्य के पाठकों और आलोचकों को चाहे जितना 'genuine' लगता रहा हो, आज बिलकुल 'phoney' लगता है।
उपर्युक्त उद्धरण का सीधा संबंध उपन्यास के नामकरण से जुड़ता है। लेकिन राई के खेत की यह कल्पना लेखक की अपनी नहीं है। उसने स्वयं स्वीकार किया है कि यह शीर्षक रॉबर्ट बर्न्स की एक कविता की पंक्ति से लिया गया है। रॉबर्ट बर्न्स (1759-1796) अठारहवीं शताब्दी के कवि हैं, जो स्कॉटलैंड के महानतम कवि माने जाते हैं। उनकी कविता की पंक्ति है--"If a body meet a body comming through the Rye"। सेलिंगर ने 'meet' की जगह 'catch' कर दिया है और अपने उपन्यास के नायक को 'Catcher in the Rye' बना दिया है।
बहरहाल, मुझे उपन्यास पढ़ने के बाद रॉबर्ट बर्न्स की वह कविता पढ़ने की इच्छा हुई, जिसकी पंक्ति के आधार पर उपन्यास का नामकरण किया गया है। मैंने बहुत पहले इस कवि की कुछ कविताएँ 'The Golden Treasury of the Best Songs and Lyrical Poems in the English Language' में पढ़ी थीं। सौभाग्य से मेरे द्वारा 22 मई, 1961 के दिन खरीदी गयी यह पुस्तक आज भी मेरे पास है। मैंने उसे खोजकर उलटा-पलटा और उसमें संकलित रॉबर्ट बर्न्स की तमाम कविताएँ पढ़ डालीं। वह कविता तो मुझे नहीं मिली, जिसकी पंक्ति के आधार पर उपन्यास का नामकरण किया गया है, लेकिन उनमें से एक कविता में अपनी ये प्रिय पंक्तियाँ मुझे पुनः पढ़ने को मिल गयीं:
To see her is to love her,
And love but her for ever;
For nature made her what she is,
And never made anither!
मुझे लगता है कि महान साहित्यिक रचनाएँ ऐसी ही होती हैं या होनी चाहिए। यह नहीं कि अपने लिखे जाने के समय तो उनका बड़ा शोर हो और कालान्तर में उनकी प्रशंसाएं बढ़ा-चढ़ाकर की गयी लगने लगें।
--रमेश उपाध्याय
मैंने जे डी सेलिंगर को पहले कभी नहीं पढ़ा था, लेकिन उनके उपन्यास 'The Catcher in the Rye' का नाम सुना था। जब मैंने लिखना शुरू किया था, 1960 के दशक में, तब इसकी काफी चर्चा थी। पिछले दिनों सेलिंगर की मृत्यु के समय उनके बारे में लिखे गये लेखों में पुनः इस उपन्यास के बारे में पढ़ा, तो इच्छा हुई कि इसे पढ़ा जाये। खोजकर पढ़ा। यह ज्यादा बड़ा नहीं, केवल 218 पृष्ठों का उपन्यास है और बोलचाल वाली अंग्रेजी में रोचक ढंग से लिखा गया है, इसलिए पढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा। इसमें होल्डेन कॉलफील्ड नामक एक अमरीकी किशोर की कहानी है, जिसे फेल हो जाने पर स्कूल से निकाल दिया जाता है। स्कूल से अपने घर पहुँचने के बीच के तीन दिनों में वह क्या-क्या करता है और उसके साथ क्या-क्या होता है, इसका बयान वह स्वयं करता है। इस क्षीण-से कथा-सूत्र पर टँगी छोटी-छोटी असंबद्ध-सी घटनाओं के वर्णन के ज़रिये लेखक ने अमरीकी जीवन का एक चित्र प्रस्तुत किया है।
यह उपन्यास पहली बार 1951 में हैमिश हैमिल्टन से ग्रेट ब्रिटेन में प्रकाशित हुआ था। पेंगुइन बुक्स में यह पहली बार 1958 में आया और तब से यह लगातार पुनर्मुद्रित होता रहा है। कई बार तो एक वर्ष में दो-दो बार भी। लेकिन इस अतिप्रसिद्ध उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे ऐसा क्यों लगा कि यह एक साधारण-सा उपन्यास है, जिसे विश्व की महान कृतियों के समकक्ष तो क्या, उनके पासंग में भी नहीं रखा जा सकता? आखिर इसमें ऐसी क्या बात थी कि यह इतना चर्चित और प्रसिद्ध हुआ?
मन में उठे इन सवालों के जवाब पाने के लिए मैंने इस उपन्यास के बारे में आलोचकों के विचार पढ़े, तो पता चला कि यह उपन्यास अपने कथ्य के कारण उतना नहीं, जितना अपने शिल्प के नयेपन के कारण सराहा गया था। लेकिन कोई साहित्यिक रचना केवल शिल्प के बल पर इतनी चर्चित और प्रसिद्ध नहीं हो सकती। इसमें कथ्य का भी कुछ नयापन था।
उस समय पश्चिमी देशों के साहित्य में, शीतयुद्ध के संदर्भ में, यथार्थवाद के विरुद्ध एक अभियान-सा चलाया जा रहा था, जो आधुनिकतावाद, अस्तित्ववाद और नकारवाद की विचारधाराओं के साथ किये जाने वाले ‘नवलेखन’ (नयी कविता, नयी कहानी, नयी आलोचना) के रूप में तथा ‘एंटी’ और ‘एब्सर्ड’ जैसे उपसर्गों वाली विधाओं (एंटी-स्टोरी, एंटी-नॉवेल, एब्सर्ड ड्रामा आदि) के रूप में सामने आ रहा था। हिंदी साहित्य में यह ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ का और कुछ आगे चलकर ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ का समय था। निस्संदेह इस ‘नवलेखन’ में शिल्प के स्तर पर ही नहीं, कथ्य के स्तर पर भी कुछ नया था। इसमें पुरानी आदर्शवादी भावुकता और परंपरागत नैतिकता का निषेध था, लेकिन साथ-साथ उस यथार्थवाद का भी निषेध था, जो आधुनिक साहित्य की एक मुख्य विशेषता बनकर विश्व साहित्य में अपनी एक प्रभुत्वशाली जगह बना चुका था।
यथार्थवाद किसी कला-रूप, कला-सिद्धांत या रचना-पद्धति के रूप में नहीं, बल्कि पूँजीवाद के उदय के साथ उसकी विश्वदृष्टि के रूप में सामने आया था। साहित्य और कलाओं में वह यथार्थ को सार्थक और सोद्देश्य रूप में चित्रित करने की कला के रूप में विकसित हुआ था। शुरू से ही उसकी विशेषता यह रही है कि यथार्थ के बदलने के साथ वह स्वयं को भी बदलता है। उसके इस प्रकार बदलते रहने के कारण ही उसके विकासमान स्वरूप का संकेत करने वाले उसके विभिन्न नामकरण होते रहते हैं, जैसे--प्रकृतवाद, आलोचनात्मक यथार्थवाद, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, समाजवादी यथार्थवाद और अब भूमंडलीय यथार्थवाद। उन्नीसवीं शताब्दी तक यथार्थवाद काफी प्रौढ़ और परिपक्व हो चुका था, जिसे हम मुख्यतः फ्रांस, रूस और इंग्लैंड के तत्कालीन कथासाहित्य में देख सकते हैं।
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में उपनिवेशवाद-विरोधी स्वाधीनता आंदोलनों तथा समाजवादी क्रांतियों के साथ-साथ एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका के विभिन्न देशों के साहित्य में यथार्थवाद का विकास अपने-अपने ढंग से हुआ। लेकिन इस नयी परिस्थिति में पूँजीवाद को यथार्थवाद खटकने लगा था, क्योंकि वह साहित्य और कलाओं में उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों तथा समाजवादी क्रांतियों के पक्ष से पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की आलोचना का औजार बन गया था। इसी कारण उसका नामकरण हुआ आलोचनात्मक यथार्थवाद। उसके बाद जब से समाजवादी देशों में उसके नये रूप समाजवादी यथार्थवाद की चर्चा होने लगी, तब से तो पूँजीवादी देशों में यथार्थवाद को शत्रुवत ही माना जाने लगा। शीतयुद्ध के दौरान साहित्य और कलाओं में यथार्थवाद-विरोधी प्रवृत्तियों को खूब उभारा गया तथा व्यापक प्रचार के बल पर उन्हें एक तरफ ‘लोकप्रिय’ बनाया गया, तो दूसरी तरफ प्रतिष्ठित और पुरस्कृत भी किया गया।
'The Catcher in the Rye' उसी दौर की रचना है और इसके वास्तविक मूल्य और महत्त्व को यथार्थवाद-विरोधी अभियान के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। लेकिन यह काम मेरे बस का नहीं, क्योंकि मैं कोई आलोचक नहीं हूँ। मैंने यह उपन्यास एक पाठक के रूप में पढ़ा है और यहाँ जो मैं लिख रहा हूँ, वह इस उपन्यास की आलोचना नहीं, केवल मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया है। लेकिन इस प्रश्न का उत्तर तो मुझे खोजना ही होगा कि मुझे यह अतिप्रसिद्ध उपन्यास क्यों एक साधारण-सा उपन्यास लगा? क्यों यह मुझे ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया?
मुझे लगता है कि यह उपन्यास यथार्थवाद-विरोधी रचना है। जिस समय यह लिखा गया था, सारी दुनिया का यथार्थ कई बुनियादी रूपों में बदल रहा था। मसलन, उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की विश्व-व्यवस्था एक नया रूप ले रही थी। पूँजीवाद एक नये चरण में प्रवेश कर चुका था। समाजवाद--चाहे वह जैसा भी था--अस्तित्व में आ चुका था और पूँजीवाद को चुनौती भी दे रहा था। उपनिवेशवाद का अंत हो रहा था, लेकिन साम्राज्यवाद--खास तौर से अमरीकी साम्राज्यवाद--पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया के रूप में तीसरी दुनिया में फैलकर एक नया रूप धारण कर रहा था। अमरीका उस समय एक समृद्ध और शक्तिशाली देश के रूप में अपने प्रभुत्व का विस्तार कर रहा था, पर शेष विश्व के साथ के अंतर्विरोधों के साथ-साथ उसे अपने आंतरिक अंतर्विरोधों का भी सामना करना पड़ रहा था। लेकिन इस उपन्यास में उस समय के इस यथार्थ को सामने लाने के बजाय दबाने, छिपाने, उसकी उपेक्षा करने या उसकी तरफ से पाठकों का ध्यान हटाने का काम किया गया है।
साहित्य में सामाजिक अंतर्विरोधों को दबाने और उनकी तरफ से लोगों का ध्यान हटाने का एक तरीका है नैतिक किस्म के मानसिक द्वंद्वों को प्रमुखता प्रदान करना और उन्हीं को सबसे अहम समस्याओं के रूप में प्रस्तुत करना। जिस समय 'The Catcher in the Rye' लिखा गया था, साहित्य में यथार्थवाद-विरोधी लोग ‘प्रामाणिकता’ पर बड़ा जोर दिया करते थे। पश्चिम की देखादेखी यह प्रवृत्ति हमारे साहित्य में भी आयी। उसी के चलते यहाँ ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ और ‘जिये-भोगे यथार्थ के चित्रण’ पर जोर देते हुए यथार्थवाद के विरुद्ध अनुभववाद को खड़ा किया गया।
'The Catcher in the Rye' में भी नैतिक किस्म का एक मानसिक द्वंद्व खड़ा किया गया है, जो इसके किशोर नायक की मनोदशा का चित्रण करते हुए 'phoney' और 'genuine' के द्वंद्व के रूप में उभारा गया है। उपन्यास के नायक को सारी दुनिया 'phoney' लगती है, जबकि वह एक 'genuine' जिंदगी जीना चाहता है। उपन्यास में 'phoney' शब्द इतनी बार आया है कि मानो यह उपन्यास की थीम बताने वाला key-word हो। लेकिन अपने लिखे जाने के समय यह उपन्यास और इसका नायक पाठकों और आलोचकों को चाहे जितने 'genuine' लगते हों, आज दोनों ही 'phoney' लगते हैं!
उदाहरण के लिए, उपन्यास का नायक अपनी छोटी बहन के द्वारा यह पूछे जाने पर कि वह क्या बनना चाहता है, कहता है:
"I keep picturing all these little kids playing some game in this big field of rye and all. Thousands of little kids, and nobody's around--nobody big, I mean--except me. And I'm standing on the edge of some crazy cliff. What I have to do, I have to catch everybody if they start to go over the cliff--I mean if they're running and they don't look where they're going I have to come out from somewhere and catch them. That's all I'd do all day. I'd just be the catcher in the rye and all. I know it's crazy, but that's the only thing I'd really like to be."
यही है इस उपन्यास की थीम। लेकिन यह जिस भावुकतापूर्ण आदर्शवाद को सामने लाती है, वह 1950 और 1960 के दशकों में साहित्य के पाठकों और आलोचकों को चाहे जितना 'genuine' लगता रहा हो, आज बिलकुल 'phoney' लगता है।
उपर्युक्त उद्धरण का सीधा संबंध उपन्यास के नामकरण से जुड़ता है। लेकिन राई के खेत की यह कल्पना लेखक की अपनी नहीं है। उसने स्वयं स्वीकार किया है कि यह शीर्षक रॉबर्ट बर्न्स की एक कविता की पंक्ति से लिया गया है। रॉबर्ट बर्न्स (1759-1796) अठारहवीं शताब्दी के कवि हैं, जो स्कॉटलैंड के महानतम कवि माने जाते हैं। उनकी कविता की पंक्ति है--"If a body meet a body comming through the Rye"। सेलिंगर ने 'meet' की जगह 'catch' कर दिया है और अपने उपन्यास के नायक को 'Catcher in the Rye' बना दिया है।
बहरहाल, मुझे उपन्यास पढ़ने के बाद रॉबर्ट बर्न्स की वह कविता पढ़ने की इच्छा हुई, जिसकी पंक्ति के आधार पर उपन्यास का नामकरण किया गया है। मैंने बहुत पहले इस कवि की कुछ कविताएँ 'The Golden Treasury of the Best Songs and Lyrical Poems in the English Language' में पढ़ी थीं। सौभाग्य से मेरे द्वारा 22 मई, 1961 के दिन खरीदी गयी यह पुस्तक आज भी मेरे पास है। मैंने उसे खोजकर उलटा-पलटा और उसमें संकलित रॉबर्ट बर्न्स की तमाम कविताएँ पढ़ डालीं। वह कविता तो मुझे नहीं मिली, जिसकी पंक्ति के आधार पर उपन्यास का नामकरण किया गया है, लेकिन उनमें से एक कविता में अपनी ये प्रिय पंक्तियाँ मुझे पुनः पढ़ने को मिल गयीं:
To see her is to love her,
And love but her for ever;
For nature made her what she is,
And never made anither!
मुझे लगता है कि महान साहित्यिक रचनाएँ ऐसी ही होती हैं या होनी चाहिए। यह नहीं कि अपने लिखे जाने के समय तो उनका बड़ा शोर हो और कालान्तर में उनकी प्रशंसाएं बढ़ा-चढ़ाकर की गयी लगने लगें।
--रमेश उपाध्याय
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